डीएनए हिंदी: वरिष्ठ कथाकार मार्टिन जॉन पश्चिम बंगाल के पुरुलिया जिले में रहते हैं. कहानी, कविता और लघुकथा लिखने के साथ-साथ पेंटिंग और रेखाचित्र में उनकी विशेष रुचि है. इनके रेखाचित्र रेखाचित्र सारिका, हंस, कथाक्रम, नया ज्ञानोदय, वागर्थ, कथादेश, दोआबा, साहित्य अमृत आदि पत्रिकाओं में छपने के साथ कई अखबारों में भी प्रकाशित होते रहे हैं. 'सब खैरियत है' और 'फेसबुक लाइव और जिंदगी का दी एंड' इनके प्रकाशित लघुकथा संग्रह हैं. कविताओं का एक संग्रह 'ग्राउंड जीरो से लाइव' है जबकि मार्टिन जॉन की कहानियों का संग्रह हाल ही में 'राजधानी कब आएगी' नाम से प्रकाशित हुआ है.
रेलवे की नौकरी से सेवानिवृत्त हुए मार्टिन जॉन का जन्म झारखंड में हुआ था. शायद यह भी एक वजह है कि उनकी कहानियों में पर्यावरण की चिंता झलकती है. DNA Lit में छापी जा रही यह कहानी भी प्रकृति के प्रति जॉन की सजगता दिखाती है. एक कटे हुए पेड़ की जुबानी प्रकृति की उपेक्षा बयां करती मार्टिन जॉन की यह कहानी उम्मीद है पाठकों को पसंद आएगी.

मार्टिन जॉन की कहानी 'दर्द-ए-दरख्त' 

'पेड़ कटते है / सारे जीव बिलख उठते हैं / नन्ही गिलहरियां रोती हैं / तितलियां रोती हैं / चींटियां पेड़ों के शवों पर बिछ जाती हैं / पंछी कातर रुदन करते हैं /....एक पेड़ कटता / सौ बरस का इतिहास कटता है.' (संध्या नवोदिता)
मैं कट चुका हूं.
मेरे समूचे शरीर को कई हिस्सों में बांट दिया गया है. नई बसी कॉलोनी से दूर, जहां से खेत शुरू होता है, फेंक दिया गया हूं, जैसे घर से निकाले गए कचरे फेंक दिए जाते हैं. वहां पहले से ही कचरों का ढेर है. मेरे सामने सिर झुकाए, उंकड़ू होकर अविनाश बाबू बैठे हैं. चश्मे की कैद में दोनों आंखें गंगा-जमना की जद में हैं. वक्त से पहले जंग खाया चेहरा किसी अबोध बालक के चेहरे में तब्दील होकर रुआंसा हो गया है. मेरा दर्द महसूस कर उनकी आंखें बार-बार छलक जा रही हैं. मैं इस काबिल नहीं कि उनकी आंखों के समंदर को पी सकूं, जख्मी दिल को राहत देने के लिए तसल्ली के दो बोल बोल सकूं. अपनी बची-खुची सांसों, डूबती धड़कनों, अधखुली आंखों से उन्हें निहार रहा हूं. वे कुछ बुदबुदा रहे हैं. दाएं-बाएं सिर हिला रहे हैं. अलफाज मेरी समझ से बाहर हैं लेकिन उनके अंदर के उथल-पुथल महसूस कर सकता हूं. तीस साल का साथ रहा है. अबूझ भाषाओं के संप्रेषण के बावजूद हम एक दूसरे से घुलमिल गए थे. अंतरंगता की जड़ें इतनी मजबूत हो गई थीं कि एक-दूसरे से जुदा होने की कल्पना से ही हम बुरी तरह सिहर उठते थे, भय के अजगरी फुफकार से ही हमारे प्राण सूख जाते थे. ...मैं बेआवाज निश्चल पड़ा हूं. मेरे शरीर से पानी के रूप में खून रिस रहा है. कराह रहा हूं. छटपटा रहा हूं. मेरी तड़प, छटपटाहट, कराहों को अविनाश बाबू ही महसूस कर सकते हैं. मेरे पालनहार अविनाश बाबू. 
सूरज माथे पर चढ़ आया है. जेठ का महीना है. आग बरस रही है आसमान से. देह को झुलसा देने वाली हवा मानो आग की भट्ठी को छूकर आ रही है. मेरे शरीर को खूबसूरत शक्ल में तब्दील करनेवाली पत्तियां झुलस रही हैं बेआवाज, निशब्द. कुछ देर पहले ही तो हवा की तासीर से बेखौफ होकर अठखेलियां कर रही थीं. उनकी सरसराहट में एक जादू होता था. एक सम्मोहन होता था. एक राग होता था, लय और ताल का अनोखा मिश्रण भी. इसे अविनाश बाबू ही समझ सकते थे. शिद्दत से महसूस कर सकते थे. जी हां, सिर्फ अविनाश बाबू ही, दूजा कोई नहीं.
ढीली पड़ रहीं सांसों, आंखों के सम्मुख गिरते घने अंधेरों के परदे को बमुश्किल सरका कर देखने की कोशिश कर रहा हूं - अविनाश बाबू माथे पर चुहचुहा रहे पसीना गमछे से पोंछ रहे हैं. नम आंखें साफ कर रहे हैं. बदन के कपड़े तर-बतर हैं पसीने से. उनकी ये हालत मुझसे देखी नहीं जा रही है. आसमानी आग से उन्हें बचना चाहिए. साठ पार कर चुके हैं. उम्र की इस दहलीज पर आकर दो-दो बीमारियों से जूझ रहे हैं. उन्हें वापस हो जाना चाहिए. मेरा क्या... मैं तो जिंदगी के आखिरी पल गिन रहा हूं. मेरी वजह से अपनी तबीयत उन्हें खराब नहीं करनी चाहिए. काश! कोई उन्हें घर तक पहुंचा देता! ...घर! ... अपना घर! ...अपने हाथों से बनाया साधारण-सा घर, खून-पसीना एक करके, प्यार, ममता, स्नेह की छींटें मार-मारकर अपनेपन की मजबूत दीवार खड़ी कर बनाया घर! छोटा, मामूली सुविधाओं वाला अपना घर! ...लेकिन अब तो घर का नक्शा ही बदल रहा है. तोड़-फोड़ जारी है. शोर-शराबा है. कहां सुकून मिलेगा अब घर में भी.
पल-पल कुम्हलाती जा रही पत्तियों को हौले-हौले सहला रहे हैं. मेरा क्षत-विक्षत शरीर अविनाश बाबू के हाथों का स्नेहिल स्पर्श महसूस कर रहा है. सहलाने का अंदाज कुछ ऐसा है जैसे कोई अस्वस्थ, मरणासन्न व्यक्ति को आत्मीयजन सहलाया करते हैं. ...समझ सकता हूं कि रूहानी रिश्ते का ज्वार अविनाश बाबू के अंदर हलचल मचा रहा है. 

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सामने के घर की चारदीवारी पर मैनों का एक समूह अपने स्वभाव के विपरीत बगैर कोई चहलकदमी किए मुझसे मुखातिब होकर धीर-गंभीर स्वर में संवाद कर रहा है. शायद शोकगीत है. मेरे आखिरी सफर का गवाह बनकर कुदरत की कचहरी में हाजिर होकर गुहार लगाएगी कि इन्सानों को इस कदर बेरहम होने से बचाया जाए. ...कुछ ऊंचाई पर, आसमान के नीचे सुग्गों का एक झुंड शोर मचाते हुए मंडरा रहा है. उसके स्वर में क्रोध है, प्रतिरोध है, अफसोस है, आक्रोश है. लानत-मलामत भेज रहा है दाना-पानी छीनने वालों को. 
दो-चार बकरियां आ पहुंची हैं मेरे पास. थोड़ी-सी हरी किंतु कुम्हलाई, दम तोड़ती पत्तियों को अपना निवाला बनाने. अविनाश बाबू खामोश हैं. उन्हें पत्तियों को नोचते, चुभलाते देख रहे हैं एकटक. कोई प्रतिक्रिया नहीं. कोई हरकत नहीं. अविचल, निश्चल. यही अविनाश बाबू एक दिन डंडे लेकर दौड़ पड़े थे बकरियों के पीछे. ...मेरे बचपन के दिन थे. नया-नया घर बना था. घर के बहुत सारे काम अधूरे पड़े थे. घर के चारों तरफ बांस की फट्टियों से अस्थायी चारदीवारी बनाई गई थी. अभी मेरे कोमल,कच्चे शरीर पर कुछ ही पत्तियां उगी थीं. अविनाश बाबू दिन-ब-दिन व्यस्क होती पत्तियों को बड़े प्यार से निहारा करते थे. अक्सर उनके हाथ का स्नेहसिक्त स्पर्श अनुभव कर मैं भाव-विभोर हो जाता था. पता नहीं कैसे एक दिन, सामने के खेत को लांघकर कुछ बकरियां कॉलोनी में घुस आईं. अविनाश बाबू उस समय घर की छत पर एक-दो मजदूरों के साथ किसी काम में व्यस्त थे. अकस्मात् जब बकरियों की मिमियाहट उनके कानों में पड़ी तो छत के किनारे आकर नीचे झांका. चारदीवारी लांघकर अंदर घुसी एक बकरी को देखकर वे फनफनाते हुए नीचे उतरे और 'हट हट' कर रगेदते हुए जब मेरे करीब आए तो एक पत्ती को नुचा देखकर उनके दिल पर खंजर चल गया. तब तक बकरियां चारदीवारी फांद कर चंपत हो गई थीं. फिर भी, सामने पड़ा डंडा उठाकर दौड़ पड़े थे उनके पीछे.
जनम के कुछ दिन बाद ही नर्सरी से खरीद लाया गया था मुझे. नवजात अवस्था में दो-चार पत्तियां ही उगी थीं मेरे बदन पर. नवनिर्मित घर के सामने मेरे बढ़ने-फैलने के लिए पर्याप्त जगह नहीं थी, इसलिए अविनाश बाबू ने पिछवाड़े, कुएं की कुछ दूरी पर मुझे रोप दिया. नाजुक जड़ों को यह जगह मुफीद लगी. जरूरत भर धूप, नम जमीन, खुली जगह और क्या चाहिए था मुझे. हां, शुरुआती दिनों में पौष्टिक भोजन का अभाव खला. जल्द ही इस कमी को दूर कर दिया अविनाश बाबू ने. जैविक और रासायनिक खाद उचित मात्रा में मेरी जड़ों के चारों ओर देने लगे एक निश्चित समय के अंतराल में. अतिरिक्त जतन, देख-भाल, बीतते समय में कुछ इस तरह होने लगी जैसे माता-पिता अपने बच्चों की करते हैं. कंक्रीट के जंगल में पेड़-पौधों के प्रति ऐसा प्यार और स्नेह जताते हुए देखना एक दुलभ दृश्य है. यह वही समय था जब हमदोनों जज्बाती रिश्ते की मजबूत डोर से बंधते चले गए. बचपन से ही इन्सानों को पढ़ाया, बताया, रटाया जाता है विज्ञानी जगदीश चंद्र बोस का हवाला देते हुए, सेमिनारों, मजलिसों, गोष्ठियों में नेताओं, बुद्धिजीवियों, पर्यावरण प्रेमियों द्वारा बार-बार दुहराया जाता है कि पेड़-पौधे भी प्राणी हैं. दुःख, दर्द, हर्ष, विषाद, संवेदना के भाव उनके भी शिराओं में हरहराते हैं. लेकिन इन्सानों के व्यावहारिक जीवन में इन सब बातों की कोई अहमियत नहीं. उन्हें कटते, मरते, सूखते, जलते हुए देखना, सुनना उनके अंदर कोई संवेदना नहीं जगाते. उनके लिए तो ये रोजमर्रे की बात है ...साधारण घटना है.
अलसुबह जागना, नित्यक्रिया से निवृत्त होने के पहले मेरे करीब पहुंचना, स्नेहिल स्पर्श से मुझे ऊर्जा देना, जड़ के आसपास की मिट्टी की नमी का मुआयना कर जरूरत भर पानी देना, बेहद गौर से सूत-दर-सूत मुझे बढ़ते देखना - ये सारी क्रियाएं उनकी सुबह की दिनचर्या में शामिल हो गईं थीं. जब भी मेरे बदन पर उगी कोई नई पत्ती पर नजर पड़ती तो एक अव्यक्त खुशमिजाजी से उनका मुखड़ा दिपदिपाने लगता. उस खुशी को अपनी पत्नी से साझा करते. प्रतिक्रिया स्वरूप वह मुस्कराकर मेरे प्रति उनके जुनूनी मुहब्बत को तवज्जो देतीं, "ठीक है, समय के मुताबिक नई पत्तियां आएंगी, नई शाखाएं निकलेंगी ही. ...फिलहाल आप जाकर फ्रेश हो लीजिए."  
जरूरत से ज्यादा जतन और पौष्टिक आहार का ही कमाल था कि मुझ पर समय से पहले गजब की जवानी छलछलाने लगी. पुष्ट शाखाओं, अनगिन चमकीली हरी पत्तियों से आच्छादित मेरे बदन को बाहों में भर कर कुछ वैसी ही वात्सल्य अनुभूति से भर उठते थे जब वे अपने दोनों बेटों को गोद में लेते. बहुत कम समय में मेरे बढ़ते कद का अंदाजा आप इसी से लगा सकते हैं कि अब उन्हें मुझे अपनी नजरों में भरने के लिए अपनी गर्दन पूरी तरह ऊंची करनी पड़ती थी. इस विरल एहसास को वही महसूस कर सकता है जो अपने हाथों से पेड़-पोधे रोप कर जज्बाती तौर पर उनकी देख-भाल करता है.

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रोहित और शोभित कैसे बेरहम, पत्थर दिल बनकर खड़े थे जब मेरे जिस्म पर बेदर्दी के साथ कुल्हाड़ी से वार-पे-वार हो रहे थे. मेरा दर्द, मेरी कराह, मेरा चीत्कार कोई नहीं सुन रहा था, न कोई महसूस करने की कोशिश कर रहा था सिवाए अविनाश बाबू के. वही थे जिनसे मैं अपना दुःख-दर्द साझा कर सकता था. लेकिन अब उनकी सुनता कौन है? उम्र और बीमारियों से लाचार होकर बरामदे वाली जिंदगी जी रहे हैं. उनकी भावनाओं की कद्र करने की बात तो दूर, उनका वजूद ही दो कौड़ी का हो गया है इस घर में. बेटे बड़े हो गए हैं. नई समझ और नई सोच की गिरफ्त में हैं. शादीशुदा और बाल बच्चेदार हैं. उम्दा तालीम पाकर सरकारी मुलाजिम बन गए हैं. पापा का बनाया घर अब उन्हें 'आउट डेटेड' लग रहा है. लुक बदलना है. नए जमाने के साथ कदमताल मिलाना है - घर, साज-सज्जा, रहन-सहन, बात-विचार अदि सभी मामलों में. आभिजात्यपन की मायावी दुनिया की जद में हैं दोनों बेटे. छत पर नए डिजाइन के कमरे बनवाने हैं. छत पर फैली मेरी शाखाएं घर के मॉडर्न लुक को बदसूरत बना सकती हैं. पहले शाखाएं ही छांटने की बात हो रही थी. भविष्य में फिर शाखाओं के बढ़ने-फैलने की 'आशंका' के मद्देनजर मेरे वजूद को ही मिटा डालने का कड़ा फैसला कर लिया गया. उनकी नजर में मेरी कोई उपयोगिता नहीं रही. बड़का का मानना है कि घर के आसपास जमीन के अंदर मेरी जड़ें पसरती जा रही हैं. ... शरीर विकराल रूप धारण करता जा रहा है. ...सूखे पत्तों के ढेर से घर के पिछवाड़े का लुक भद्दा होता जा रहा है. ...लब्बोलुआब यही है कि मेरी मौजूदगी से अब उन्हें दिक्कतें ही दिक्कतें हो रही हैं. जाहिर है मेरे और इन बच्चों के बीच अंतरंगता का अभाव रहा है. बढ़ती उम्र के साथ वे मुझसे उस रिश्ते के माफिक जुड़ नहीं पाए जिस प्रगाढ़ता से अविनाश बाबू जुड़े. दरअसल, नेट युग, संचार क्रांति के जमाने के इन बच्चों की 'जोड़ना-जुड़ना' जैसी क्रियाएं आभासी संसार तक ही सीमित रह गई हैं. इस दुनिया में विचरण करने वाले दुनिया-जहान से तो पलक झपकते जुड़ जाते हैं, लेकिन अपनों से जुड़कर भी जुड़ नहीं पाते. रिश्तों के घोर बनावटी, पाखंडी समय में शुष्क संवेदनाओं, पथराई भावनाओं की बुनियाद पर रेत की हवेली की मानिंद रिश्तों की इमारत बनानेवालों की दुनिया में पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, फूल-बगीचे, पहाड़-झरने, चांद-तारे, आकाश-बादल की जगह कहां बची है!
क्या रोहित और शोभित के दिलो-दिमाग से फिसल-निकल कर विस्मृति के गर्त में जा गिरे होंगे वे सारे बचपन के दिन! ...मुमकिन नहीं इतनी जल्दी भुला देना. जरूर जिंदा होंगी वो नटखट यादें उनके जहन में -  जब-तब मां-पापा की नजरें बचाकर, चुपके से छत पर आना, छत पर फैली मेरी शाखाओं के सहारे मेरी गोद में आकर बैठ जाना, पापा के बेपनाह मुहब्बत के एवज में दिए गए मेरे कच्चे-पके अमरूद को चटखारे लेकर खाना, अपने स्कूल बैग में छुपाकर ले जाना, सहपाठियों के बीच बांटना, जायकेदार अमरूद खाकर दोस्तों द्वारा तारीफ किया जाना - इतनी सारी मीठी और अंतरंग यादों पर वक्त की धूल इतनी जल्दी तो नहीं पड़ती! 
मां भी कैसी निष्ठुर होकर मुझे क्षत-विक्षत होते देख रही थी. जाहिर है, अपने बेटों के फैसले के प्रति उसका मौन समर्थन रहा होगा. कुछ दिन पहले ही की तो बात है, जब मेरे फलने-फूलने का सीजन था. असामान्य आकार के, पके, खुशबूदार अमरूद को अपने परिचितों, पड़ोसियों के बीच बांटते हुए, घर आए मेहमानों को खिलाते हुए बड़े शान से यह कहना नहीं भूलती, "ये मेरे घर का है." खानेवाले तो पहले अमरूद का आकार देखकर अचंभित होते, फिर खाने के बाद तारीफों के पुल बांधना नहीं भूलते. विडंबना तो देखिए, 'अपने घर के अमरुद' की तारीफ पाकर तो वह फूले नहीं समातीं. लेकिन जब-तब यह कहने से बाज नहीं आतीं, इधर-उधर बिखरे पत्तों और सुग्गों द्वारा खाए-अधखाए गिरे फलों को देखकर, "बड़ा गंदा हो रहा है पिछवाड़ा ...कितनी बार बुहारूं."
उस दिन खुशी के मारे कैसे चहकने लगी थीं मेरी शाखा में खिला पहला फूल देखकर. अलसुबह झाड़ू लेकर सूखे पत्तों को बुहारने आई थीं. खुशी के आवेग को वह रोक नहीं पाई थीं. मुख से आह्लादित स्वर फूट पड़ा था, "अजी सुनते हो, जल्दी आओ, बाहर निकलो. तुम्हारी मेहनत रंग ला रही है. कितना खूबसूरत सफेद फूल खिला है. अब तो फल भी आएंगे." स्वभाव का यह कैसा विरोधाभास, प्रेम का यह कैसा रहस्यमय अबूझ पक्ष था कि जब मेरे सीने पर धारधार कुल्हाड़ी से वार-पे-वार किए जा रहे थे, वे निश्चल खड़ी थीं. कहीं से भी पसीजने के लक्षण नहीं दिख रहे थे उनमें. ऐसा तो मैं नहीं कह सकता कि वह मुझसे रिश्ता जोड़ नहीं पाई थीं अभी तक. लगाव का अभाव था. वह भी तो रोज मुझे  प्यार से निहारा करती थीं. उगती पत्तियों, फैलती शाखाओं को देखकर प्रसन्न होती थीं. जब मैं जवान और गबरू होकर फल देने लगा, अक्सर उनके भी हाथों के स्नेहसिक्त स्पर्श पाकर पुलकित हो जाता था. ...आज अपनी आंखों के सामने मुझे जमींदोज होते देख चेहरे पर कोई भाव नहीं. मुझे बचाए जाने का तनिक भी प्रयास नहीं. ऐसी संवेदनहीनता की मुझे कतई उम्मीद नहीं थी. जिंदगी की ढलती शाम में, जीवनसंगिनी द्वारा अविनाश बाबू की भावनाओं का ऐसा अनादर, पुत्र सरीखे पेड़ के प्रति उनके अथाह प्रेम की ऐसी अवहेलना से मेरा हृदय चाक-चाक हुआ जा रहा था. ...मुझे जिंदा रखे जाने के समर्थन में मां के मुख से एक भी शब्द अगर सुनने को मिल जाता तो मैं यह मान कर चलता कि उसे रिश्ते की कद्र है. जुड़ाव, लगाव की अहमियत का एहसास है. 

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ऐसा नहीं कि मुझपर हो रहे अनवरत वार की कर्कश और भेदक आवाज पड़ोसियों के कानों तक नहीं पहुंच पा रही थी. कई पड़ोसी बगल के रास्ते से आते-जाते उचटती निगाहें फेंककर आगे बढ़ते जा रहे थे. ये सारे हैं तो तालीमशुदा, संस्कारी, सभ्य पड़ोसी. लेकिन फल खाकर तारीफों के पुल बांधनेवालों की एहसानफरामोशी तो देखिए! ...भूले से भी हमदर्दी का एक बोल नहीं फूट रहा है इनके मुख से. दरअसल किसी पेड़ का कटना, उखड़ना इनके लिए कोई मायने नहीं रखता ...कोई अजूबा भी तो नहीं! ऐसा तो नहीं हो सकता कि पेड़ की अहमियत से वे वाकिफ नहीं हैं. सच तो यह है कि सिर्फ पड़ोसी ही नहीं, अधिसंख्य लोगों के पास हाथी के दांत होते हैं - एक खाने, दूसरा दिखाने के. ये वही लोग हैं जो 'एक वृक्ष, एक प्राण', 'पेड़ बचाओ, जीवन बचाओ' सरीखे नारों के हिमायती तो हैं लेकिन सलूके-आम में हमारे बचाए जाने, हमें महफूज रखने की मुहिम में इनका किरदार सिफर होता है. जो लोग, गैर सरकारी संस्थाओं से जुड़कर इस मुहिम में अपनी भागीदारी का डंका पीटते हैं वो भी दोहरे चरित्र के होते हैं. पर्यावरण प्रेमी होने का ढोंग करते हैं. इनके पाखंडपन को खूब समझता हूं. पेड़ों के काटे जाने, वन माफिया द्वारा जंगलों पर हमला बोले जाने पर अपने संभाषणों में दुःख, प्रतिरोध तो जताते हैं, लेकिन अपने घरों, मकानों में उम्दा किस्म के पेड़ों की लकड़ियों से बने दरवाजे, खिड़कियां, फर्नीचर बनाए जाने की इच्छा, मोह को दबा नहीं सकते. दैत्याकार मशीनों, शक्तिशाली विस्फोटकों द्वारा पहाड़ों के सीने छलनी किए जाने, नदियों के गर्भ से रेत चुराए जाने पर ऐसा 'शोर' मचाते हैं जैसे उनके ही सीने को चाक-चाक कर दिया गया हो. स्थानीय, राजकीय शासन की निष्क्रियता, नाजायज ढंग से उगाहे 'धन' की बंदरबांट पर दमदार तरीके से प्रतिरोध दर्ज कर स्वयं को समाज, देश के जिम्मेदार, जागरूक नागरिक होने का सबूत देते हैं. लेकिन घरों और मकानों के निर्माण की बात जब आती है तो उन्नत किस्म के पत्थरों और रेत के इस्तेमाल की चाहत के गिरफ्त में रहते हैं. उन सामग्रियों की उपलब्धता जायज या नाजायज ढंग से हुई है -इससे उन्हें कोई मतलब नहीं ...कोई फर्क ही नहीं पड़ता. ... हमारे यहां सुंदर लाल बहुगुणा जैसे सच्चे पर्यावरण प्रेमी, आंदोलनजीवी कम ही हैं जिनकी जिंदगी का मकसद ही रहा है 'पेड़ बचाओ, प्राण बचाओ'. चिपको आंदोलन से जन-जन को जोड़ने, उसकी कामयाबी के लिए उन्होंने खुद को होम कर दिया. भारत के फॉरेस्ट मैन जादव पाथेंग के जुनून और जज्बे की जितनी तारीफ की जाए कम ही है जिसने अब तक चार करोड़ से ज्यादा पेड़ लगाकर एक कीर्तिमान स्थापित किया. राजस्थान की अनुपमा तिवाड़ी भी पौधरोपण और पेड़ों के संरक्षण की लिए चर्चित हो रही हैं. अभी भी कई ऐसे अनाम लोग हैं जो अपना तन-मन-धन समर्पित कर पेड़ लगाते हैं, उन्हें भरपूर संरक्षण देते हैं.
'दादू, यहां क्या कर रहे हैं? ...घर में आपको नहीं देखकर दादी परेशान हो रही हैं. घर चलिए!'
आसमानी आग के कहर में इजाफा हो गया है. सारी पत्तियां सफाचट कर गई हैं बकरियां. जो बची हैं झुलस गई हैं. मेरा शरीर अपनी रंगत खो चुका है. प्राणवायु बांटने वाली सांसें अलविदा कह रही हैं धड़कनों को ...करीब-करीब ढीले पड़ चुकी धड़कनों के तार विदग्ध हृदय को जुदाई की तलस्पर्शी धुन सुनाने में नाकामयाब हैं.
"चलो!" स्वर में विवशता है, अनिच्छा है, कातरता है, एक प्यारी सी, रूहानी रिश्ते वाली चीज के खो जाने पर भविष्य में कभी न मिलने की आशंका की लाचारगी भरी स्वीकार्यता है. मुश्किल से उठते हैं, पोते का सहारा लेकर. पूरा शरीर तरबतर है पसीने से. बार-बार अपने चेहरे पर गमछा फिराते हैं... आखिरी नजर डालते हैं मुड़ते वक्त, भाव-विह्वल होकर, जैसे कोई दिलो-जान से प्यार करने वाले की कब्र या चिता की राख को देखता है. कुछ न कर पाने की घोर विवशता क्षमा-याचना के भाव के साथ. बोझिल कदम इस तरह उठाते, बढ़ाते हैं जैसे कोई अपने आत्मीय के अंतिम संस्कार कर लौटता है. एक अरसे से उनके जहन की कंदराओं में आवाजाही करती ये पंक्तियां उनकी थरथराती जुबान पर आकर ठहर जाती हैं, मातमपुर्सी में साथ देने के लिए - 'जब भी कोई दरख्त कटता है, जिन्दगी में एक दोस्त कमता है.'

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DNA Katha Sahitya Dard-e-Darkht a story full of concerns about environment written by Martin John
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DNA Katha Sahitya: पर्यावरण चिंता से लबरेज मार्टिन जॉन की कहानी 'दर्द-ए-दरख्त'
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DNA Katha Sahitya: पर्यावरण चिंता से लबरेज मार्टिन जॉन की कहानी 'दर्द-ए-दरख्त'

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