डीएनए हिंदी: साहित्य में कविता के लिए यह जरूरी होता है कि वह अपने वक्त की आवाज पकड़े. अपने दौर से कटे हुए साहित्य को पाठक अक्सर हाशिए पर रखते हैं. इस लिहाज से देखें तो डॉ. कविता अरोरा की कविताओं का संग्रह 'पैबंद की हँसी' पर पुरानेपन का कोई पैबंद नहीं है. इन कविताओं के विषय प्रासंगिक हैं और प्रतीक-उपमान अनछुए. इन सबके बावजदू यह कहना पड़ता है कि भाषा के स्तर पर कविताओं में कई जगह जबरन डाले गए वैसे उर्दू शब्द हैं, जो हिंदी में बहुत सहज नहीं. इस वजह से कई बार वे शब्द हिंदी वाक्य संरचना के बीच पैबंद की तरह लगते हैं. 

संग्रह की कविताओं में अपने तरह का स्त्री-विमर्श है. इन कविताओं में फुटपाथ की स्त्रियां भी हैं और मध्यवर्गीय परिवार की भी. सबके अपने सपने हैं सबके अपने सवाल हैं. इन्हीं सवाल और सपनों के बीच से पनपती हैं कविता अरोरा की कविताएं. स्त्रियों के साथ हो रहे अपराध के खिलाफ भी कविता के स्वर मुखर हैं और स्त्रियों के सपनों को पंख देने वाली आवाज भी है संजीदगी से हैं. इस संग्रह में परंपराओं से बगावती तेवर भी हैं तो स्त्री के अंतर्द्वंद्व भी. ऐसी ही एक कविता है - जंगल.

जंगलों में 
कुलाँच भरता 
मृग 
सोने का है 
या मरीचिका? 

जानना उसे भी था 
मगर इक कथा 
सीता की रोकती है 

खींच देता हैं लखन, 
लकीर 
हर बार धनुष बाण से 

संस्कृति कहती 
दायरे में रहो, 
हो तभी तक 
सम्मान से 

हाँ यह सच है 
रेखाओं के पार 
का रावण छलेगा 

फिर ख़ुद को रचने में 
सच का 
आखर-आखर भी 
जलेगा 

मगर 
इन खिंची लीकों पे 
किसी को पाँव तो 
धरना ही होगा 

डरती, सहमती 
दंतकथाओं का 
मंतव्य बदलना होगा 

गर स्त्रीत्व को 
सीता ने 
साधारणत: 
जिया होता 

तब ज़िक्र राम का 
पुराणों ने 
कहाँ किया होता।
 

इस संग्रह में 'मिट्टी के दिये', 'महविश', 'क्लासिक तस्वीर', 'मजदूर' और 'चौराहे' जैसी कई कविताएं हैं जो फुटपाथ की जिंदगी और मेहनतकश लोगों पर निगाह डालती है. सिर्फ निगाह ही नहीं डालती बल्कि उनकी समस्याओं, सवालों और उनके सपनों से रू-ब-रू भी कराती हैं. ऐसी ही एक कविता है 'फुटपाथियाँ'.

ऊंची-ऊंची
रिहायशी बिल्डिंगों को
हसरतों से ताकते हैं
तो अक्सर
पूछते हैं
तोतली ज़ुबानों में
फुटपाथों पे
सिहरते-ठिठुरते
मुफलिस बच्चे,
अपनी अपनी माँओं से,
हमारे घर कहाँ हैं माँ?
हम घर क्यों नहीं जाते?
मगर
वह कुछ नहीं कहती
यह भी नहीं
कि एक झूठी सी
उम्मीद ही पकड़ा दे,
बस फिरा कर हाथ
उलझी चीकट से बालों में...
थमा देती है
हथेलियों में दबे
पसीजे, बासी रोटियां के टुकड़े,
और फिर
जवाबों के बगै़र
घुटनों पे
रेंग-रेंग कर
यूँ ही
पनप जाती है
इक और
ज़िल्लत भरी ज़िंदगी,
और ता-उम्र
सवाल पूछती हुई
दो...
फुटपाथिया आंखें। 

इसे भी पढ़ें : स्त्री के अंतर्मन को समझने की नई दृष्टि देता है साझा कविता संग्रह 'प्रतिरोध का स्त्री-स्वर'

'बाग़ की होली' और 'कचनारी इश्क़' जैसी कविताएं स्त्री-मन की परतों से निकली हैं. स्त्री के भीतर बसे प्रेमिल स्पर्श, उसकी याद का प्रतीकात्मक विवरण हैं ये कविताएं. 'कचनारी इश्क़' में प्रेम की अभिव्यक्ति बिल्कुल आम फहम शब्दों में है, बोलचाल वाली शैली में है. इस भाषा शैली की वजह से कविता में जो अल्हड़पन और बेलौसपन आया है, वह पाठकों को लुभाता है. कुछ पंक्तियां देखें - 

उमर-वुमर का लिहाज़-विहाज़
कुछ भी नहीं,
हया-वया, शरम-वरम,
सब ताक पर रख,
छेड़ती है मुझे,
इक शाख़ फूलों की,
पींगे हुलारती हैं
तब इक रूत झूलों की,
नज़्म-शज़्म, पढ़ती है,
लचकती डालियाँ
गुल पलाश की,...

अनछुए उपमानों की बात करूं तो इस संग्रह में चाय के लिए 'कत्थई इश्क़' या फिर स्त्री की पीड़ा को स्वर देने के लिए 'गोल टिकुली के पीछे' जैसी कई अभिव्यक्तियां आपको मिलेंगी. इस संग्रह की कई कविताओं में आपको व्यवस्था के खिलाफ खीज और आक्रोश तो दिखेंगे ही. इन स्थितियों पर व्यंग्य करती हुई भाषा भी मिलेगी. 'सूखी अंतड़ियाँ निचोड़ो' भी ऐसी ही कविता है. इस संग्रह की एक अन्य कविता है - गिड़गिड़ाओ.

तुम गिड़गिड़ाओ...
सर झुकाओ...

मान लो 
उसे विधाता... 
वह बस 
यही चाहता है... 

हाँ ठीक है, 
क़ाबिलियत के लिये 
तुमने की 
साधना...

मगर 
अब पेट साधना है 

तो झुको 
और झुको 

तरक़्क़ी देवी को पसंद 
यही आराधना 

ज़रूरतों से उपजी है 
झुकने की कला 

तनकर भला 
किसका भला 

तुम अपनी 
विनम्रता से... 
झुकने की क्रमता से 

पेट और पीठ मिला दो 

पलकों उगा 
सूखापन छाँटो 

जीभ गीली करो 
तलुवे चाटो 

वक़्त संग 
आत्मसम्मान का नमक 
घुल जायेगा 

भूख के घाट पर 
यह पश्चाताप 
धुल जाएगा 

मूक हो जाएँगे प्रश्न 
प्रश्नचिह्नों पर
चिन जाएँगे ताले

जब 
पीठ के नील 
पेट पर 
लिक्खेंगे 
निवाले...

इस संग्रह में 'वुमन्स डे', 'छलावा', 'एय औरतें', 'रेप के मौसम में' या 'लड़कियों' जैसी कविता में स्त्री की स्थिति के खिलाफ पसरा हुआ क्षोभ बहुत साफ दिखाई देता है. लेकिन इन स्थितियों के बाद भी 'परछाईं' जैसी कविता में कवि का आशावाद खुलकर बोलता दिखता है. इसी संग्रह की एक कविता है - महाभोज. इस कविता में लड़कियों के सपने हैं, उनकी महत्त्वाकांक्षाएं हैं, उनकी बेबसी है और इस मर्दवादी समाज के खिलाफ नफरत भी है.

लड़कियाँ उड़ना चाहती हैं, 
लिखना चाहती हैं, 
हथेली पे आसमान, 
देखना चाहती हैं, 
अपनी ऊँचाई से जहान, 
मगर भूल जाती हैं, 
उनके जिस्मों पर लगी हैं, 
कई जोड़ी 
चुंबकीय आँखें, 
जो खींचकर 
वापस, 
उन्हें उनकी 
ज़मीन दिखाती हैं 
मगर 
इन आँखों के 
वज़न उठाये, 
जो चिड़ियाँ 
उड़ने पे आयें, 
तो टूटती है 
गिद्धों की फ़ौज, 
उफ़ यह 
रोज़-रोज़ का महाभोज। 

डॉ. कविता अरोरा की 53 कविताओं का संग्रह 'पैबंद की हँसी' बोधि प्रकाशन से छपकर आया है. इस संग्रह में प्रूफिंग की जितनी चूकें की जा सकती थीं, की गई हैं. संग्रह की दूसरी कविता है 'मिट्टी के दिये' जबकि यह होना चाहिए था 'मिट्टी के दीये'. कवि (भाषा के स्तर पर भी लैंगिक बराबरी हो इसलिए कवि शब्द का ही इस्तेमाल करता हूं, कवयित्री का नहीं) ने संग्रह के शुरू में छह पंक्तियों में संतोष आनंद के लिए आभार प्रकट किया है. इसकी चौथी लाइन का पहला शब्द 'वयक्त' प्रकाशित हुआ, 'व्यक्त' नहीं. ऐसी चूकें पूरे संग्रह में दिखती हैं. इस संग्रह की एक प्यारी कविता है 'अमृता प्रीतम नहीं हूँ मैं'. इस कविता की एक पंक्ति है 'ना चाय के जूठे प्यालों में', लेकिन कविता संग्रह में इस पंक्ति में 'जूठे' शब्द को 'झूठे' छापा गया है. 
संग्रह की इन अशुद्धियों को नजरअंदाज करें तो यह संग्रह कवि के प्रति आशान्वित करता है. इस संग्रह की कविताओं की भाषा में उर्दू शब्दों का जो 'पैबंद' लगा दिखता है, उम्मीद है कि अगले संग्रह में यह पैबंद की तरह नहीं, बल्कि नक्काशी की तरह दिखेंगे. 

कविता संग्रह : पैबंद की हँसी
कवि : डॉ. कविता अरोरा
प्रकाशक : बोधि प्रकाशन
कीमत : 175 रुपए

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poetry collection Paiband Ki Hansi written by Kavita Arora Book Review by anurag anveshi
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Book Review: स्त्री के सपने, संघर्ष और सवालों की परतें खोलता है 'पैबंद की हँसी'
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डॉ. कविता अरोरा की 53 कविताओं का संग्रह 'पैबंद की हँसी'
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डॉ. कविता अरोरा की 53 कविताओं का संग्रह 'पैबंद की हँसी'

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Book Review: स्त्री के सपने, संघर्ष और सवालों की परतें खोलता है 'पैबंद की हँसी'

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