प्रेमचंद के समकालीन रहे हिंदी के कथाकार सुदर्शन की कहानियों की एक बड़ी ताकत है उनका आदर्शवाद. सुदर्शन का जन्म 1896 में उस सियालकोट में हुआ था जो अब पाकिस्तान में है और निधन 1967 में. सुदर्शन का मूल नाम पंडित बद्रीनाथ भट्ट था. उन्होंने कहानियां लिखने की शुरुआत प्रेमचंद की तरह ही उर्दू में किया था. बाद में वे हिंदी कहानियों की ओर मुड़े.

'हार की जीत' सुदर्शन की हिंदी में लिखी पहली कहानी है जो 1920 में  'सरस्वती' पत्रिका में प्रकाशित हुई थी. इस कहानी को पढ़ते हुए आप महसूस करेंगे कि हर इन्सान के भीतर इन्सानियत होती है. वक्त के थपेड़ों से वह भले दब जाती है, लेकिन हल्की सी कोई कौंध सामने आती है और डाकू खड़गसिंह जैसे को भी नेकदिल इन्सान बना जाती है. तो पढ़िए DNA Lit में कथाकार सुदर्शन की यह प्यारी सी कहानी - 

हार की जीत

मां को अपने बेटे और किसान को अपने लहलहाते खेत देखकर जो आनंद आता है, वही आनंद बाबा भारती को अपना घोड़ा देखकर आता था. भगवद्-भजन से जो समय बचता, वह घोड़े को अर्पण हो जाता. वह घोड़ा बड़ा सुंदर था, बड़ा बलवान. उसके जोड़ का घोड़ा सारे इलाके में न था. बाबा भारती उसे 'सुल्तान' कह कर पुकारते, अपने हाथ से खरहरा करते (लोहे की कंघी के जरिए घोड़े के शरीर से धूल-गर्द निकालने का काम), खुद दाना खिलाते और देख-देखकर प्रसन्न होते थे. उन्होंने रुपया, माल, असबाब (सामान, घर-गृहस्थी), जमीन आदि अपना सब-कुछ छोड़ दिया था, यहां तक कि उन्हें नगर के जीवन से भी घृणा थी. अब गांव से बाहर एक छोटे-से मंदिर में रहते और भगवान का भजन करते थे. 'मैं सुलतान के बिना नहीं रह सकूंगा' उन्हें ऐसी भ्रांति-सी (भ्रम जैसा) हो गई थी. वे उसकी चाल पर लट्टू (मोहित) थे. कहते, "ऐसे चलता है जैसे मोर घटा (बादल) को देखकर नाच रहा हो." जब तक संध्या समय सुलतान पर चढ़कर 8-10 मील का चक्कर न लगा लेते, उन्हें चैन न आता.

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खड़गसिंह उस इलाके का प्रसिद्ध डाकू था. लोग उसका नाम सुनकर कांपते थे. होते-होते सुल्तान की कीर्ति उसके कानों तक भी पहुंची. उसका हृदय उसे देखने के लिए अधीर (बेचैन) हो उठा. वह एक दिन दोपहर के समय बाबा भारती के पास पहुंचा और नमस्कार करके बैठ गया. बाबा भारती ने पूछा, "खडगसिंह, क्या हाल है?"

खडगसिंह ने सिर झुकाकर उत्तर दिया, "आपकी दया है."

"कहो, इधर कैसे आ गए?"

"सुलतान की चाह खींच लाई."

"विचित्र जानवर है. देखोगे तो प्रसन्न हो जाओगे."

"मैंने भी बड़ी प्रशंसा सुनी है."

"उसकी चाल तुम्हारा मन मोह लेगी!"

"कहते हैं देखने में भी बहुत सुंदर है."

"क्या कहना! जो उसे एक बार देख लेता है, उसके हृदय पर उसकी छवि अंकित (इमेज बन जाना) हो जाती है."

"बहुत दिनों से अभिलाषा (चाह) थी, आज उपस्थित हो सका हूं."

बाबा भारती और खड़गसिंह अस्तबल में पहुंचे. बाबा ने घोड़ा दिखाया घमंड से, खड़गसिंह ने देखा आश्चर्य से. उसने सैकड़ों घोड़े देखे थे, परंतु ऐसा बांका (जवान) घोड़ा उसकी आंखों से कभी न गुजरा था. सोचने लगा, भाग्य की बात है. ऐसा घोड़ा खड़गसिंह के पास होना चाहिए था. इस साधु को ऐसी चीजों से क्या लाभ? कुछ देर तक आश्चर्य से चुपचाप खड़ा रहा. इसके पश्चात् (बाद) उसके हृदय में हलचल होने लगी. बालकों की सी अधीरता से बोला, "परंतु बाबाजी, इसकी चाल न देखी तो क्या?"

दूसरे के मुख से तारीफ सुनने के लिए उनका हृदय अधीर हो गया. घोड़े को खोलकर बाहर ले गए. घोड़ा वायु-वेग से उड़ने लगा. उसकी चाल देखकर खड़गसिंह के हृदय पर सांप लोट गया (जलन/ईर्ष्या होने लगी). वह डाकू था और जो वस्तु उसे पसंद आ जाए उस पर वह अपना अधिकार समझता था. उसके पास बाहुबल था और आदमी भी. जाते-जाते उसने कहा, "बाबाजी, मैं यह घोड़ा आपके पास न रहने दूंगा."

बाबा भारती के घोड़े सुलतान को छीन ले जाने के लिए डाकू खड़गसिंह ने भिखारी का रूप धरा.
बाबा भारती के घोड़े सुलतान को छीन ले जाने के लिए डाकू खड़गसिंह ने भिखारी का रूप धरा.

बाबा भारती डर गए. अब उन्हें रात को नींद न आती. सारी रात अस्तबल की रखवाली में कटने लगी. प्रति क्षण (हर पल) खड़गसिंह का भय लगा रहता, परंतु कई मास बीत गए और वह न आया. यहां तक कि बाबा भारती कुछ असावधान हो गए और इस भय को स्वप्न के भय की नाईं (तरह) मिथ्या (झूठा) समझने लगे. संध्या का समय था. बाबा भारती सुल्तान की पीठ पर सवार होकर घूमने जा रहे थे. इस समय उनकी आंखों में चमक थी, मुख पर प्रसन्नता. कभी घोड़े के शरीर को देखते, कभी उसके रंग को और मन में फूले न समाते थे. सहसा एक ओर से आवाज आई, "ओ बाबा, इस कंगले की सुनते जाना."

आवाज में करुणा थी. बाबा ने घोड़े को रोक लिया. देखा, एक अपाहिज वृक्ष की छाया में पड़ा कराह रहा है. बोले, "क्यों तुम्हें क्या कष्ट है?"

अपाहिज ने हाथ जोड़कर कहा, "बाबा, मैं दुखियारा हूं. मुझ पर दया करो. रामावाला यहां से तीन मील है, मुझे वहां जाना है. घोड़े पर चढ़ा लो, परमात्मा भला करेगा."

"वहां तुम्हारा कौन है?"

"दुर्गादत्त वैद्य का नाम आपने सुना होगा. मैं उनका सौतेला भाई हूं."

बाबा भारती ने घोड़े से उतरकर अपाहिज को घोड़े पर सवार किया और स्वयं उसकी लगाम पकड़कर धीरे-धीरे चलने लगे. सहसा उन्हें एक झटका-सा लगा और लगाम हाथ से छूट गई. उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा, जब उन्होंने देखा कि अपाहिज घोड़े की पीठ पर तनकर बैठा है और घोड़े को दौड़ाए लिए जा रहा है. उनके मुख से भय, विस्मय (आश्चर्य) और निराशा से मिली हुई चीख निकल गई. वह अपाहिज डाकू खड़गसिंह था. बाबा भारती कुछ देर तक चुप रहे और कुछ समय पश्चात् (बाद) कुछ निश्चय करके पूरे बल से चिल्लाकर बोले, "जरा ठहर जाओ."

खड़गसिंह ने यह आवाज सुनकर घोड़ा रोक लिया और उसकी गरदन पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा, "बाबाजी, यह घोड़ा अब न दूंगा."

"परंतु एक बात सुनते जाओ." खड़गसिंह ठहर गया.

बाबा भारती ने निकट जाकर उसकी ओर ऐसी आंखों से देखा जैसे बकरा कसाई की ओर देखता है और कहा, "यह घोड़ा तुम्हारा हो चुका है. मैं तुमसे इसे वापस करने के लिए न कहूंगा. परंतु खड़गसिंह, केवल एक प्रार्थना करता हूं. इसे अस्वीकार न करना, नहीं तो मेरा दिल टूट जाएगा."

"बाबाजी, आज्ञा कीजिए. मैं आपका दास हूं, केवल घोड़ा न दूंगा."

"अब घोड़े का नाम न लो. मैं तुमसे इस विषय में कुछ न कहूंगा. मेरी प्रार्थना केवल यह है कि इस घटना को किसी के सामने प्रकट न करना."

खड़गसिंह का मुंह आश्चर्य से खुला रह गया. उसका विचार था कि उसे घोड़े को लेकर यहां से भागना पड़ेगा, परंतु बाबा भारती ने स्वयं उसे कहा कि इस घटना को किसी के सामने प्रकट न करना. इससे क्या प्रयोजन (मतलब) सिद्ध (सधना) हो सकता है? खड़गसिंह ने बहुत सोचा, बहुत सिर मारा, परंतु कुछ समझ न सका. हारकर उसने अपनी आंखें बाबा भारती के मुख पर गड़ा दीं और पूछा, "बाबाजी, इसमें आपको क्या डर है?"

सुनकर बाबा भारती ने उत्तर दिया, "लोगों को यदि इस घटना का पता चला तो वे दीन-दुखियों पर विश्वास न करेंगे." यह कहते-कहते उन्होंने सुल्तान की ओर से इस तरह मुंह मोड़ लिया जैसे उनका उससे कभी कोई संबंध ही नहीं रहा हो.

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बाबा भारती चले गए. परंतु उनके शब्द खड़गसिंह के कानों में उसी प्रकार गूंज रहे थे. सोचता था, कैसे ऊंचे विचार हैं, कैसा पवित्र भाव है! उन्हें इस घोड़े से प्रेम था, इसे देखकर उनका मुख फूल की नाईं खिल जाता था. कहते थे, "इसके बिना मैं रह न सकूंगा." इसकी रखवाली में वे कई रात सोए नहीं. भजन-भक्ति न कर रखवाली करते रहे. परंतु आज उनके मुख पर दुख की रेखा तक दिखाई न पड़ती थी. उन्हें केवल यह खयाल था कि कहीं लोग दीन-दुखियों पर विश्वास करना न छोड़ दें. ऐसा मनुष्य, मनुष्य नहीं देवता है.

अपने सुल्तान को निहारते बाबा भारती.
अपने सुल्तान को निहारते बाबा भारती.

रात्रि के अंधकार में खड़गसिंह बाबा भारती के मंदिर पहुंचा. चारों ओर सन्नाटा था. आकाश में तारे टिमटिमा रहे थे. थोड़ी दूर पर गांव के कुत्ते भौंक रहे थे. मंदिर के अंदर कोई शब्द सुनाई न देता था. खड़गसिंह सुल्तान की बाग (लगाम) पकड़े हुए था. वह धीरे-धीरे अस्तबल के फाटक पर पहुंचा. फाटक खुला पड़ा था. किसी समय वहां बाबा भारती स्वयं लाठी लेकर पहरा देते थे, परंतु आज उन्हें किसी चोरी, किसी डाके का भय न था. खड़गसिंह ने आगे बढ़कर सुलतान को उसके स्थान पर बांध दिया और बाहर निकलकर सावधानी से फाटक बंद कर दिया. इस समय उसकी आंखों में नेकी (भलाई) के आंसू थे. रात्रि का तीसरा पहर बीत चुका था. चौथा पहर आरंभ होते ही बाबा भारती ने अपनी कुटिया से बाहर निकल ठंडे जल से स्नान किया. उसके पश्चात्, इस प्रकार जैसे कोई स्वप्न में चल रहा हो, उनके पांव अस्तबल की ओर बढ़े. परंतु फाटक पर पहुंचकर उनको अपनी भूल प्रतीत (अहसास) हुई. साथ ही घोर निराशा ने पांव को मन-मन भर का भारी बना दिया. वे वहीं रुक गए. घोड़े ने अपने स्वामी के पांवों की चाप (आहट) को पहचान लिया और जोर से हिनहिनाया. अब बाबा भारती आश्चर्य और प्रसन्नता से दौड़ते हुए अंदर घुसे और अपने प्यारे घोड़े के गले से लिपटकर इस प्रकार रोने लगे मानो कोई पिता बहुत दिन से बिछड़े हुए पुत्र से मिल रहा हो. बार-बार उसकी पीठ पर हाथ फेरते, बार-बार उसके मुंह पर थपकियां देते. फिर वे संतोष से बोले, "अब कोई दीन-दुखियों से मुंह न मोड़ेगा."

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Horse sage and the bandit daily inspirational stories by DNA story haar ki Jeet by writer sudarshan
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छल से छीनकर साधु का घोड़ा पछताया डाकू, एक रात में हुई घर वापसी
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बाबा भारती के घोड़े को लेकर भागता डाकू खड़गसिंह.
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बाबा भारती के घोड़े को लेकर भागता डाकू खड़गसिंह.

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साधु का घोड़ा चुराकर पछताया डाकू, एक रात में हुई घर वापसी

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