कवि, आलोचक और संपादक शंभु बादल अब 79 बरस के हो चुके हैं. देश-विदेश की साहित्यिक गतिविधियों में शामिल होते रहे. जीवन भर पठन-पाठन से जुड़े रहे. पेशे से प्राध्यापक रहे तो हर दौर के युवाओं के तेवर और विचार समझने का अवसर भी मिला. जाहिर है अनुभव का एक विशाल कोष शंभु बादल के पास है. इसी कोष का प्रतिनिधित्व करती हैं 'शम्भु बादल की चुनी हुई कविताएँ'. इन कविताओं का चयन किया है बलभद्र ने.
शंभु बादल की कविता 'कोल्हा मोची' पढ़ते हुए सुदामा पांडेय 'धूमिल' की कविता 'मोचीराम' की याद आई. सिर्फ कविता में इस्तेमाल किए गए चरित्र की वजह से नहीं, बल्कि कविता के तेवर की वजह से भी. विरोध और विद्रोह धूमिल की कविताओं के प्रतिनिधि स्वर हैं, पर उनकी कविताओं का यह स्वर किसी नतीजे की ओर नहीं ले जाता, जैसा कि अवतार सिंह संधू पाश साफ-साफ कहते हैं 'बीच का कोई रास्ता नहीं होता' या तो इस पार रहना है या उस पार जाना है. तो शंभु बादल की कविता 'कोल्हा मोची' ढोल की धुन से शुरू होकर विरोध के धुन तक ले जाती है और बताती है कि नई पीढ़ी समझौतावादी नहीं है, वह संघर्ष का रास्ता चुनना पसंद करती है. इतना ही नहीं यह बूढ़ी पीढ़ी नई पीढ़ी की आंखों से अपने आसपास पसरी अराजकता को नए सिरे से पहचानने लगती है. तो कविता में यह जो नई दृष्टि का पैदा होने का इशारा है, यह पाठकों को सुख देता है. समाज में हो रहे बदलाव की आहट रोमांचित करती है. शंभु बादल की इस कविता का अंतिम हिस्सा इस तरह है -
कोल्हा मोची
अपने बेटे के सामने
ढोल रखता है
हाथ में कमाची भी थमाता है
किन्तु बेटा
कमाची तोड़ ढोल फोड़ता है
कोल्हा मोची दरकता है
जड़ से हिलता है
भीगता है
और एक नया बीज
यहीं उगता है
कोल्हा मोची देखता है
पहली बार बहुत कुछ एक साथ
बेटे का तना चेहरा
भूख की उफनती नदी
फूटा ढोल
उपेक्षा का फन्दा
मुखिया की हेकड़ी
विधायक का दारू लिये हाथ
शंभु बादल की इस कविता में 'मुखिया की हेकड़ी' और 'विधायक का दारू लिये हाथ' की पहचान गांव के लोग कर रहे हैं. झारखंड के ग्रामीण इलाकों में आदिवासियों के बीच मुखिया और विधायकों का रौब झाड़ना बेहद आम रहा है. पर यह कविता इशारा करती है कि इस रौब के खिलाफ अब सिर उठने लगा है. जुल्म सहने को नियति की तरह स्वीकार कर चुके लोग फिर से अपनी और अपने ऊपर किए जा रहे जुल्म की पहचान करने लगे हैं.
हिंदी के चर्चित शायर दुष्यंत कुमार की एक गजल के कुछ शेर हैं -
तुम्हारे पाँवों के नीचे कोई ज़मीन नहीं,
कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यक़ीन नहीं।
मैं बेपनाह अँधेरों को सुबह कैसे कहूँ,
मैं इन नज़ारों का अंधा तमाशबीन नहीं।
ज़रा-सा तौर-तरीक़ों में हेर-फेर करो,
तुम्हारे हाथ में कॉलर हो, आस्तीन नहीं।
दुष्यंत जिस तरह से तौर-तरीकों में हेरफेर करने का सुझाव दे रहे हैं, वैसा ही सवाल उठाती दिखती है शंभु बादल की कविता 'गुजरा'. यह कविता उस स्वर का एक्स्टेंशन दिखती है जो 'कोल्हा मोची' में सुनाई पड़ता है. 'कोल्हा मोची' में कवि दिकुओं की पहचान करने को कहता है, लेकिन 'गुजरा' कविता में पहुंच कर कवि चाहता है कि हम खुद की पहचान करें, अपनी खूबियों की पहचान करें, अपने महत्त्व की पहचान करें और फिर अपने व्यवहार में परिवर्तन कर अपने लिए नए मानदंड तैयार करें. 'गुजरा' कविता का अंतिम हिस्सा देखें -
...गुजरा!
जब कभी तुम पर
गाँव के देवता गँवात आते हैं
लोगों के अच्छत देखते हो और
उनके खैर-कुशल कहते हो
गाँव का बन्धनू करते हो
ताकि कोई बीमारी न आये गाँव में
पशुओं को बाघ न पकड़े वन में
किन्तु, तुम्हारे ही जीवन में
बीमारी कहाँ से आती है?
बाघ कैसे नोचता है तुम्हें
अपने ही घर-गाँव में!?
और तुम
भूख के भँवर में
कैसे फँस जाते हो?
कैसे धँसती है तुम्हारी कोड़ी
तुम्हारे ही सीने में!
तुम तो खेतों में
अन्न-बीज बोते हो
तुम्हारे दरवाजे पर
काँटों की झाड़ियाँ
कैसे उग आती हैं?
तुम्हारे ही तलवों को
लहूलुहान क्यों करते हैं ये काँटे?
झक्काझोर झूमर
खेलना तो ठीक है पर,
जीवन का रूप
कहाँ-कहाँ क्या है?
हँड़िया और दारू से
कीट कैसे घुसते हैं?
इन पर भी सोचना है
फिर सोचेगा कौन?
मेहमानों के सामने
कोई जब तुम्हें नचाये
तुम्हारी लोक-कला की प्रशंसा करें
तुम्हें हकीकत नहीं समझनी चाहिए क्या?
तुम प्रदर्शन की वस्तु हो?
तुम्हें तो मुखौटे उतारने और
चाँटे जड़ने की कला भी आनी चाहिए
क्योंकि थाप और चाँटे का सन्तुलन
तुम्हारे लिए
सही जगह
सुनिश्चित कर सकता है
शंभु बादल की लंबी कविता पुस्तक है 'पैदल चलने वाले पूछते हैं'. यह कविता कुल 12 खंडों में है. इस चुनी हुई कविताओं के संग्रह में भी इस कविता के कुछ अंश हैं. इस पूरी कविता में राजनीति और समाज के विद्रूप उजागर होते हैं. भेड़चाल में शामिल जनता और भेड़ों का खाल ओढ़े राजनेताओं के धुंधले चेहरे इस कविता में दिखते हैं. लेकिन इसके साथ ही कविता का तेवर बताता है कि स्थितियां बदल रही है. समाज के लोग अपनी और अपनी स्थिति की पहचान कर रहे हैं. देखें 'पैदल चलने वाले पूछते हैं' का एक अंश -
पालतू तोते
गा रहे हैं :
सारे जहाँ से अच्छा
यह पिंजरा हमारा
दूसरे ग्रहों पे जाते
हम बैठ के इठलाते
शानों से हम भरे हैं
दुनिया में हम जमे हैं
तप-साधना की खातिर
त्यागी बने भिखारी
शव-घर बना-बना के
सन्तोष कर रहे हैं
चन्दन लगा-लगा के
मटकी चला रहे हैं
जन-ताँत है हमारा
चीखा करेंगे हम सब
सिरिंज है यह किसका
हमें क्या पता है इसका
विष डालता है
कोई चिन्ता नहीं है
इसकी मस्ती में हैं हम
जिन्दा बकरी बने शर्मिन्दा
हमें देखते हुए ये
गधे रहे हैं मुसका
सारे जहाँ से अच्छा
ये पिंजरा हमारा
शंभु बादल के इस कविता संग्रह में इन कविताओं के अलावा कई कविताएं बेहद पठनीय हैं. बाज और चिड़िया, चिड़िया, चहकती चिड़िया और बहेलिया - इन कविताओं को देखकर लगता है जैसे एक सीरीज की कविताएं हों.
शंभु बादल युद्ध के खिलाफ हैं. उन्हें पता है कि युद्ध किसी सार्थक नतीजे की ओर नहीं ले जाता. इसका अंत सिर्फ और सिर्फ विनाश है. फिलहाल, देश का जो वातावरण है, जिस तरह से लोगों को जातियों और धर्मों में बांटने का अघोषित मुहिम चल रहा है, ऐसे क्रूर समय में युद्ध को लेकर लिखी शंभु बादल की कविता बेहद प्रासंगिक हो जाती है. वे पूछते हैं 'युद्ध के माने बताओ'. अपनी इस कविता में हिरोशिमा, नागासाकी, बगदाद, बसरा और अफगानिस्तान की चर्चा कर हमें उनका हश्र याद दिलाना चाहते हैं. वे याद दिलाना चाहते हैं कि युद्ध रचता नहीं है इसलिए युद्ध की कामना बेमानी है. इस युद्ध का विरोध होना चाहिए.
शंभु बादल की इन 72 कविताओं को पढ़ना सुखद है. इनसे देखने और समझने का रास्ता सूझता है. यह संग्रह 'विकल्प प्रकाशन, दिल्ली' से छपकर आया है. पेज नंबर की जगह के यूजर फ्रेंडली न होने की शिकायत नजरअंदाज कर दी जाए तो प्रोडक्शन बढ़िया है.
संग्रह : शंभु बादल की चुनी हुई कविताएं
कवि : शंभुबादल
प्रकाशक : विकल्प प्रकाशन
चयन : बलभद्र
मूल्य : 300 रुपए मात्र
(Disclaimer: हमारा लेख केवल जानकारी प्रदान करने के लिए है. अधिक जानकारी के लिए हमेशा किसी विशेषज्ञ से परामर्श करें.)
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Book Review: शंभु बादल की कविताओं में मुखर है झारखंडी आवाज