राजस्थान के अजमेर के नगरा की रहनेवाली हैं विनीता बाडमेरा. कविताओं से लेखन शुरू करने वाली विनीता ने लघुकथा से होते हुए कहानी तक का सफर पूरा किया है. उनके कहानी संग्रह का नाम है 'एक बार, आखिरी बार'. 
विनीता बाडमेरा की कहानियों में मध्यवर्गीय चरित्र और परिवेश सजीव हो उठता है. समीक्षकीय दृष्टि से परिपूर्ण विनीता का कथालेखन अपनी डिटेलिंग के कारण हर बारीक पहलुओं से आपको रू-ब-रू कराता है. एक दुकानदार का अंतर्द्वंद्व, उसका संघर्ष और इस संघर्ष के बूते कामयाब होने के उसके मंत्र से परिचित कराती कहानी है 'शटर के आर-पार'.

'शटर के आर-पार'

"मेहनत की लकीरें जिनके हाथों में हैं वे अपना भाग्य खुद बनाते हैं." बचपन से मैं यह बात अम्मा के मुंह से सुनता आया हूं. लेकिन फिर भी कभी-कभी मुझे यह भी लगता कि जितनी मैं मेहनत  करता हूं क्या उसका पूरा फल मुझे मिल पाता है और इसी उधेड़बुन में मैं कई बार खुद से खफा हो जाता हूं. मेरे मन में हजारों सवाल होते हैं, जिनके जवाब मुझे ढूंढे़ से भी नहीं मिलते और फिर बस चुप्पी को थाम मैं खुद के भीतर ही भीतर यात्रा करता हूं, पर यह यात्रा भी कहीं खत्म नहीं होती दिखती, तो मेरा मन उदासी से घिर जाता है. ऐसा आजकल महीने में तीन-चार बार होता है. पत्नी पूछती है, "क्या हुआ है?" मेरे पास हमेशा ही उसके इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं होता. मैं कुछ क्षण एकटक उसे देख बगलें झांकने लगता हूं. शायद कोई उत्तर कहीं से मुझे मिल जाए तो मेरे भी तपते मन को शीतलता की हवा लग जाए. पर ऐसा नहीं होता.
कुछ घटनाएं जो हमारे नियंत्रण में कभी नहीं होती हैं, वो घट कर ही रहती हैं. चापलूसी न करने और सिद्धांतों पर अडिग रहने की आदत के कारण मेरी बढ़िया-सी नौकरी से मुझे एक झटके में बेदखल कर दिया गया और फिर मैं अच्छा भला निश्चित समय-सारणी में बंधा नौकरीपेशा आदमी अपने पिता की वर्षों से बंद कपड़ों की दुकान को एक बार फिर खोल दुकानदार बन गया. परिवर्तन सृष्टि का नियम है और आखिर मैंने भी शनै:-शनै: इस बदलाव को मान लिया.
आज रविवार है, जहां सब नौकरीपेशा लोग आराम से अभी दस बजे तक भी अखबार की सुर्खियों के साथ चाय की चुस्की ले रहे होंगे, वहीं मेरे हाथ मेरी दुकान का शटर उठा रहे हैं और मन कहां-कहां नहीं उठ रहा है, किस को बताऊं.
पूरे छह दिन तो सुबह दस से रात नौ दुकान में ही बज जाते हैं इसलिए पत्नी शिखा को सैर-सपाटे पर नहीं ले जा पाता. पिछले एक महीने से शिखा फिल्म दिखाने की रट लगाए हुए थी और मैं किसी न किसी बहाने से उसे टालता जा रहा था. मेरे टालने का कारण सिर्फ समय का अभाव ही नहीं था, पैसा भी था. हॉल में फिल्म देखने के लिए आज कल दो जन के लिए भी जेब में कम से डेढ़-दो हजार रुपए का होना मामूली बात है और इस गर्मी में जहां सूरज आग बरसा रहा है, जहां इंद्र देवता नाराज हुए बैठे हैं, जहां चिपचिपाता पसीना शर्ट को बुरी तरह भिगो देता और खुद के पास खड़े होने में भी मुंह बनने लगता है, उन हालात में खरीदार का आना ईश्वर का सबसे बड़ा उपहार है.
रविवार चूंकि छुट्टी का दिन होता है तो नौकरीपेशा लोग बाजार अधिक निकलते हैं. इसलिए मैं रविवार को भी दुकान पर आने लगा हूं. जानता हूं कोरोना महामारी ने सबकी कमर तोड़ दी है. लोग आवश्यक सामान ही ले पाते हैं लेकिन दूसरी तरफ ऑनलाइन बिजनेस भी तो बढ़ा है. इसका अर्थ कपड़े और दसियों सामान खरीदे तो जा ही रहे हैं. मुझे यह भी पता है कि जो नियमित ग्राहक हैं वे आज भी अपनी चुनिंदा दुकानों में से बाजार जाकर मनपसंद सामान खरीदते हैं. 
पिछले रविवार को औसत से अधिक सेल हुई तो पल्लव की ट्यूशन फीस भर सका. आज यदि पिछले रविवार के समान ही कुछ चमत्कार हो जाए तो शिखा को अगले रविवार को पूरे दिन की छुट्टी रख या फिर आधे दिन की छुट्टी रखकर फिल्म दिखा सकता हूं. ऐसा ही कुछ सोच कर न चाहते हुए भी मैं दुकान चला आया.
कितने छोटे-छोटे सुख होते हैं हम मध्यमवर्गीय परिवार के. हमारी ख्वाहिशें बहुत लंबी-चौड़ी नहीं होतीं, बस थोड़ा है थोड़े की जरूरत से वे पूरी हो जाती हैं.
शटर को ऊपर कर मैंने अपने दोनों हाथ जोड़े और फिर मन ही मन धन की देवी लक्ष्मी जी से प्रार्थना की और झटपट एक हाथ में झाड़ू ले सफाई में जुट गया.
अपने हाथ से सफाई करने का भी अलग ही आनंद है फिर दो पैसे जो बचते हैं तो क्या गलत है.  दोस्त लोग जो नौकरी कर रहे हैं, साले हंसते हैं, "खुद ही झाड़ू लगा रहे हो. खुद ही दुकान के बाहर सामान टांग रहे हो." अब उनसे क्या बताऊं और क्या छुपाऊं. 
कहने को कह देता हूं कि हां मेरी दुकान है. अच्छा लगता है मुझे यह सब करना. पर असलियत खुद से बेहतर कौन जानता है और वे भी आखिर लंगोटिया यार रहे हैं. सब समझकर मुस्कुरा पड़ते हैं. मैं उनकी उस मुस्कुराहट को भी व्यंग्य समझ लेता हूं और मेरी भंवें तन जाती हैं.
"हां भाई, फिलहाल मेरी हैसियत नहीं है काम पर किसी को रखने की." वे मेरा कंधा थपथपाते हुए आहिस्ता से हथेलियां दबाते हैं और कहते हैं यह दिन हमेशा नहीं रहेंगे. 

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उनकी "यह दिन हमेशा नहीं रहेंगे." वाली बात मुझे संबल प्रदान करती है और मेरी दम तोड़ती हिम्मत में जान आ जाती, हौसला आसमां में उड़ान भरने लगता, मेरे सामने मुकेश अंबानी का चेहरा आकर खड़ा हो जाता.
"दिन बदलेंगे मेरे भी" यह सोच मुझे जल्दी-जल्दी खूटियों पर कपड़े टांगने का आदेश कुछ इस तरह देती, जैसे बहुत जल्द ही सब कुछ बदल जाना है.
काउंटर को ठीक जगह लगा, सारे सामान व्यवस्थित कर मैं अपने दुकान की दीवार पर टंगी माता लक्ष्मी की तस्वीर के सामने दो अगरबत्ती माचिस से जलाता हूं और तस्वीर के इर्दगिर्द घुमाता हुआ मन ही मन कोई मंत्र बुदबुदाता हूं. यह मंत्र मुझे मंदिर के पुजारी जी ने बताया और समझाया कि प्रतिदिन दुकान में साफ-सफाई करने के उपरांत मां लक्ष्मी की आराधना इस मंत्र से करूंगा तो मेरा गल्ला हमेशा भरा रहेगा.
हालांकि मैं इस मंत्र का अर्थ जरा भी नहीं जानता और न ही जानने का इच्छुक हूं और न पंडित जी से तर्क-वितर्क करने की कोई दिली इच्छा है. तर्क-वितर्क करना तो मैंने नौकरी के बाद छोड़ दिया. अब तो बस किसी तरह मेरा गल्ला भरा रहे या उतनी आमदनी जिसे देख मेरा खालीपन भर जाए तो मान लेता हूं फिर न मानने का कोई खास औचित्य भी नहीं दिखता.
मैं अगरबत्ती को स्टैंड पर लगा देता हूं और एक बार फिर लक्ष्मी मां से अपने ग्राहकों के आने की प्रार्थना के लिए हाथ जोड़ अपनी सीट पर बैठ जाता हूं.
कोई वक्त था जब मैं समाचार पत्र को सबसे पहले सुबह ही सुबह पढ़ने के लिए घरवालों से नाराज हो जाता था, आजकल वही समाचार पत्र दुकान पर ले आता हूं.
अब आराम से समाचार पत्र की हर पंक्ति पढ़ने लगता हूं. मुझे लगता है मेरे पास खूब समय है इसलिए हर खबर पर मेरी पैनी नजर होनी चाहिए. कुछ भी ऐसा जो जिले से, देश से या विदेश से हो मुझे इसकी खबर तो आखिर रखनी ही होगी.
खेल के बारे में मैं पहले भी अपना निजी दृष्टिकोण रखता था, आज भी रखता हूं इसलिए बड़ा तल्लीन होकर समाचार पत्र को उलटता-पलटता हूं. इसके दो कारण हैं-
पहला तो यह कि लोग मुझे फालतू नहीं समझें और कहीं यह न कहने लगें कि नौकरी छोड़ दुकानदारी करने से मेरा सामान्य ज्ञान बिल्कुल शून्य है और दूसरी सबसे बड़ी और अहम बात ग्राहक जब तक नहीं आते ये ही तो मेरा समय व्यतीत करने का साधन है.
खैर, आज रविवार का रसरंग भी मैं दुकान पर ले आया. मेरी दृष्टि मनोज मुंतशिर के लेख पर है
तभी शिखा का फोन आ गया,
"खाने में आलू टमाटर बना लूं?"
यह पढ़ी-लिखी औरत भी ऐसे जतलाएगी जैसे रोज मेरी ही पसंद का खाना बनाती हो जब कि तय पहले से ही कर लिया था फिर भी पूछेगी ही...
मैं "हां" कह फोन रख देता हूं और फिर अपना सिर अखबार में गड़ा देता हूं. कुर्सी पर बैठे होने पर भी और मेरी चौकस निगाहें समाचार पत्र पर तो टिकी ही थीं, बाहर भी टकटकी लगाए हुए थीं.
मैं हर आने-जाने वाले जो जरा भी दुकान की ओर देखते हैं उनकी तरफ गहरे तक गड़ा देता हूं जबकि कई बार मुझे लगता अखबार की खबरें मेरे सिर के ऊपर से उड़ती हुई जा रही हैं.
आखिर मेरे मन की आंखें थोड़ी देर बाद अखबार देखकर थक जाती हैं और मैं मोबाइल को स्क्रॉल करने लगता हूं फिर ये आंखें पड़ोस की दुकान की तरफ खुद को घुमा देती हैं और मैं उस दुकान में घुस रहे ग्राहक की गिनती करने लगता हूं.
दिन के एक बज रहे हैं और मेरी दुकान में अभी तक कोई खरीदार नहीं आया और जो मेरा हिसाब ठीक है, तो पड़ोसी के कपड़े की दुकान में कम से कम पांच आ गए. मैं तो यहां तक कि बाहर निकलते हुए उनके हाथों में सामान की पॉलिथीन को भी खूब अच्छी तरह परखता हूं, जो यदि छोटी पोलीथीन है तो सस्ता और कम सामान गया होगा और खरीदार के हाथ में बड़ी पॉलिथीन है तो बड़ा और मंहगा सामान. मेरा मन ईर्ष्या का बीज कहीं गहरे बोने लगता है और मैं खुद पर विस्मित होता हूं. 


"दो काली वाली ब्रा पैक कर दीजिए." मैं छोटी पॉलीथीन में दो काली ब्रा जो उसके पति को पंसद है पैक करते हुए मन ही मन उसके पति के रंग-रूप की कल्पना करने लगता हूं.
"एक सौ सत्तर की एक, मतलब तीन सौ चालीस. वह पर्स में से पांच सौ का नोट निकाल कर देती है. मैं छुट्टे रुपए के लिए ग्राहक को दुकान में ही छोड़ पड़ोस में जाता हूं. पड़ोसी मुझे देख आंखें चढ़ा लेता है.


मुझे मन ही मन कोफ्त होने लगती है कि कैसे मैं दूसरों की दुकान पर नजरें गड़ाए बैठा नजर लगा रहा हूं. तभी पड़ोसी दुकानदार बाहर आता है किसी प्लास्टिक की बोतल से पानी हाथ में ले घुमा- घुमा कर दुकान के बाहर छिड़कता है और मेरी तरफ खा जाने वाली निगाहों से देखता है. मुझे ऐसा प्रतीत होता है जैसे वह मन ही मन इसके लिए मुझे बद्दुआ दे रहा है और इसलिए खरीदार मेरी दुकान के बाहर से चला जा रहा है.
मैं खुद की सोच से परेशान होता हूं. तभी मेरी उदास आंखें खुश हो जाती हैं. सामने से दो महिलाएं मेरी दुकान की तरफ देखती हुई आपस में बतियाती हैं, मैं अम्मा की बात पर विचार करने लगता हूं और सोचता हूं मेरी मेहनत रंग ला रही है. मैं फिर उम्मीद भरी नजरों से दोनों महिलाओं को देखता हूं, वे भीतर आती हैं,
"ब्रा चाहिए."
मेरी निगाहें फिर उनके वक्षों पर आकर टिक जाती हैं. पहले-पहल मुझे असहज लगता था, लेकिन अब नहीं. मैं उस महिला जिसने मुझसे ब्रा के लिए कहा नंबर पूछता हूं,
"छत्तीस?"
वह ना मैं सिर हिला, अड़तीस 'बी' कप साइज बोल मुझे तौलने लगती है और मैं उसके वक्षों की माप बराबर देखने लग जाता हूं.
एक डिब्बे से ब्रा खोल कर उसके सामने रख देता हूं. वह हाथ से ब्रा का इलास्टिक खिंचती है और फिर मेरी तरफ मुस्कुरा कर कहती है सफेद के अलावा कोई और रंग.
फिर दूसरा डिब्बा खोलता हूं. बहुत से रंग उसके आगे करता हूं. वह दो नए रंग चुनती है फिर अपने साथ वाली सहेली से हंस कर कहती हैं, "इन्हें तो बस काला रंग ही पसंद है." दूसरी महिला भी हंसती है. दूसरी महिला के हंसते ही उसके गाल के गड्ढे मेरा ध्यान आकर्षित करते हैं और मैं उसके गड्ढे में कहीं दूर धंसने लगता हूं. तभी पहली महिला मुझे जैसे बाहर निकाल आदेश देती है.
"दो काली वाली ब्रा पैक कर दीजिए." मैं छोटी पॉलीथीन में दो काली ब्रा जो उसके पति को पंसद है पैक करते हुए मन ही मन उसके पति के रंग-रूप की कल्पना करने लगता हूं.
"एक सौ सत्तर की एक, मतलब तीन सौ चालीस. वह पर्स में से पांच सौ का नोट निकाल कर देती है. मैं छुट्टे रुपए के लिए ग्राहक को दुकान में ही छोड़ पड़ोस में जाता हूं. पड़ोसी मुझे देख आंखें चढ़ा लेता है. फिर भी किसी तरह पांच सौ छुट्टे दे वह अपने आप को व्यस्त दिखाने का प्रयास करता है. मैं भी जल्दी से उसकी दुकान से बाहर आ पैकेट हाथों में थमा किसी और सामान की जरूरत के लिए पूछता हूं. वे दोनों ना में सिर हिलाती हैं. मेरा मन भारी हो जाता है. मैं चेहरे पर शिकन नहीं आने देता हूं. फिर भी एक आवाज आहिस्ता से आती है अभी तक सिर्फ तीन सौ चालीस.

"कोई बात नहीं शुरुआत तो हो गई. "मैं मन ही मन खुद के कंधे पर तसल्ली का हाथ रखता हूं.
शिखा पल्लव के साथ टिफिन भेजती है. मैं दुकान में रखे पानी की बोतल से हाथ धो जल्दी से टिफिन खोलता हूं. आलू टमाटर की सब्जी की खुशबू मेरे नथुनों में कहीं गहरे तक प्रवेश करती है, मैं रोटी का कौर तोड़ता हूं तभी मुझे लगता है "भैया" कह किसी ने आवाज दी. मैं झट से रोटी को ढक सब्जी पर भी ढक्कन लगा फुर्ती से उठता हूं और खरीदार को मुस्कुरा कर देखता हूं. तभी मुझे याद आता है यह खरीदार तो कल भी आया था. वह भी मुझे नमस्ते कह आहिस्ता से अपने थैले में से एक साड़ी निकालता है और उसे बदलने की गुजारिश करता है. मेरा सारा जोश ठंडा हो जाता है-
"कल पत्नी के जन्मदिन पर उपहार ले गया था और मैडम को रंग पसंद नहीं आया. आप जरा बदल दें. वरना घर में जबरन तनाव पसर जाएगा."
"जब पत्नी की आदत से परिचित हैं तो ऐसा उपहार देना ही क्यों और फिर देना ही है तो पसंद का देने के लिए साथ ही ले आते. पर नहीं सरप्राइज का भूत जो सवार." मेरे होंठ बुदबुदाते हैं.
लेकिन बाहर से सामान्य दिखने की कोशिश करता हुआ व्यर्थ ही चेहरे पर मुस्कान ला उसको दस साड़ियां और दिखाता हूं परंतु वह कहीं से भी संतुष्ट होता नहीं दिखता.
मेरा धैर्य जवाब देता उससे पहले मुझे अपने बड़े भाई की हिदायत याद आ गई और मैं बड़े अदब से उसको एक नया कलर दिखा कर बोला,
"यह ले जाइए और यह भी पसंद न हो तो शाम को पत्नी को साथ ही ले आइएगा. मैं फिर बदल दूंगा."
ग्राहक ही-ही कर रहा है और मेरा मन उसको भीतर ही भीतर अनगिनत बार अपशब्द कहता जा रहा है यह अपशब्द वह इतना धीरे कहता कि मेरे अलावा कोई नहीं सुने.
खरीदार पॉलिथीन लेकर चला जाता और मैं फैली साड़ियों पर उड़ती निगाह डाल टिफिन की तरफ देखता हूं. मेरी भूख पूरे दुकान से घूमती हुई गायब हो जाती. मैं कुछ साड़ियां समेट कर निश्चित जगह पर उन्हें रखता हूं और खरीदार के आने पर अतिरिक्त रोशनी के लिए जलाई लाइट बंद कर पानी पीता हूं. तभी पड़ोस का दुकानदार मेरे पास आकर बैठता है और बाकी साड़ियां फैली देख वह समझता है खूब सामान बिका होगा. मैं मौन रहता हूं, वह मेरे चेहरे के उतरते-चढ़ते भाव देख मन ही मन मुस्कुराता है और हंसते हुए कहता है, "लेना न देना और फैला कर चले जाते है." वह चाहता है मैं कुछ कहूं. पर मैं कोई प्रतिक्रिया नहीं देता. वह खिसिया कर कुर्सी से उठ जाता है. मैं साड़ियां समेट कर ठीक स्थान पर रखता हूं.


 आदमी अकेले रो सकता है लेकिन हंसने के लिए किसी का साथ होना लाजिमी है. फिर यदि उम्र का वह दौर होता जब किसी के साथ होने की बात से ही आपके चेहरे पर हंसी आ जाती वह बात दूसरी थी. 


 "परीक्षा सिर्फ स्कूलों में तो नहीं होती, हर जगह होती है" मैं उसके जाने के बाद यह कहता हुआ चाय का घूंट लेने लगता हूं. टिफिन मुझे चिढ़ाता है लेकिन मैं उसके चिढ़ाने से नहीं चिढ़ता.  दुकानदार खाने की जगह चाय से दोस्ती कर लेते हैं इसलिए मैं भी चाय का डिस्पोजल कप बाहर रखता हूं. मुझे याद आते हैं ऑफिस के वे दिन जब हम दोस्त लंच करने के बाद थोड़ा बाहर निकल कर सिगरेट जलाते थे और बॉस की बुराई करते थे. फिर एक-दूसरे के हाथ पर ताली मारकर खूब जोर-जोर से हंसते थे.
मैं तो साथ हंसना कब से भूल गया. न जाने पिछली बार कब हंसा और सिगरेट तो कब की छूट गई. यूं तो आदत मैंने उसे कभी बनाया भी नहीं था. लेकिन कभी-कभार मजे-मजे में सबके साथ मुंह से धुआं छोड़ना मुझे अच्छा लगता था. अब सिगरेट के पैकेट का मूल्य कितना बढ़ गया मुझे यह तक भी नहीं पता.
 आदमी किस तरह से खुद को बदलता है और बदलता जाता यह कोई मुझसे पूछे. 
तभी मोबाइल की घंटी बजती है, मैं फोन उठाता हूं. दूसरी तरफ मेरे ऑफिस की रुचि थी. यह अलग बात है कि मेरे नौकरी छोड़ने के बावजूद हम आज भी दोस्त हैं और उस दोस्ती की खातिर वह और मैं पुराने दिन याद करते हैं. वह जब दुकान पर आती है तो मैं आज भी उसकी ड्रेसिंग देख कर हैरान होता हूं वह मुस्कुराती है और हम खूब हंसते हैं. कई बार मुझे प्रतीत होता वह जैसे मुझे हंसाने ही आती हो. वह साथ चाय पीती है, सामान खरीदती है मेरी दुकान से, पर भूल से भी अंत:वस्त्र नहीं खरीदती. मैं उसे इसके लिए नहीं कहता. मैं समझता हूं कुछ झिझक, कुछ संकोच हमें नवीनता देते हैं. कभी-कभी इतना खुलकर भी बंद होना रिश्तों के लिए बेहद जरूरी है.

वह आज भी आएगी ऐसा उसने कहा. मेरा मन खूब खुश हो गया. मैंने बाल ठीक किए, शर्ट इन की और सीट पर बैठ गया. वह पांच बजे आने को कह रही थी और मैं चार बजे से उसके इंतजार में बैठा था. मेरे होंठ खिलखिलाने को जैसे मचलने लगे. 
 आदमी अकेले रो सकता है लेकिन हंसने के लिए किसी का साथ होना लाजिमी है. फिर यदि उम्र का वह दौर होता जब किसी के साथ होने की बात से ही आपके चेहरे पर हंसी आ जाती वह बात दूसरी थी. 
फिर भी रुचि के आने की कल्पना से मैं रोमांचित हो उठा. तब तक फिर कोई खरीदार आता दिखा जिसने बहुत जल्दी दो साड़ी ली और  सत्रह सौ रुपए मुझे दिए मैंने गल्ले में पैसे रखे और मन ही मन मैं रुचि के बारे में सोचने लगा. उसका खयाल ही मेरे नसीब खोल रहा हो जैसे. यदि रोज वह मेरी दुकान आ जाए तो पूरा गल्ला...
कल्पना के पांव नहीं होते, पंख होते हैं इसलिए उड़ने की कोई सीमा नहीं होती. यह सोचता मैं मोबाइल स्क्रॉल करने लगता हूं. 
मोबाइल में समय देखता हूं तो पांच बजने को हैं. तभी मोबाइल पर रुचि का एक संदेश चमकता हुआ दिखता है.

"देखो ना, रविवार के दिन भी बॉस ने जरूरी मीटिंग रख ली जो अभी तक खत्म नहीं हुई. मुझे कई जरूरी सामान भी लेने थे. पर अब शायद आज तो नहीं आ पाऊंगी खैर..."
 मैं कोई रिप्लाई नहीं कर पाया बस बहुत देर तक फोन को पकड़े रहा. मुझे लगा जैसे वह फोन नहीं रुचि है. पर रुचि की इसमें कोई रुचि नहीं थी और वह नहीं आई. 
 मेरे चेहरे की मुस्कान उतर कर दुकान में कहीं गिर गई, मैं एक बार फिर सामान व्यवस्थित करने लगा. शायद सामान के साथ खोई मुस्कान भी मिल जाए. पर वह कहीं गहरे सामानों के साथ दब गई और मेरा मन हिसाब-किताब में उलझा सोचने लगा रुचि कम से कम दो ढाई हजार का सामान तो खरीद ही लेती. एक बार फिर वह बॉस की बुराई करती, मैं हां में हां मिलाता और फिर हम खूब जोर से हंसते. मेरे हंसने की इच्छा पर जैसे तुषारापात हो गया.

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बाहर भिखारी खड़ा एक रुपया मांग रहा है, मैं गुस्से में लाल-पीला होने ही वाला था कि मां की बात फिर जेहन में दस्तक देने लगी. "देने से बढ़ता है" मैंने गल्ले से पांच का सिक्का निकाल उसे दे दिया. 
"सेठ तेरा गल्ला भरा रहे." मेरी तरफ देख वह बोला और आगे बढ़ गया. 
 मेरी नजर गल्ले में पड़े नोटों पर गई जो संख्या में बहुत कम थे. सुबह उत्साह की आग जो मेरे भीतर जल रही थी वह बुझ-सी गई.

फिर भी मैंने खुद को मायूस नहीं होने दिया घड़ी में साढ़े छह बज रहे थे, मैंने शिखा को फोन लगाया और अपने घर जल्दी आने की सूचना देते हुए कहा "न हो तो हम पास वाले हनुमान मंदिर तक चल पड़ेंगे आज. मन बहल जाएगा और लौटते हुए बाहर ही कुछ खा-पी लेंगे. पल्लव भी खुश हो जाएगा."
वह खूब हंसी. महीनों बाद बाहर जा रहे हैं और वह भी मंदिर. मुझे उसकी हंसी में सहसा रुचि की हंसी सुनाई देने लगी. मैं आज चाहता था वह फोन पर हंसती रहे. कितने दिनों बाद उसकी हंसी सुनी. तब तक सामने वाली दुकान पर मेरी चोर निगाह पड़ी. 

सूरज डूबने को था और आसमान में अंधेरा पसर रहा था. यह सांझ की दीया बत्ती का समय था. सामने वाला व्यापारी दुकान में खूब धूपबत्ती जला कर भगवान जी के सामने और फिर गल्ले में घुमा रहा था. मैं कहीं उससे पीछे न रह जाऊं. लक्ष्मी जी की सारी कृपा इसकी दुकान पर बरस जाएगी तो मेरा गल्ला…. मेरे चेहरे पर फिर तनाव खिंचने लगा और मैं खुद को संयत कर फोन रख अगरबत्ती के पैकेट में से अगरबत्ती निकाल जलाता हूं और लक्ष्मी जी के सामने हाथ जोड़ खड़ा हो जाता हूं.
तभी कोई खरीदार मेरी दुकान में प्रवेश करता है. गुम हुई हंसी अचानक कहीं से निकल कर मेरे चेहरे पर अपनी जगह बना लेती है. मुझे पता है बिना मुस्कुराए एक दुकानदार अपना सामान कभी नहीं बेच पाता, मैं मन ही मन ईश्वर का धन्यवाद देता हूं.
महिला खरीदार एक साथ कई सामान खरीदती है, खुद के लिए, घर के लिए और बच्चों के लिए. 
मैं फटाफट सामान पैक कर थैलियों में रखने लगता हूं. 


वह कई सामान खरीदती है फिर अचानक थोड़ी सी झेंपती हुई ब्रा दिखाने की मांग करती है और मुझे दुकानदार संबोधित कर मुस्कुराती है. मैं कुछ पल के लिए असहज हो जाता हूं और फिर दुकानदार बन उसे उसका सामान देने लगता हूं.


फोन की घंटी बजती है, मैं जानता हूं शिखा का फोन होगा. मैं एक बार उठा उसे थोड़ी देर में बात करने को कह फिर फोन काट देता हूं.
वह समझ जाती है और फिर हंसती है. मुझे अभी उसकी हंसी सुनने का वक्त नहीं है. मैं बिल काट महिला को देता हूं और कुल तीन हजार जिसमें सौ-सौ के दस नोट हैं और चार नोट पांच सौ के, गल्ले में रखता हूं. अब मेरा थोड़ा खाली गल्ला भरा-भरा लगता है. मेरा शरीर फैले कपड़े देख थकने लगता है लेकिन मेरा मन भरे गल्ले को देख जोश से भर जाता है और मुझमें नई ऊर्जा का संचार होता है.

तभी दूर से रुचि आती हुई दिखती है. मेरे चेहरे पर फिर बड़ी-सी मुस्कान आ जाती है. मैं मन ही मन खुद से कहता हूं, "तुमने तो आज आने के लिए मना किया था फिर?" पर चुप रहता हूं वह अपने चमकते दांतों को पूरा दिखाती हुई बॉस की बुराई करती कहती है, "ऑफिस में काम करना मुश्किल होता जा रहा है. काम का दबाव मन पर बुरी तरह हावी हो रहा है, तुमने सही समय पर अपना बिजनेस सेट कर लिया."
मुझे लगता है रुचि मेरी पीठ थपथपा रही है. मैं उसके थपथपाते हाथों के स्पर्श से चौंक जाता हूं और उसकी तरफ देखने लगता हूं, वह मुस्कुरा कर फिर बॉस और अन्य सहकर्मियों की बुराई करने लगती है. मैं हसंता हूं और खूब हंसता हूं. वह कई सामान खरीदती है फिर अचानक थोड़ी सी झेंपती हुई ब्रा दिखाने की मांग करती है और मुझे दुकानदार संबोधित कर मुस्कुराती है. मैं कुछ पल के लिए असहज हो जाता हूं और फिर दुकानदार बन उसे उसका सामान देने लगता हूं. वह दो हजार मुझे थमा, हाथ हिला चली जाती है. मुझे पता है शिखा मंदिर जाने के लिए तैयार बैठी हो सकती है पर मैं दुकान का शटर बंद करते सिर्फ अम्मा की बात सोचता हूं और खुद पर भरोसा मजबूत होता दिखता है. मेरे मन पर आज भी कुछ प्रश्न हावी होने लगते हैं. मैं उन्हें कपड़ों पर लगी मिट्टी की तरह एक ही पल में झाड़ देता हूं.

मेरे हाथ मेरी जेब पर और मैं अगले रविवार को फिल्म की बात सोच मुस्कुराता हूं. मुझे यकीन नहीं होता मैं अकेले ही मुस्कुरा सकता हूं. यकीन दिलाने के लिए मैं थोड़ा सा तेज हंसता हूं. पास का व्यापारी क्या सोच रहा है मुझे फर्क नहीं, मुझे तो रुचि की हंसी और शिखा की हंसी में खुद की हंसी दिखाई देती है.

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