जीवन सिंह

1.8.2009 शनिवार,  बैंकॉक का सुवर्णभूमि हवाई अड्डा
    
सरकारी हिसाब से मेरी जन्मतिथि 1.8.1946  है.  इस हिसाब से मेरा आज जन्म दिन भी है. जन्म की असली तिथि 19,7.1947 है. किन्तु जिंदगी में कई बार असली पर नकली भारी पड़ता है. मेरी जन्मतिथि के मामले में यही सच है. लोग और मेरा मन सच को भी जाने, अतः मैं अब अपनी जन्मतिथि 19.7.1947 लिखता व बतलाता हूं. सरकारी हिसाब में 1.8.1946 ही रखनी पड़ती है, इसके ऊपर मेरा वश नहीं. इससे हमारे अपढ़ और अव्यवस्थित समाज की मानसिकता का भी पता चलता है, जहां असल को बनाए रखने पर बल नहीं दिया जाता. ‘सब चलता है’ जैसी मानसिकता हमारे समाज की है. बहरहाल, बारह बजे बाद से बैंकाक के सुवर्णभूमि हवाई अड्डे की भव्य एवं मनोहारी और अकल्पनीय योजना व व्यवस्था को निहारता रहा. कितना विराट, विविध व दीर्घता लिए हुए है यह हवाई अड्डा. हमारी दिल्ली का हवाई अड्डा तो इसके पासंग में भी नहीं ठहरता. क्या वजह रही है कि यह दुनिया भर की एयरलाइनों की स्वर्णभूमि बन गया है. 

क्या यहां का सेक्स-ट्यूरिज़्म तो इसकी वजह नहीं है? 

इतना विराट, इतना अद्भुत हवाई अड्डा तो मुझे यू.एस.ए. का जे.एफ. केनेडी, न्यूयार्क का हवाई अड्डा भी नहीं लगा. जरूर सेक्स-ट्यूरिज़्म के आकर्षण के सम्मोहन में पूरी दुनिया इस तरफ भागती होगी. आज दुनिया में विलास व भोग जितनी द्रुतगति से बढ़ रहा है, उसके लिए थाईलैंड की सेक्स इण्डस्ट्री बहुत फायदे और कमाई कर रही होगी. रात में यहाँ के दो-ढाई बजे तक नींद नहीं आई. लोटते-पलोटते करवट बदलते रात काटता रहा. अलवर से साथ में एक चादर ओढने के उद्देश्य से ले आया था. उसे नीचे बिछा लिया और अपने बैग का तकिया लगाकर सोने का प्रयास करता रहा. जितनी करवटें बदल सकता था, बदलीं. एक-दो बार टायलेट भी गया. यहां बिना किसी तक़ल्लुफ के दूसरे देशों के सहयात्रियों को नीचे फर्श पर बैठे व सोते-लेटते देखा. कुछ लोग बेंचों पर सो रहे थे. आखिर नींद ने दो घण्टे के लिए मुझपर अपना कब्जा जमा ही लिया. इस समय मुझे अपनी देशी कहावत याद हो आई--‘‘नींद न देखे टूटी खाट, भूख न देखे रूखा भात’’ 

कल 31 जुलाई को इन्हीं बेंचों पर बैठकर मैंने और काठमाण्डू के भूमि बराल ने दो-दो परांठे खाए थे. अपरिचय में शर्म-झिझक व संकोच बने भी रहते हैं कि कोई देखेगा तो क्या कहेगा. लेकिन इसका दूसरा पक्ष भी है कि यहां हमको कौन देखने वाला है, जो शर्म-संकोच किया जाए. दोनों पक्षों का ही निर्वाह किया. पहले शर्म-संकोचवश खुले में परांठे खाने से झिझकता रहा. बाद में खुल गया और नेपाल के श्री भूमि बराल को भी अपने निस्संकोच का हिस्सा बना लिया. यही बात यहां नीचे फर्श पर चादर बिछाकर सोने के बाबत रही. पहले नीचे सोने में संकोच करता रहा, बाद में चादर बिछाकर सो गया. फर्श इतनी चमकदार और साफ थी कि ठण्ड न लगती तो बिना चादर बिछाए ही लेटा जा सकता था. दूसरे यात्राी लेट भी रहे थे. हल्की-हल्की ठण्ड महसूस हो रही थी अतः साथ लेकर आयी अपनी ऊनी जैकेट को पहन लिया इससे गर्माहट महसूस हुई. जब लेटने पर नींद नहीं आई तो डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी की किताब ‘नंगातलाई का गांव’ को पढ़ने की कोशिश की. कुछ ही पृष्ठ पढ़ पाया कि आलस्य ने मुक्त कर दिया. इसके बाद फिर लेट गया और करवटें बदलता रहा. फिर न जाने कब आंख लग गई मुझे नहीं मालूम. आँख खुली तो भारतीय समय के अनुसार मेरी घड़ी में तीन बज रहे थे, जबकि थाईलैंड की घड़ी सुबह के साढ़े चार बजा रही थी. जागकर ‘ट्रांसफर टू इण्टरनेशनल’ बूथ पर गया. मालूम हुआ कि पांच बजने पर बूथ खुलेगा. इसके बाद एलीवेटरों से होकर लगभग एक किलोमीटर आगे तक घूमने और पूछताछ करने के बहाने निकल गया. यहां थाई-संस्कृति के प्रतीक हनुमान जैसी एक प्रतिमा को अपने विराट रूप में कई जगह देखा. चावल के भण्डार व फलों की प्रचुरता के रंगीन विज्ञापनों को देखा. यहां भी नवयौवनाएं ही विज्ञापनों के केंद्र में दिखाई दी. हवाई अड्डे पर काउण्टर के लगभग सभी काम नवयौवनाएं ही कर रही थीं. पांच बजे के दस-पंद्रह मिनट बाद तीन-नवयौवनाएं काउण्टर पर आई और यात्रियों की टिकट और पासपोर्ट-वीजा आदि देखकर बोर्डिंग पास देने लगीं. यहां से बोर्डिंग पास लिया. संयोग कहिए कि 31 जुलाई को दिल्ली से जब 324 फ्लाइट में आया था, तब भी 52 सीट मिली थी. लौटते समय भी 52 ही मिली है.

काम का प्रताप 
    इस समय जब अपने यात्रा संस्मरण की यह डायरी लिख रहा हूं तो इस देश में सूर्योदय हो गया है. हमारे देश भारत से यह देश डेढ़ घण्टे आगे जो है. मुझे यहां के सी-3 द्वार से विमान में सवार होना है. इस समय मैं इंतजार कर रहा हूं और इस हवाई अड्डे की अर्धवर्तुलाकार बनावट को निहार रहा हूं. सीमेंट और स्टील की जो विराट एवं भव्य आकृति यहां दी गई है, वह हमारी प्रशंसा को स्वयं पा लेती है. सेक्स-ट्यूरिज्म को इससे जरूर बढ़ावा मिलता होगा. सेक्स के लिए इससे अच्छा और क्या वातावरण हो सकता है. यह एक खूबसूरत, यौवनसम्पन्न और सेक्सी हवाई अड्डा लगता है. जो अपने पर नियंत्राण किये रहता है, वह भी यहां आकर अपनी मर्यादा भंग कर सकता है. काम का प्रताप ही ऐसा होता है, इसके सामने राम के पिता और अयोध्या के राजा दशरथ की भी नहीं चली थी. वे वैसे तो सुरपति इन्द्र को जीतने वाले थे, लेकिन अपनी नवयौवना कैकेयी के कामपाश में बंधकर सब कुछ हार बैठे थे. बाबा तुलसी की कही ये पंक्तियां मुझे अक्सर याद आ जाती हैं--
        कोप भवन सुनि सकुचेऊ राऊ।
        भय बस अगहुड़ परइ न पाऊ।।
        सुरपति बसइ बांह बल जाके।
        नरपति रहंइ सकल रुख ताके।।
        सो सुनि तिय रिस गयऊ सुखाई।    
        देखहु काम प्रताप बड़ाई।।
    यह काम का ही प्रताप है कि इस थाई देश की जनता और शासन ने कामोद्योग को खुली व कानूनी मान्यता दे रखी है कि जिसके बल पर यह धरती सम्पन्न बन सके. छिपकर के तो सारी दुनिया में ही कामोद्योग चल रहा है. कहावत भी है कि धोती के भीतर सब नंगे हैं. इन्होंने इतना अवश्य किया है कि अपनी धोती उघाड़ ली है और जांघों को दिखला दिया है. यह भी संभव है कि ऐसा करने से यहां काम भावना स्वतः ही नियंत्रण में आ जाए.

(जीवन सिंह प्रसिद्ध साहित्यकार और आलोचक हैं. यह उनकी थाईलैंड यात्रा डायरी का सुन्दर अंश है. )

(यहां प्रकाशित विचार लेखक के नितांत निजी विचार हैं. यह आवश्यक नहीं कि डीएनए हिन्दी इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे और आपत्ति के लिए केवल लेखक ज़िम्मेदार है.)

 


 

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Thailand tourism diary by noted critique and writer Jivan singh
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बैंक़ॉक का सेक्स उद्योग और एक घुमक्कड़ की डायरी 
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बैंक़ॉक का सेक्स उद्योग और एक घुमक्कड़ की डायरी