लिच्छवियों के व्रज्जि संघ के गणतंत्र में भी अम्बपाली और थेरियों को जब न्यायोचित अधिकार ना मिले तो जैसे उन्होंने पुनर्जन्म लेकर रच दिया है क़ैद बाहर.
'क़ैद बाहर' सुप्रसिद्ध उपन्यासकार गीताश्री का नया उपन्यास है, जो राजकमल प्रकाशन से आया है.उनका पिछला उपन्यास अम्बपाली जहां समाप्त होता है, वहीं से आरंभ होता प्रतीत होता है ये उपन्यास. बस मध्य में हैं सदियों का अंतराल.
अम्बपाली और थेरियों का पुनर्जन्म हुआ हो जैसे किसी प्रयोजन से. स्त्री पीड़ा और स्वतंत्रता को लेकर सचेतन होते हुए भी अम्बपाली जो नही कर पाई, वो कर रही है क़ैद बाहर की नायिका माया. माया नाम ही एक तो आपको रिझा जाता है.
माया इक सरलमना,सहज पर सुलझी हुई स्त्री. माया अपने जीवन पर अपना नियंत्रण लिए हुए पर दूसरों की भावनाओं और निजता का सम्मान करती स्त्री. माया पक्ष और प्रतिपक्ष दोनो का सम्मान करती स्त्री.माया आवश्यकता होने पर स्वयं को भी कठघरे में खड़ा कर देखने वाली स्त्री.
माया सक्षम, स्त्रीवादी पर पुरुषों का पक्ष भी गहनता से समझने वाली, हर समय जीवन के दुःखों और झंझावातों से गुज़रनेवाली किसी भी लड़की या महिला की सहायता करने वाली उन्हें बेशर्त्त अपनाने वाली. बेशक़ लोग उस से आतंकित रहते थे कि वो कहीं हमारी स्त्रियों को विमर्श व सशक्तिकरण के नाम पर बरगलाना न दें.
पर माया अतिरेक वाले स्त्री विमर्श की उत्प्रेरक नही थी. वह अपने साथियों को बच कर चलने व सोच समझ कर अपने भविष्य के निर्णय लेने को प्रेरित करती थी. उपन्यास की कहानी माया व उसके आस पास से उसके जीवन में आने वाली विभिन्न क्षेत्रों की लड़कियों के आस पास घूमती है.
माया एक बड़ी संस्था में पत्रकार है. दिल्ली के मयूर विहार इलाक़े में अकेली रहती है अपनी शर्तों पर जीती है पर बेहद संवेदनशील है. प्रेम उसके जीवन में अब नहीं और वो अब और जीवन में प्रेम से बचती हैं. उसके अपने कारण है. कभी फ़ेसबुक से कभी अपने काम के माध्यम से उसके जीवन में आई स्त्रियों, दोस्तों की कहानियां उसे झकझोरती हैं.
कुछ इक त्रासद वैवाहिक जीवन से नही निकल पा रही हैं , कुछ निकल गई हैं तो एक पुरुष से छूट कर दूसरे के पास जाने में अपनी आज़ादियां तलाश रही है. उपन्यास इस विषय पर भी आवाज उठाता नज़र आता है. क्या ये ही वो मुक्ति है जो स्त्री चाहती है? क्या जीवन कुछ और नहीं है?
क्या किसी के हो जाने के किसी को पा लेने के अलावा और कहीं आपका अस्तित्व आपको नहीं दिखाई देता है? क्या सम्बन्ध हमारे जीवन का इक छोटा हिस्सा नहीं होना चाहिए जो बड़ा बन कर रह जाते हैं? क्या सच में बच्चों तक को छोड आने के बाद मिली आज़ादी की इतनी ज़रूरत थी भी? क्या कोई और विकल्प नही हो सकता.
यह तो तय है कि हर फ़ैसले के फ़ायदे और नुक़सान होते हैं आपकी प्राथमिकताएं ही यह तय कर सकती हैं कि आप कौन सी राह चुनेंगे. उम्र के साथ प्राप्त की परिपक्वता और भावनात्मक लगाव न रख कर घर को बना कर रखे जाना भी इक विकल्प हो सकता है या नहीं, उपन्यास इस पर भी ध्यान आकर्षित करता है. क्यूंकि घर से निकलने के बाद परेशानियाँ ख़त्म नहीं, शुरू होती हैं.
गीताश्री ने यह उपन्यास पर बहुत हो तटस्थ होकर लिखा है. ये उपन्यास केवल स्त्री विमर्श की हामी लेखक ने नहीं , एक सुलझी हुई स्त्री ने भी लिखा है. तभी तो वो एक पुरुष के पक्ष को भी इस किताब में अलग-अलग स्थानों पर बिना किसी पूर्वाग्रह के लिखती हैं. वो चाहे उपन्यास की नायिका का पूर्व प्रेमी हो या उनकी सखियों के पति या ब्वॉय फ़्रेंड. वो उनकी मनोस्थिति का भी मनोवैज्ञानकि विश्लेषण करती नज़र आती हैं. लोग कहते हैं , पुरुष स्त्री होकर लिखता है तो बड़ी बात है.
इस किताब में गीताश्री पुरुष होकर भी और स्त्री होकर भी स्त्री विमर्श लिखती नज़र आती हैं. विमर्श ही वही है जो पूर्वाग्रह ग्रसित ना हो. जिसे कोई भी लिखे, एक जैसा हो ,जेंडर का भेद ना हो.
ये उपन्यास स्त्री विमर्श पर लिखा गया ईमानदार और पूर्वाग्रह रहित दस्तावेज है जो आज तक इस विषय पर मेरी नज़रों से नहीं गुज़रा है.
पर इसका मतलब यह नही है कि इस में स्त्रियों की आवाज़ नहीं है. माया तड़प उठती है, छटपटाती है और फुंफकार उठती हैं , अपनी सखियों की ज़िंदगी को उनके पुरुष साथियों के हाथों बर्बाद होते देख कर. तभी तो गीताश्री इक जगह लिखती हैं-'क्या उसके पास-पास कोई लेडीज़ आईलैंड बन रहा है, चारों तरफ़ पानी-पानी दिखाई दे रहा है. कोई क्लेम नही करना चाहता कि यह उनका मुल्क है. इस द्वीप के लोगों को कोई नागरिकता नहीं देना चाहता. दरिया का पानी द्वीप की मिट्टी को काट रहा है.माया कटते हुए देख रही है.'
अभी स्त्री पूर्ण रूप से अपने उद्देश्य को पहचान नही पाई है ये थेरियां, स्वतंत्र होना तो जान गई है अपने लिए अपने फ़ैसले लेकर कदम तो आगे बढ़ाने लगी है पर उसके बाद क्या? ये सवाल सुलझाने में शायद कुछ समय लगेगा.
तभी तो गीताश्री लिखती हैं- 'ये स्त्रियाँ भी न प्रेम को ही सबसे बड़ा धर्म मानकर सब कुछ न्योछावर कर देती हैं, और धर्म यह क्या बला है? जितनी ज़ल्दी पीछा छूटे उतना बेहतर.'
वहीं गीताश्री का इक पुरुष पात्र स्वीकारोक्ति करता नज़र आता है- 'हम जैसे पति ही, महत्वाकांक्षी, सपनीली, रूमानी पत्नियों के सबसे बड़े गुनहगार होते हैं. समझ ही नही पाते कि उनके भीतर क्या तूफ़ान उठा है और इक दिन उन्हें हम खो देते हैं.'
स्त्री आसानी से अपने सम्बन्ध नही ख़त्म करती किंतु इक बार स्त्री विमुख हो गई तो हो गई . इस पर गीताश्री का इक वन लाइन हज़ारों पर भारी है-
'माया ने देखा- गंगा शिव-विमुख हो करवट बदलकर सो गई थी.'
शादी के लिए स्त्रियों की सहज मानसिकता पर वो लिखती हैं- ''अपना अनुभव बुरा होगा, तो भी किसी दूसरी स्त्री को सचेत नहीं करेंगी.''
वर्षों से संघर्ष करती स्त्री को इक दिन कुछ मुक्ति मिलती भी है तो क्या ये उसी के प्रयास से है? इस पर गीताश्री लिखती हैं- 'कईबार इक उम्र के बाद पुरुष भी स्त्रियों को मुक्त कर देते हैं. जब पूरा जी लेते हैं स्त्रियों को, निचुड़े हुए नींबू की तरह उछाल देते हैं. जिसे वे अपनी उदारता बताते हैं. वह उनका असली चरित्र होता है. कुछ पुरुषों को मोनोपॉजियन स्त्रियां यूजलेस लगती हैं.'
उपन्यास की भाषा व शिल्प पर कोई सवाल नही उठाए जा सकते. बहुत ही सधा हुआ कड़ा शिल्प, देशकाल यथोचित भाषा. ये क्यूंकि आज को, अभी की, इसी समय घटित हो रहे आधुनकि महानगरीय समाज की कहानी है तो इस में आप फेसबुक से लेकर मेट्रो तक के क़िस्से. रात की पार्टीयों से लेकर धरने जनआन्दोलन तक सबकुछ पाएंगे. इस में जाता हुआ शाहीन बाग और दस्तक देता कोरोना भी है तो, कैफ़े काफ़ी डे भी है और घरेलू सहायकों की उपस्थिति भी है.
च्यवन ऋषि-सुकन्या कथा का इक उपकथा के रूप में आना बहुत रोचक हैं. गोवा के स्थानों क़ानूनों व बोली का संक्षिप्त पर सहज वर्णन ही इक शोधपरक कृति के श्रेणी में 'क़ैद' बाहर को ले आता है.
उपन्यास में एकल रहने वाली स्त्री की उसकी रोमांटिक भावनाओं और अन्य भावनाओं का संदर्भ मैं यहाँ नही करूँगी तो मेरा इस किताब पर लिखना अधूरा रह जाएगा.
कितना ख़ूब लिखती हैं गीताश्री-
'जीवन गहरी लत है आसानी से नहीं जाती.'
'भावनात्मक रूप से ख़ुद पर निर्भरता रूमानियत के आड़े आती है.'
'ये पुरुष भी न, स्त्री से कोई रिश्ता हो न हो, साथ में हैं तो ख़ुद को उसका अभिभावक समझने लगते हैं. व्यक्ति के रूप में देखते क्यूं नहीं?'
स्त्री कितनी भी स्वाभिमानी हो वो रुखी नही होती है. लेखिका नायिका माया के प्यार में विरह की दशा का वर्णन कुछ यूं करती हैं- 'तुम भी उसे मिस करते हो न? मैं भी.'
किसी अदृश्य, अज्ञात चेहरे के बारे में दीवारों से पूछते हुए माया ने कमरे की दीवार को हौले से सहलाया , फिर चूम लिया.'
कुल मिला कर ये उपन्यास गीताश्री की इक बहुत ही महत्वपूर्ण रचना के रूप में सामने आया है जिसे निःसंदेह आज तक की सबसे ज्यादा सराहना मिलने वाली है.
एक वाक्य में कहना चाहें तो हमेशा अपने समय से आगे का लेखन करने वाली गीताश्री की यह पुस्तक स्त्री विमर्श की एक ईमानदार,संतुलित और परिपक्व पुस्तक है.
किताब का नाम- क़ैद बाहर ( उपन्यास)
लेखिका- गीताश्री
कहां खरीदें?
राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
कितनी है कीमत?
299 रुपये मात्र.
(पारूल सिंह, एक बाटनिस्ट, लेखक, व साक्षात्कारकर्ता हैं. अभी तक दो सौ से अधिक डाक्टर्स, थेरेपिस्टस, लेखकों का साक्षात्कार कर चुकी हैं. वर्तमान मे डाउन सिंड्रोम फेडरेशन ऑफ इंडिया के साथ जुड कर समाज सेवा मे सलंग्न.)
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क़ैद बाहर: काल की गिरफ्त से बाहर आती उत्तर आधुनिक युग की थेरी गाथाएं