डीएनए हिंदी: एक शख्स में आखिर कितने चरित्र हो सकते हैं, वह अपने एक जीवन में आखिर कितनी भूमिकाएं निभाता है. गौर करें तो हमसब अपने जीवन में कई अलग-अलग भूमिकाओं में होते हैं. हम में से कोई किसी का बेटा होता है, तो कोई किसी की बेटी. कोई किसी का भाई होता है, तो कोई किसी की बहन. कोई किसी का दोस्त होता है, कोई मामा-मामी, चाचा-चाची, दादा-दादी, नाना-नानी होता है. लेकिन आखिरकार वह एक नाम होता है. लेकिन इस नाम के साथ जुड़े तमाम रिश्ते-नाते, उसकी अलग-अलग भूमिकाएं, उसका व्यवहार, उसकी गतिविधियां ही उसका व्यक्तित्व रचते हैं और उसी से उसकी मुकम्मल पहचान बनती है.
ऐसी ही हैं पल्लवी त्रिवेदी भी. वे कवि हैं, कथाकार हैं, यात्रा संस्मरण लिखा करती हैं. रिश्ते उनके लिए बहुत मायने रखते हैं. अगर हंसी-मजाक-चुहल उनकी एनर्जी है तो गंभीर चिंतन उनके जीवन का खुराक. कई लोग उन्हें पुलिस अधिकारी के रूप में जानते हैं और कई उन्हें रचनाकार के रूप में. ये सारी चीजें मिलकर पल्लवी त्रिवेदी नाम का जो किरदार रचती हैं, उसे हम बेहतर इनसान के रूप में जानते हैं. फोन पर अनुराग अन्वेषी से हुई बातचीत में उन्होंने बताया कि वे मध्य प्रदेश की राज्य पुलिस सेवा में हैं. फिलहाल वे इकोनॉमिक ऑफेंसिंग विंग (ईओडब्ल्यू) यानी आर्थिक अपराध प्रकोष्ठ में बतौर एआईजी नियुक्त हैं.
प्रेम कहानियों का संग्रह
पल्लवी के खाते में फिलहाल 3 प्रकाशित कृतियां हैं और चौथी बहुत जल्द आनेवाली है. 2016 के जनवरी महीने में पल्लवी का व्यंग्य संग्रह रूझान पब्लिकेशन से आया 'अंजाम-ए-गुलिस्तां क्या होगा' के नाम से. इसके 3 बरस बाद यानी 2019 में रूझान प्रकाशन ने पल्लवी की कविताओं का संग्रह 'तुम जहाँ भी हो' के नाम से प्रकाशित किया. पल्लवी के यात्रा संस्मरण राजकमल ने सार्थक प्रकाशन से छापे. 2022 में प्रकाशित इस संग्रह का नाम है 'खुशदेश का सफर'. पल्लवी ने बताया कि उनकी कहानियों का संग्रह बहुत जल्द ही राजकमल प्रकाशन से आने जा रहा है.
लिखने का वक्त
यह पूछने पर कि पुलिस सेवा में रहते हुए इतना वक्त कैसे मिल जाता है कि रोज-रोज लिख लेती हैं, पल्लवी ने कहा कि मैं रोज-रोज नहीं लिखती. जब वक्त मिल जाता है लिखना शुरू कर देती हूं. मैं लंबे समय से छोटी-छोटी टिप्पणियां लिख रही थी, कभी वह व्यंग्य रूप में होता था तो कभी किसी और रूप में. इसी छोटे-छोटे और रुक-रुककर लिखते हुए संग्रह कर सकने लायक व्यंग्य की टिप्पणियां जमा हो गईं. इसी का नतीजा दिखा 2016 में 'अंजाम-ए-गुलिस्तां क्या होगा' के रूप में. ठीक यही बात कविताओं के साथ भी रही. लिखते-लिखते जमा होती गईं तो संग्रह तैयार हो गया. लेकिन मेरी जो तीसरी किताब रही 'खुशदेश का सफर', वह मैंने दो-ढाई महीने बैठकर लिखा. दरअसल, सफर के तुरंत बाद अगर ये नहीं लिखती तो यादें धुंधली पड़ती जातीं.
पुलिस की छवि
पुलिस की छवि आम जनता के बीच बेहद क्रूर और कठोर वाली है. वैसे, मुझे लगता है कि यह छवि इस पेशे की जरूरत भी है. यानी पुलिसवालों को थोड़ा कठोर, थोड़ा सख्त और थोड़ा क्रूर हो जाने की ट्रेनिंग मिलती होगी. तो ऐसे पेशे में होते हुए आपके भीतर कविता जैसे कोमल भाव, व्यंग्य जैसी मारकता, कहानी की बारीकी कैसे पनप जाती है, इस पर पल्लवी ने कहा 'ना'. पुलिस क्रूर नहीं होती. वैसे क्रूर तो एक स्वभाव है जो किसी टीचर में भी हो सकता है. हां, यदाकदा क्रूरता के कुछ किस्से पुलिस डिपार्टमेंट से भी निकलकर आते हैं, लेकिन यह पुलिस का प्रतिनिधि चरित्र नहीं हो सकता. फिर हंसते हुए कहती हैं कि अगर पुलिस क्रूर ही होती तो आप हम थोड़े न बात कर रहे होते. तो यह धारणा बिल्कुल गलत है.
पुलिस की कठोरता जरूरी
फिर उन्होंने पुलिस के कठोर होने की बात पर कहा कि यह कठोरता जरूरी है. जब आप किसी केस का इन्वेस्टिगेशन कर रहे होते हैं या कोई इंट्रोगेशन कर रहे होते हैं तो उस समय आप मुलजिम से विनम्र होकर बातें नहीं उगलवा सकते हैं. इसी तरह पुलिस का रोल, उसकी भाषा वक्त की जरूरत देखते हुए ही बदलती है, कभी आवाज ऊंची होती है तो कहीं विनम्र. इसको ऐसे समझें कि साहित्य में कविता लिखने में आप अलग भाषा का इस्तेमाल करते हैं तो नाटक लिखने की शैली अलग होती है, लेख लिखना हो तो भाषा और अभिव्यक्ति का रूप दूसरा ही होता है. ऐसे ही पुलिस भी वक्त और जरूरत के मुताबिक अपनी शैली बदलती है, अपनी भाषा बदलती है और अपना रोल तय करती है.
इसे भी पढ़ें : राज्यसभा सांसद महुआ माजी का तीसरा उपन्यास जल्द आएगा सामने, जानें इस बार किस मुद्दे पर चली है कलम
पल्लवी त्रिवेदी की कविता 'जब मैंने 'ना' कहा'
जब पल्लवी ने पुलिस के क्रूर होने की बात पर 'ना' कहा तो मुझे अचानक उनकी कविता 'जब मैंने 'ना' कहा' की याद हो आई. आप पढ़ें उनकी यह कविता और इस कविता के पाठ के बाद पढ़ें उनसे हुई बातचीत के बाकी अंश.
मैंने पहली बार जब 'ना' कहा
तब मैं 8 बरस की थी
'अंकल नहीं... नहीं अंकल'
एक बड़ी चॉकलेट मेरे मुंह में भर दी अंकल ने
मेरे 'ना' को चॉकलेट कुतर-कुतर कर खा गई
मैं लज्जा से सुबकती रही
बरसों अंकलों से सहमती रही
फिर मैंने ना कहा रोज़ ट्यूशन तक पीछा करते उस ढीठ लड़के को
'ना,मेरा हाथ न पकड़ो'
ना, ना... मैंने कहा न 'ना'
मैं नहीं जानती थी कि 'ना' एक लफ्ज़ नहीं, एक तीर है जो सीधे जाकर गड़ता है मर्द के ईगो में
कुछ पलों बाद मैं अपनी लूना सहित औंधी पड़ी थी
मेरा 'ना' भी मिट्टी में लिथड़ा दम तोड़ रहा था
तीसरी बार मैंने 'ना' कहा अपने उस प्रोफेसर को
जिसने थीसिस के बदले चाहा मेरा आधा घण्टा
मैंने बहुत ज़ोर से कहा था 'ना'
'अच्छा..! मुझे ना कहती है'
और फिर बताया कि
जानते थे वो मैं क्या-क्या करती हूँ मैं अपने बॉयफ्रेंड के साथ
अपने निजी प्रेमिल लम्हों की अश्लील व्याख्या सुनते हुए मैं खड़ी रही बुत बनी
सुलगने के वक्त बुत बन जाने की अपराधिनी मैं
थीसिस को डाल आयी कूड़ेदान में और
अपने 'ना' को सहेज लायी
वो जीवनसाथी हैं मेरे जिन्हें मैं कह देती हूँ कभी-कभार
'ना प्लीज़, आज नहीं'
वे पढ़-लिखे हैं, ज़िद नही करते
बस झटकते हैं मेरा हाथ और मुंह फेर लेते हैं निःशब्द
मेरे स्नेहिल स्पर्श को ठुकराकर वे लेते हैं 'ना' का बदला
आखिर मैं एक बार आँखें बंद कर झटके से खोलती हूँ
अपने 'ना' को तकिए के नीचे सरकाती हूँ
और
उनका चेहरा पलटाकर अपने सीने पर रख लेती हूँ
मैं और मेरा 'ना' कसमसाते रहते हैं रात भर
'ना' क्या है?
केवल एक लफ्ज़ ही तो, जो बताता है मेरी मर्ज़ी
खोलता है मेरे मन का ताला
कि मैं नहीं छुआ जाना चाहती तुमसे
कमसकम इस वक्त
तुम नहीं सुनते
तुम 'ना' को मसल देते हो पंखुरी की तरह
कभी बल से, कभी छल से
और जिस पल तुम मेरी देह छू रहे होते हो
मेरी आत्मा कट-कट कर गिर रही होती है
कितने तो पुरुष मिले
कितने ही देवता
एक ऐसा इंसान न मिला जो
मुझे प्रेम करता मेरे 'ना' के साथ
पीड़ा की कविता
आपने भी सुना न ये स्त्री स्वर. जाना न कि स्त्री के 'ना' को कुचलने का अपराध बनता रहा है यह भारतीय मर्दवादी समाज. पीड़ा में लिखी कविता का स्वर दूर तक सुनाई देने की बात पर इस संवेदनशील कवि ने कहा कि जब आप पीड़ा में होते हैं और उस पीड़ा को तुरंत दर्ज कर रहे होते हैं तो वह उतनी शार्प नहीं होती, जितनी कि जब हम उससे डिटैच्ड होकर लिख रहे होते हैं. मुझे लगता है कि जब आप पीड़ा में होते हैं और उसे लिखते जाते हैं तो वह सिर्फ भाव भर होता है, उसमें जो कवित्त भाव होना चाहिए वह छुप जाता है. मेरा निजी अनुभव रहा है कि जब मैं पीड़ा में होती हूं तो सिर्फ दर्ज करती जाती हूं और उसे छोड़ देती हूं. फिर जब उस पीड़ा से उबर जाती हूं तो फिर उस कविता पर काम करना शुरू करती हूं, तो वह शार्प बनती है.
नए संग्रह के बारे में
पल्लनी त्रिवेदी ने अपने कहानी संग्रह के बारे में बताया कि इस संग्रह में प्रेम कहानियां हैं. अभी कवर और संग्रह का नाम तय होना बाकी है. इस संग्रह में तकरीबन 50 कहानियां होंगी. इनमें से फेसबुक पर भी कई कहानियां चर्चित रही हैं. लेकिन उससे इतर लिखी गई कहानियां भी इस संग्रह में शामिल होंगी.
देश-दुनिया की ताज़ा खबरों Latest News पर अलग नज़रिया, अब हिंदी में Hindi News पढ़ने के लिए फ़ॉलो करें डीएनए हिंदी को गूगल, फ़ेसबुक, ट्विटर और इंस्टाग्राम पर.
- Log in to post comments
पीड़ा से उबरकर लिखी गई कविता होती है शार्प - बोलीं साहित्यकार पल्लवी त्रिवेदी