साहित्य उसमें भी हिंदी साहित्य में लिखने-पढ़ने के लिए बहुत कुछ है. मगर कई मौके ऐसे भी आए हैं जब कथानक का हवाला देकर या बस यूं ही सस्ती लोकप्रियता के लिए कोई साहित्यकार भाषा से छेड़छाड़ कर देता है. ऐसी स्थिति में भाषा की स्थापित मर्यादाएं टूटती हैं और एक नए विमर्श को खाद मिलती है. कहानी या कहानीकार को अश्लील के टैग से नवाज दिया जाता है.
हिंदी साहित्य में ऐसी तमाम किताबें हैं जिनके प्लाट को लेकर जबरदस्त बवाल हुआ है. कहीं किसी किताब में लेखक ने भर-भर के गालियों या ये कहें कि अश्लील शब्दावली का प्रयोग किया. तो कहीं किसी किताब को पढ़ते हुए किसी महिला पात्र को लेखक द्वारा कुछ इस तरह ग्लोरिफाई किया गया कि जैसे कोई किताब न पढ़कर एक ऐसा सिनेमा देख रहे हैं जिसमें सेक्स और सिर्फ सेक्स की भरमार है.
'अश्लील' लिखने वाले लेखकों को लेकर खुद लेखक बिरादरी में हमें गहरा विरोधाभास दिखाई पड़ता है. 'शालीन' लिखने वाले तमाम लेखक ऐसे हैं, जिनका मानना है कि ऐसा बिलकुल भी नहीं है कि कथित तौर पर बोल्ड प्रसंग किसी लेखक को स्थापित कर देता है.
तो इसी क्रम में, आइए रुख करें उन किताबों का जिन्होंने अपने छपने के बाद न केवल हिंदी साहित्य जगत में खलबली ही मचाई, बल्कि इसके लेखकों को वल्गर या ये कहें कि अश्लील होने का टैग भी मिला. इन तमाम किताबों को लेकर दिलचस्प ये है कि भले ही एक समय में इन किताबों का जबरदस्त विरोध हुआ हो. लेकिन बाद में ये जबरदस्त हिट साबित हुईं.
किताब - मित्रो मरजानी
प्रकाशक- राजकमल प्रकाशन
लेखक - कृष्णा सोबती
मूल्य - 170
प्रख्यात लेखिका कृष्णा सोबती रचित मित्रो मरजानी एक ऐसा ही उपन्यास है, जिसने अपने अनोखे कथा-शिल्प के कारण खूब सुर्खियां बटोरी हैं. किताब पढ़ें तो मिलता है कि उपन्यास की नायिका 'मित्रो' जो कि एक मुंहजोर महिला है, उसका पूरा चरित्र ही अपने आप में अनूठा है. चाहे वो मित्रो की सामाजिक-पारिवारिक जरूरतें हों या फिर दैहिक, जिस तरह कृष्णा सोबती ने उन्हें अपने शब्दों में रचा वैसा शायद ही हिंदी भाषा के किसी अन्य उपन्यास में दिखाई पड़े.
भले ही हिंदी भाषा के आलोचकों ने मित्रो मरजानी को अश्लील बताते हुए इसका खूब विरोध किया हो. मगर एक बार जब हम इसे पढ़ना शुरू करते हैं तो ये उपन्यास भी हमें अपनी गिरफ्त में ले लेता है और बांधे रखता है. किताब एक अहम सवाल उठाती है और वो ये कि एक स्त्री अपने सेक्स डिजायर का क्या करें? क्या उसे उन्हें दबा देना चाहिए?
किताब - चित्तकोबरा
प्रकाशक- राजकमल प्रकाशन
लेखक - मृदुला गर्ग
मूल्य - 202
मृदुला गर्ग के उपन्यास चित्तकोबरा हिंदी साहित्य के उन चर्चित उपन्यासों में है, जिसने पूरे हिंदी साहित्य जगत को दो वर्गों में बांट दिया. आज भी इस किताब को लेकर खूब चर्चा होती है और इसे साहित्य में 'अश्लीलता की पराकाष्ठा' कहा जाता है. चित्तकोबरा उपन्यास की कथा के केन्द्र में नायिका 'मनु है. जो एक विवाहिता स्त्री और दो बच्चों की मां भी है. मनु के पति का नाम महेश है. एक गृहिणी के रूप में मनु के मन में यह प्रश्न बार-बार उठता है कि क्या महेश उससे प्रेम करता है?
किताब में मृदुला ने बताया है कि मनु की मुलाकात एक पादरी रिचर्ड से होती है. तब उसे एहसास होता है कि प्रेम की वास्तविक परिभाषा क्या है? उपन्यास में जिस तरह लेखिका ने एक स्त्री के द्वन्द्व को दर्शाया है वो काबीलेतारीफ है. किताब पढ़ते हुए महसूस होता है कि उपन्यास की भाषा पात्रों एवं प्रसंगों के अनुकूल है. किताब का भले ही खूब विरोध हुआ हो, इसे अश्लील कहा गया हो, मगर इसे पढ़कर बतौर पाठक हम प्रेम के सही मायने समझते हैं.
किताब - हमज़ाद
प्रकाशक- राजकमल प्रकाशन
लेखक - मनोहर श्याम जोशी
मूल्य - 100
मनोहर श्याम जोशी लिखित हमज़ाद ने भी खूब आरोप प्रत्यारोप सहे. तत्कालीन लेखकों की एक बिरादरी ऐसी भी थी, जिसने इस बेहद जरूरी उपन्यास को अश्लील का तमगा दिया. लेकिन शायद वो ये भूल गए कि हमजाद तत्कालीन और समसामयिक व्यवस्था को नंगा करता है. किताब पाठकों को भाव-विभोर करती है. उसे चौंकाती है.
किताब की सबसे अहम बात ये है कि ये एकाकीपन और असुरक्षा का बोध भी करवाती है. किताब में मुख्य किरदार के अंधेरे व्यक्तित्व की खोज इतनी खूबसूरती से की गई है कि आप उस किरदार के बारे में भ्रम में पड़ जाते हैं. रोचक ये कि आप अपने जीवन में उससे मिलना नहीं चाहते. किताब पढ़ते हुए ये भी कहा जा सकता है कि हिंदी साहित्य में शायद ही कभी किसी अंधेरे किरदार को इतनी स्पष्टता से लिखा गया हो.
किताब - बिमल उर्फ़ जाएं तो जाएं कहां
प्रकाशक- नेशनल पब्लिशिंग हाउस
लेखक - कृष्ण बलदेव वैद
मूल्य - 226
तीन दशक पहले प्रकाशित कृष्ण बलदेव वैद का उपन्यास बिमल उर्फ़ जाएं तो जाएं कहां का सफर भी आसान नहीं था. अपने प्रकाशन से पहले ही यह उपन्यास विवादित बना और इसने चर्चा का बाजार गर्म किया. उपन्यास को लेकर कहा यही जाता है कि तमाम प्रकाशक ऐसे थे जिन्होंने इसे छापने से मना कर दिया था. उपन्यास में कई ऐसे प्रसंगों का जिक्र हैं जिनमें खुलकर सेक्स पर बात हुई है. जिस तरह की भाषा है उसने अपने को शालीन कहने वाले साहित्यकारों के माथे पर चिंता के बल हरदम पैदा किए हैं.
किताब - काशी का अस्सी
प्रकाशक- राजकमल प्रकाशन
लेखक - काशीनाथ सिंह
मूल्य - 226
काशीनाथ सिंह की लिखी काशी का अस्सी को लेकर तमाम समीक्षकों की तरफ से कहा यही जाता है कि इसमें गालियों की भरमार है. किताब का प्लाट भले ही बेहतरीन हो लेकिन इसकी भाषा में फूहड़ता झलकती है. सवाल है कि क्या वास्तव में ऐसा है? जवाब है नहीं. जैसे जैसे हम इस किताब को पढ़ते हैं महसूस यही होता है कि लेखक ने अपनी कलम से जो खाका तैयार किया है वो उस काशी को दर्शा रहा है जो आधुनिकता की रेस में न सिर्फ आगे नहीं बढ़ रही है बल्कि दौड़ रही है.
यह उपन्यास कुछ ऐसा है कि इसका हर एक एक अध्याय हर एक पन्ना बतौर पाठक हमें एक अलग ही दुनिया में ले जाता है. उपन्यास की शुरुआत भले ही हंसी-मजाक से होती है, मगर जैसे-जैसे किताब आगे बढ़ती है पूरा परिदृश्य और विषय गंभीर होता चला जाता है.
भले ही एक बड़ा तबका काशी का अस्सी को अश्लील कहे मगर इस किताब को इसलिए भी पढ़ा जाना चाहिए क्योंकि ये किताब सही मायनों में सामाजिक ताने बने और क्लास सिस्टम को हमारे सामने लाती है.
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