- देवेश पथसरिया
'न्यूटन भौंचक्का था' वरिष्ठ कवि निरंजन श्रोत्रिय का नया कविता संग्रह है जो उनके पिछले कविता संग्रह के एक लंबे अंतराल बाद आया है. कविताओं का शिल्प और प्रयुक्त बिंब इस संग्रह को नायाब बनाते हैं:
'यह घुमड़ता-मचलता
समंदर विशाल
भीगना चाहता है अपनी पहली बूॅंद से
वह जो थी कभी मीठे पानी की"
पुस्तक की पहली ही कविता 'ज़रूरत भी नहीं है' से कवि स्त्रियों के लिए उम्मीदों का वितान रचने का अपना मंतव्य स्पष्ट करता है. इस वितान में लहराती है एक पतंग और बनती है 'पतंग उड़ाती लड़की' शीर्षक कविता. किंतु, समाज में रूढ़ियां भी तो हैं. 'द करवा चौथ' कविता मान्यताओं की अनिवार्यता पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करती है. यह कविता व्रत का विरोध नहीं करती, अपितु स्त्री के स्वास्थ्य और इच्छा को प्राथमिक मानती है.
संग्रह की शीर्षक कविता सहित कुछ अन्य कविताओं की प्राणवस्तु एक ऐसा क्षण है जिसमें सब कुछ अचानक रुक जाता है, या अपने पथ से विचलित होने लगता है. यह विचलन, विचलित करने वाला है:
"और पक्षी किसी सिंदूरी आग के रंग में कूदकर
आत्महत्या कर रहे हैं."
प्रतिरोध की कविताएं लिखना अतिरिक्त ज़िम्मेदारी का काम है
प्रतिरोध की कविताएं लिखना अतिरिक्त ज़िम्मेदारी का काम है. किसी कवि की विचारधारा की असली पड़ताल उसकी कविताओं में की जा सकती है. शक्तिशाली के विरुद्ध प्रतिरोध का स्वर इन कविताओं में प्रमुखता से आता है. जैसे 'शांतिपूर्ण विध्वंस', 'तब्दीली' और 'न लिखने का कारण' जैसी कविताएं. 'तब्दीली' कविता का मार्मिक दृश्य है: एक प्रसूता इलाज के अभाव में मर रही है, उसका बच्चा भूख से मरने वाला है और शराबी पति घर का आखिरी बर्तन बेचने निकला है. यह पाठक को तय करना है कि उस स्थिति में भी शराबी होने के लिए वह धिक्कार का पात्र है अथवा विकल्पहीनता की स्थिति के कारण करुणा का.
एक समय तक युवा जोश, भविष्य की सुनहरी उम्मीद बनाए रखने में सहायक होता है. लेकिन जब कवि देखता है कि चुनाव-दर-चुनाव कुछ बदल नहीं रहा. प्रत्येक नागरिक महज़ एक वोट बनकर रह गया है, कवि निराश हो जाता है. यही निराशा 'कविता न लिखने का कारण' बनती है. 'मैं मरा यूं' कविता में यह भाव अपने चरम पर पहुंचता है:
".... इस यंत्र का
मैं था वह पुर्जा
जो तमाम चिकनाइयां लपेट लेने के बावजूद
खर्र-खर्र करता है"
'मास्टर' कविता में निरर्थक अंकों के माध्यम से हाशिए पर खड़े शिक्षक की बात की गई है. अपनी संतान की बदली प्राथमिकताओं के फलस्वरूप टीवी के काल्पनिक किरदारों से आत्मीयता जोड़ते बुजुर्ग यहां उपस्थित हैं. कई बुजुर्गों को देश के ढाई अरब कंधों में से एक भी अंतिम यात्रा में नसीब नहीं होता (संदर्भ: 'कंधे' कविता). तकनीकी 'शो ऑफ' के ज़माने में ऐसा हो भी क्यों न? क़रारे व्यंग्य के तौर पर 'लाइक' के बदले दिवंगत द्वारा 'स्माइली' भेजा जाना 'शामिल' कविता को अलग ऊँचाई पर ले जाता है.
मनुष्य द्वारा प्राकृतिक संसाधनों के अमर्यादित दोहन के बारे में कवि चिंतारत है. 'मंशा' शीर्षक कविता सत्ता के संसाधनों के प्रति दुर्भाव को दिखाती है. 'कोयले के बारे में एक कविता' में प्रथम दृष्टया नॉस्टैल्जिया में तैरने एवं बीते तरीकों को पुनः जीने की इच्छा दिखती है:
"क्या बढ़ गई है अचानक
जेल में लकीर खींचने वाले कैदियों की संख्या
या कि कंप्यूटर से ऊबे बच्चों ने शुरू किया है
फिर से नक़ली मूछें बनाना"
इतने पर भी यह असल में नॉस्टैल्जिया मात्र की कविता नहीं है. यह कविता इस बारे में भी है कि कोयला कभी आम लोगों के उपयोग का साधन रहा है. प्रकृति के दोहन वाली बात यहां भी लागू होती है. 'एक दो तीन' कविता माधुरी दीक्षित और अस्सी के दौर के सिनेमाई रोमांच से आरंभ होकर जीवन के फ़लसफे की कविता बन जाती है.
कवि आधुनिक संसार की तकनीकी शब्दावली का प्रयोग करता हुआ समकालीन मध्यमवर्ग की विडंबना बयान करता है. निराश देने वाली बातों से हलकान कवि जीवन की छोटी-मोटी चुहलबाज़ियों में जीवन ढूंढता है:
"मटर छीलते हुए
आंख बचाकर जो दाने मुंह में डाले जाते हैं
वो है जीवन!"
कहा जा सकता है कि कवि के पिछले संग्रह जुगलबंदी (2008) के चौदह वर्ष बाद आए इस कविता संग्रह में एक पके हुए फल की मिठास है. जीवन अनुभव का सारांश है. निराशाओं का काला घेरा है, तो उम्मीद बंधाते झरोखे भी हैं.
(देवेश पथ सारिया युवा कवि हैं. कविता और कहानी पर सुंदर आलोचना भी इनकी विधा है. )
पुस्तक: न्यूटन भौंचक्का था
लेखक: निरंजन श्रोत्रिय
प्रकाशक: आधार प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड
मूल्य: ₹120 (पेपरबैक)
वर्ष: 2022
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