डीएनए हिंदी: दुनियाभर के वैज्ञानिक तेजी से हो रहे जलवायु परिवर्तन पर चिंता जाहिर कर रहे हैं. जलवायु परिवर्तन के नकारात्मक प्रभावों को लेकर मौसम वैज्ञानिक आशंकित हैं. बीते कुछ वर्षों से जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय फोरमों में लगातार गंभीर बैठकें की जा रही हैं. ऐसे में यह जानना जरूरी हो जाता है कि जलवायु है क्या?
'जलवायु' (Climate) कई वर्षों तक एक सा रहने वाला किसी स्थान का औसत मौसम है. 'जलवायु परिवर्तन' (Climate Change) उन औसत परिस्थितियों में आए हुए बदलाव को कहते हैं. जलवायु परिवर्तन की वजह से मौसम में तेजी से बदलाव होते हैं. धरती का तापमान बढ़ता है. ग्लेशियर पिघलने की घटनाएं सामने आती हैं. धरती के औसत तापमान का बदलना चिंताजनक है.
कई अध्ययनों में यह बात सामने आई है कि बीते 100 वर्षों में धरती का तापमान करीब 1.2 डिग्री सेल्सियस बढ़ा है. धरती का औसत तापमान अब करीब 15 डिग्री सेंटीग्रेड हो गया है. कार्बन डाइ ऑक्साइड की मात्रा में भी करीब 50 फीसदी तक बढ़ोतरी हुई है.
जलवायु परिवर्तन से तटीय शहरों के डूबने का खतरा
नेशनल एरोनॉटिक्स एंड स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन (NASA) ने क्लाइमेट चेंज (जलवायु परिवर्तन) पर हाल ही में एक रिपोर्ट तैयार की थी. नासा ने हाल ही में इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) रिपोर्ट पर दुनिया भर में समुद्र के स्तर में बदलाव का विश्लेषण किया और चौंकाने वाले निष्कर्ष सामने आए. रिपोर्ट में इस बात का जिक्र किया गया है कि जलवायु परिवर्तन की वजह से कुल 12 भारतीय तटीय शहरों के पानी में डूबने की आशंका है.
भारत के अलावा कई तटीय देशों पर भी खतरा मंडरा रहा है जिनमें जकार्ता, मलेशिया, इंडोनेशिया और श्रीलंका जैसे देश शामिल हैं. क्लाइमेट एक्शन ट्रैकर ग्रुप के शोधकर्ताओं ने अनुमान जताया है कि अगर 2030 तक ग्रीनहाउस गैसों में कटौती के लिए वैश्विक समुदाय की ओर से लिए गए संकल्प पूरे भी हो जाते हैं तो भी धरती का तापमान प्री-इंडस्ट्रियर एरा से 2.4 सेंटीग्रेट बढ़ जाएगा. ऐसे में अगर व्यापक तौर पर प्रयास नहीं किए गए तापमान में कमी नहीं आ सकेगी. तापमान में कमी नहीं आएगी तो ग्लेशियर के पिघलने की दर बढ़ सकती है जिसका नुकसान छोटे द्वीपीय देशों को उठाना पड़ेगा.
जलवायु परिवर्तन के क्या हैं कारण?
जलवायु परिवर्तन की बड़ी वजह प्राकृतिक संसाधनों का कृत्रिम तरीके से अनियमित दोहन है. अनियंत्रित कार्बन उत्सर्जन, पेट्रोलियम, कोयले का इस्तेमाल, कल-कारखानों के धुएं, वाहनों के धुएं, एसी-फ्रिज से उत्सर्जित होने वाली क्लोरो-फ्लोरो कार्बन जैसी हानिकारिक गैसें, धरती पर प्रतिकूल प्रभाव डालती हैं. इनकी वजह से ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन होता है. इन गैसों में सबसे ज्यादा मात्रा कार्बन डाइ ऑक्साइड की होती है. धरती के चारों तरफ एक ग्रीन हाउस लेयर है जिसमें कार्बन डाइ ऑक्साइड, मीथेन और नाइट्रस ऑक्साइड जैसी गैसें होती हैं. यह लेयर धरती पर सूरज के ताप को स्थिर रखती है. कार्बन डाइ ऑक्साइड, मीथेन और क्लोरो-फ्लोरोकार्बन मुख्य ग्रीन हाउस गैसे हैं. पेड़ों की अंधाधुंध कटाई को रोकना, सौर और पवन ऊर्जा का अधिक से अधिक इस्तेमाल, वृक्षारोपण, कार्बन उत्सर्जन में कमी से ग्रीन हाउस प्रभाव कम किया जा सकता है. जलवायु परिवर्तन को रोकने लिए वैश्विक स्तर पर प्रयास मौजूदा वक्त की जरूरत है.
जलवायु परिवर्तन के नुकसान
जलवायु परिवर्तन की वजह से वैश्विक तापमान में तेजी से बढ़ोतरी हो रही है. जलवायु परिवर्तन की वजह से तापमान संबंधी कई बीमारियां भी सामने आएंगी. कनाडा में इस तरह का पहला केस भी सामने आ चुका है. कई देश इन परिवर्तनों की वजह से सूखे की समस्या से जूझेंगे तो कई देशों में अनियमित बारिश होगी. कहीं तेज तूफान आएंगे तो कहीं हवाएं ही नहीं चलेंगी. ग्लोबल वॉर्मिंग की वजह से ध्रुवों पर ग्लेशियर पिघलेंगे और द्वीपीय देशों के डूबने का खतरा भी बढ़ेगा.
अमेरिकी एजेंसी द ऑफिस ऑफ डायरेक्टर ऑफ नेशनल इंटेलिजेंस (ODNI) की एक स्टडी के मुताबिक कई देशों में लू (हीट वेव) से होने वाली बीमारियों में इजाफा होगा. वहीं डेंगी और मलेरिया के मामले भी बढ़ेंगे. इसके अलावा सौर्य विकिरण और ओजोन लेयर से संबंधित बीमारियां भी बढ़ेंगी.
ग्लासगो में संयुक्त राष्ट्र के जलवायु परिवर्तन पर हुई बैठक का नतीजा क्या?
स्कॉटलैंड के ग्लासगो शहर में संयुक्त राष्ट्र ने नवंबर में अहम बैठक की. सीओपी-26 शिखर सम्मेमलन में दुनिया के दिग्गज देशों ने जलवायु परिवर्तन की समस्या से निपटने के एकजुट होने की बात दोहराई है. चीन और अमेरिका जैसे देश कार्बन के सबसे बड़े उत्सर्जक हैं. 40 फीसदी कार्बन उत्सर्जन सिर्फ दो देश करते हैं. अमेरिका ने 2050 तो चीन ने 2060 तक जीरो कार्बन उत्सर्जन की बात कही है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ग्लासगो में कॉप-26 सम्मेलन के दौरान 2070 तक कार्बन उत्सर्जन को घटाकर नेट जीरो तक लाने की घोषणा की थी. विकसित देश ऐसे फैसले कर सकते हैं लेकिन जो देश विकासशील हैं या गरीब देशों में शुमार हैं उनके लिए जीरो कार्बन उत्सर्जन की राह पर आगे बढ़ पाना संभव नजर नहीं आता है. विकास के दौड़ में वे फैक्ट्रियां लगाएंगे, खुद को बेहतर करने की कोशिश करेंगे. विकसित देशों के कार्बन उत्सर्जन का खामियाजा गरीब देशों को भुगतना पड़ेगा. वैज्ञानिकों का यह भी मानना है कि बड़े देशों के पास जलवायु परिवर्तन की चुनौती से निपटने के लिए संसाधन हो जाएंगे लेकिन छोटे देश इन परिवर्तनों से तबाह हो जाएंगे.
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