क्या एआईएमआईएम सुप्रीमो असदुद्दीन ओवैसी एक फायर ब्रांड नेता से बुझे हुए कारतूस में तब्दील हो गए हैं? क्या उनका जलवा जलाल खात्मे की तरफ बढ़ चुका है? क्या आने वाला वक़्त ओवैसी और उनकी पॉलिटिक्स के लिए मुश्किलों भरा है? सवाल भले ही हैरान करने वाले हों. लेकिन जब हम हाल में संपन्न हुए महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों को देखते हैं तो ओवैसी से जुड़ी यही पिक्चर काफी हद तक साफ़ हो जाती है. साथ ही महसूस यह भी होता है कि महाराष्ट्र चुनाव ने ओवैसी को बैकफुट पर लाकर खड़ा कर दिया है.
इस बात में कोई शक नहीं है कि महाराष्ट्र में महायुति की सुनामी ने बड़े बड़े राजनीतिक पंडितों को विचलित किया है. चुनावों में महायुति का 235 सीटें लाना और महाविकास आघाड़ी का 49 सीटों पर सिमट जाना. न केवल तमाम दलों को, बल्कि पूरे देश को कुछ बड़े संकेत देता हुआ नजर आ रहा है.
जिक्र महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों का हुआ, ओवैसी और उनकी पार्टी की ख़राब परफॉरमेंस का हुआ तो ये बताना बहुत जरूरी हो जाता है कि महाराष्ट्र में ओवैसी ने 14 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे और रोचक ये कि उनमें से सिर्फ एक ही सीट ऐसी है जिस पर एआईएमआईएम उम्मीदवार जीत अपने नाम करने में कामयाब हुआ है.
बताते चलें कि मालेगांव सेंट्रल सीट से एआईएमआईएम के टिकट पर उतरे मुफ्ती मोहम्मद इस्माइल ही वो एकमात्र शख्स हैं जो महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों के अंतर्गत बहुत कम वोटों के मार्जिन से असदुद्दीन ओवैसी की इज्जत बचाने में कामयाब हुए हैं.
मुफ्ती मोहम्मद इस्माइल को 109653 वोट मिले. रोचक ये कि उन्होंने मात्र 162 वोटों के अंतर से महाराष्ट्र की इंडियन सेक्युलर लार्जेस्ट असेंबली पार्टी ऑफ़ महाराष्ट्र से उम्मीदवार आसिफ शेख रशीद को हराया. आसिफ शेख रशीद को 109491 वोट मिले.
मालेगांव सेंट्रल सीट इसलिए भी चर्चा में रही, क्योंकि इस सीट पर अधिकांश उम्मीदवार मुसलमान थे. जिनमें समाजवादी पार्टी के निहाल अहमद 9624 वोट के साथ तीसरे और कांग्रेस के इजाज बेग 7527 वोट हासिल कर चौथे स्थान पर रहे. इस सीट पर नोटा के पक्ष में 1089 वोट पड़े. सीट पर कई कैंडिडेट्स ऐसे भी थे जिन्हें नोटा से भी कम वोटों पर संतोष करना पड़ा.
जैसा कि हम ऊपर ही इस बात से अवगत करा चुके हैं कि महाराष्ट्र चुनावों ने ओवैसी की पूरी राजनीति को सवालों के घेरे में डाल दिया है. तो ये बात यूं ही नहीं है. इसे समझने के लिए हम औरंगाबाद पूर्व सीट का रुख कर सकते हैं. ओवैसी ने इस सीट से अपने एक अन्य 'फायरब्रांड नेता' समझे जाने वाले पूर्व सांसद इम्तियाज जलील को चुनावी रण में उतरने और लड़ने का मौका दिया था.
चुनाव पूर्व माना यही जा रहा था कि अपने उग्र तेवरों के लिए मशहूर इम्तियाज जलील इतिहास रचेंगे. मगर अब जबकि परिणाम हमारे सामने हैं. तो कहा यही जा सकता है कि जलील की दबंगई पर भाजपा का विकास भारी पड़ गया.
औरंगाबाद पूर्व सीट पर जलील को हार का मुंह देखना पड़ा है. बीजेपी के अतुल सावे ने जलील को महज 2161 वोटों से हराया. अतुल सावे को 93274 वोट मिले तो वहीं जलील को 91113 वोट मिले हैं.
जलील जैसा ही हाल कुछ भिवंडी वेस्ट सीट से एआईएमआईएम के एक अन्य कद्दावर नेता वारिस पठान का हुआ है. भले ही अब तक हमें टीवी डिबेट्स में वारिस पठान अन्य दलों के नेताओं की बोलती बंद कराते हुए नजर आए हों मगर जैसे नतीजे महाराष्ट्र में आए भिवंडी वेस्ट सीट से वारिस पठान हमें पांचवे पायदान पर दिखाई पड़ रहे हैं.
भिवंडी वेस्ट सीट पर वारिस पठान को 15800 वोट मिले हैं. जबकि यहां से जीत का स्वाद चखने वाले भाजपा के महेश प्रभाकर चौगुले 70172 वोट अपने नाम करने में कामयाब हुए हैं.
जिक्र अगर वोट परसेंट का हो,तो महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में एआईएमआईएम को कुल वोटों में मात्र 0.85% वोट मिलना स्वतः इस बात की पुष्टि कर देता है कि अब बांटने की राजनीति का वक़्त लद गया है. जनता वोट उसे ही देगी जो विकास की बात करेगा, जो देश के बारे में सोचेगा.
जैसा कि हम ऊपर ही इस बात को बता चुके हैं कि महाराष्ट्र में ओवैसी ने 14 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे. तो वारिस पठान और इम्तियाज जलील की तरह बाकी लोग भी असदुद्दीन ओवैसी के लिए बुझे हुए कारतूस साबित हुए हैं.
एआईएमआईएम उम्मीदवारों की ये हार इस बात के साफ़ संकेत दे रही है कि महाराष्ट्र से शुरू हुआ ये ट्रेंड हमें देश के अन्य हिस्सों में भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराता हुआ नजर आएगा.
बहरहाल, महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों से ओवैसी को एक सबक ये भी मिला है कि अब जैसा माहौल देश का है, सिर्फ मुस्लिम-मुस्लिम कर वोटों पर कब्ज़ा नहीं जमाया जा सकता. कह सकते हैं कि इस चुनाव ने ओवैसी को ये स्पष्ट संकेत दिए हैं कि अब उनके लिए वो वक़्त आ गया है जहां उन्हें अपनी रणनीति बदलनी होगी.
खैर, महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों के बाद ओवैसी और उनकी पार्टी का राजनीतिक भविष्य क्या होता है? इस सवाल का जवाब हमें वक़्त देगा. लेकिन जो वर्तमान है, उसने ओवैसी के मद्देनजर इतना तो जाहिर कर दिया है कि वो दौर गया जब तुष्टिकरण को आधार बनाकर राजनीति की जाती थी. अब वक़्त काम का है. पब्लिक वोट उसे या उस पार्टी को ही देगी जो हिंदू मुस्लिम छोड़कर काम करेगा और विकास को अंजाम देगा.
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