Book Review of Ab pahunchi ho Tum: कवि महेश चन्द्र पुनेठा की कविता संग्रह "अब पहुंची हो तुम" की कविताओं से गुजरते हुए मैंने महसूस किया कि इस संग्रह की ज्यादातर कविताओं में जीवन के विडंबनाओं का आख्यान है. जिसमें पहाड़ी पीड़ा है. जन-जमीन-जंगल-जीवन की तान है. जहां प्रकृति की उपस्थिति उम्मीद है. वे 'पहाड़ी गाँव' नामक कविता में लिखते हैं कि "पहाड़ी गांव/ यानी परदेश से लौटे अपनों की/ दो दिन की खुशी में/नाचता घर-आंगन.../ पहाड़ी गांव/ यानी बिछोह, मिलन, फिर बिछोह." इन पंक्तियों में पहाड़ी गांव के दुःख व दर्द को सूत्र रूप में कहने की सफल कोशिश है. अतः महेश चंद्र पुनेठा गहरे और विस्तृत जीवनानुभव के कवि हैं. वे श्रम के सौन्दर्य के सर्जक हैं. यानी श्रम-संस्कृति के कवि हैं.

पुनेठा जी (Poet Mahesh Chandra Punetha) की कविताएं वर्तमान सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था पर गहरी चोट करती हैं. उनकी कविताएं सत्ता के दोहरे चरित्र को चुनौती देने की चौकस आवाज हैं. वे अपनी एक छोटी सी कविता 'गांव में सड़क' में लिखते हैं कि "अब पहुंची हो सड़क तुम गांव / जब पूरा गांव शहर जा चुका है / सड़क मुस्काई/ सचमुच कितने भोले हो भाई/  पत्थर-लकड़ी और खटिया तो बची है न." ये उक्त पंक्तियां वर्तमान व्यवस्था की पोल खोल कर रख देती हैं. रोड की राजनीति को रेखांकित करती हुईं पूरी पूंजीवाद को प्रश्नों के घेरे में खड़ा कर देती हैं. सत्ता से सवाल करती हैं कि कैसे विकास के नाम पर उनके संसाधनों से खिलवाड़ करते हैं वे और विकास के नाम पर विनाश की ओर ठेल रहे हैं गंवई जीवन को. साथ ही विस्थापन की गहरी पीड़ा इसमें देखा जा सकता है. वे साधारण अनुभवों के तल में धंसी असाधारणता को आसानी से देख लेते हैं. वे वैश्विक गतिविधियों पर भी अपनी पैनी दृष्टि गड़ाये हुए हैं. लेकिन वे बार-बार अपने लोक में लौटते हैं. लोक में लौटना दरअसल श्रम के स्वाद का चखना है. शोक के स्वर को सुनना है. वे अपने लोक के विषय में कहते हैं कि 'मेरा क्या है/ कुछ भी तो नहीं/ सब कुछ/ तुम्हारा ही है/ मेरा तो केवल/ तुम हो.'

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कोरोनाकाल में सारी आस्थाएं ध्वस्त हुईं. ईश्वर के प्रति नश्वरता कविता की केंद्रीय तत्व बन गई थी. विपत्तियों की विडंबनाओं को रेखांकित करती हुई. उनकी एक कोरोजीवी कविता "प्रार्थना" है. जिसमें वे  कहते हैं कि "उसके कंठ से पहली प्रार्थना/ विपत्तियों से उसे/ बचा पायी हो या नहीं प्रार्थना/ पर विपत्तियों ने/ अवश्य बचा लिया प्रार्थना को." लॉक डाउन में मज़दूरों के पलायन के दुःख, दर्द व संवेदना को कोरोजयी कवियों के यहां देखना इतना आसान नहीं है. यदि आप सहृदय हैं तो फिर कोरोजीवी कविताएं आपको भीतर से झकझोर देंगी. दिल को चीर देने वाले दृश्य सामने पेश करेंगी. और उन्हें आपको देखना ही पड़ेगा. कोरोना की दूसरी लहर के दौरान गांवों, कस्बों, शहरों और महानगरों में मृत्यु का तांडव मचा हुआ था, नदियों में लाशें उतरा रही थीं. सड़क पर सन्नाटा छाया था. चारों ओर उदासी, वेदना, दुख और मृत्यु की चर्चा थी. भूख के भूगोल में भय जन्म ले रहा था. कवियों पर दर्द का दबाव था. ठीक उसी दौर में पुनेठा जी "लॉक डाउन में मजदूर" शीर्षक कविता रचते हैं. जिसमें कोरोना के कहर का स्वर है जो कि पाठक के सामने पुनः कोरो-दृश्य उपस्थित कर देता है. पुनः पाठक अपनी स्मृतियों में कोरो-दर्शन करता है. वे उसमें लिखते हैं कि 'वह भूख ही थी/ जो उन्हें घर से दूर ले गयी/ यह भूख ही है/ जो उन्हें घर लौटा लायी/ वे भूख के हाथों खेल रहे हैं/ भरे पेट इस खेल के बारे में/ केवल विमर्श किया जा सकता है."

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पुनेठा की कविताओं में सादगी है, सरलता है, साफगोई है. उनके कहन‌ में विविधता और दृष्टिसंपन्नता भी है. उनकी कविताएं सहजता में असहजता की बानगी हैं. यानी वैचारिकता की दृष्टि से समृद्ध हैं. उनकी कविताओं के कथ्य में सहजता का सौंदर्य  सदैव विराजमान है. जो कि सन्नाटे के खिलाफ समय की सरसराहट है और उसमें शब्दों की सनसनाहट शामिल है. इस संदर्भ में पुनेठा जी की 'मुर्दा-चुप्पी' नामक कविता की आगामी पंक्तियां याद आ रही हैं. जो कि "मुझे मालूम है कि/मेरे बोलने की सजा मृत्यु/ दंड भी हो सकती है/ लेकिन मैं चुप नहीं रहूँगा क्योंकि / मुझे यह भी मालूम है कि / मुर्दे बोलते नहीं हैं /मैं जीते जी मुर्दा नहीं बनना चाहता हूं ." उनकी कविताएं समसामयिक समस्याओं, जटिलताओं, संकीर्णताओं से मुक्ति की जद्दोजहद करती हुई संकल्प का विधान रचती हैं. संघर्ष की सड़क पर अनंत संभावनाओं के कवि हैं महेश चंद्र पुनेठा. 

(गोलेन्द्र पटेल कवि और आलोचना हैं. वह फिहलाल बीएचयू में अध्ययनरत हैं)

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book ab pahunchi ho tum written by Mahesh Chandra Punetha reviewed by Golendra Patel
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Book Review: श्रम के सौन्दर्य के सर्जक और श्रम संस्कृति के कवि हैं महेश चंद्र पु
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Book Review: श्रम के सौन्दर्य के सर्जक और श्रम संस्कृति के कवि हैं महेश चंद्र पुनेठा