- अपूर्व 

आज गहराई से महसूस होता है लोगों के पास हास्यबोध नहीं बचा है. फेसबुक पर किसी कटाक्ष, व्यंग्य या हास्य पंक्तियों पर जब तीखी प्रतिक्रिया देखता हूं तो पुराने दिनों के किस्से याद आते हैं. ख़ास तौर पर पुराने लेखक और साहित्यकारों के किस्से याद आते हैं. उस पीढ़ी के साहित्यकारों के पास बड़ा दिल ही नहीं था,पूरी ज़िंदादिली थी. उनकी हाज़िरजवाबी, कटाक्ष, व्यंग्य, मस्ती यहां तक की हुल्लड़ का भी जवाब नहीं.

कभी साहित्यकारों के मिलन स्थल दिल्ली टी हाउस की बातें, किस्से पत्र-पत्रिकों में छपते थे. याद करिए धर्मयुग पत्रिका का कॉलम 'कुछ तीर कुछ तुक्का'. कमलेश्वर लिखते हैं 'उन दिनों राजेंद्र यादव तालाबंदी की बीमारी से ग्रस्त थे. सुबह उठा तो राजेंद्र ने अपने कुछ एक ताले खोलकर ब्रश, पेस्ट निकाला. मैंने गायत्री को आवाज़ लगाई और एक छोटा ताला मंगवाकर राजेंद्र के ब्रश वाले छेद में लगवा दिया. राजेंद्र पहले तो किलकारी मारकर हंसा, फिर बोले- स्साला... राकेश (मोहन राकेश) भी खड़ा हंस रहा था.'' 

कथाकार बलवंत सिंह लिखते हैं कि वो अपने मित्र सुप्रसिद्ध लेखक राजेंद्र सिंह बेदी के घर रूके हुए हैं. बेदी का छोटा भाई अखबार पढ़ रहा है. श्रीमती बेदी रसोई में हैं-''ठीक इसी अवसर पर बेदी कच्छा पहने दूसरे कमरे से निकलता है और  मुझे दिखा-दिखा कर बिना उभरी मांसपेशियों को टटोलता है जैसे कोई व्यक्ति अंधेरे कमरे में उस काली बिल्ली की तलाश करे जो वास्तव में वहां न हो. हमारी नज़रें मिलती हैं तो दिल के तार बज उठते हैं. वो भेड़ की नक़ल करते हुए बड़ी लय के साथ 'बे' की आवाज़ निकालता है और मैं तुरंत उत्तर में 'दे' की ध्वनि उच्चारित करता हूं. दोनों ओर से ये आंदोलन ज़ोर पकड़ने लगता है... इसके बाद बेदी ढेंचू-ढेंचू की ध्वनि निकलने लगता है ओर  प्रत्युत्तर में मैं मुंह से बिल्लियां लड़ाने लगता हूं... इस पर एक कोलाहल मच जाता है ओर बच्चे, गृहणी हंसी से लोटपोट.

इसी तरह अश्क (उपेंद्र नाथ) बेदी (राजेंद्र सिंह) से दिल की बात करते करते अपने घर से बनियान अंगोछा पहने बेदी के घर तक आ पहुंचे. राजेंद्र सिंह बेदी लिखते हैं -'अश्क उस वक़्त भाटी का कोई ऐसा गुंडा लग रहा था, जिससे लाहौर की सब स्त्रियां डरती थीं ओर सामने से आते देखकर सड़क छोड़ कर एक ओर खड़ी हो जाती थीं... मैंने पहले अश्क की ओर हाथ बढ़ाया- 'उपेंद्र नाथ अश्क' और फिर पत्नी की ओर 'सतवंत' मेरी पत्नी'. 'छूटते ही अश्क ने मेरी पत्नी का नाम पुकारा... 'सतवंत, बुरा मत मानना मैं ऐसे ही चला आया हूं, अपनी बनियान ओर अंगोछे की ओर संकेत किया. बात ये है मैं ज़रा मलंग आदमी हूं.''

“मुझे अपने पैरों से घिन आती है.” मंटो ने कहा.
“क्यों? इतने खूबसूरत हैं.” इस्मत चुगताई ने बहस की.
“मंटो- मेरे पैर बिल्कुल जनाने हैं.”
“इस्मत चुगताई- मगर जनानियों  से तो इतनी दिलचस्पी है आपकी.”
“मंटो--आप तो उल्टी बहस करती हैं, मैं औरत को मर्द की हैसियत से प्यार करता हूं. इसका मतलब ये तो नहीं कि खुद औरत बन जाऊं.”

मंटो, इस्मत मुक़दमे के सिलसिले में दो बार बम्बई से लाहौर गए. इस्मत बताती हैं कि दोनों बार हम दोनों ने करनाल शॉप से अलग डिज़ाइनों के दस-दस बारह-बारह जोड़े सैंडिलों और जूतियों के ख़रीदे.
बम्बई में किसी ने इस्मत से पूछा- ‘‘लाहौर आप क्या मुक़दमे के सिलसिले में गए थे?’’ इस्मत ने जवाब दिया- ‘‘जी नहीं, जूते खरीदने गए थे.’’

ये किस्से, कहानियां, संस्मरणों में, आत्मकथाओं में दर्ज़ हैं.'ग़ालिब छुटी शराब' बच्चन जी की -कमलेश्वर की आत्मकथा की तीनों पुस्तकें ,इस्मत चुगतई की  कागज़ी हैं पैरहन, उग्र जी की 'अपनी खबर', राजेंद्र यादव की मुड़-मुड़ कर देखता हूं, भीष्म साहनी- आज के अतीत, याद हो कि न याद हो सहित काशीनाथ सिंह के तमाम संस्मरण, जैसी पुस्तकें सर्वाधिक पढ़ी गईं. 

apoorva

जोश मलीहाबादी की यादों की बरात के नए संस्करण आ चुके हैं. यादों की बरात का ही एक रोचक प्रसंग याद आया. एक बार ऐसा हुआ जोश मलीहाबादी शिमला गए हुए थे. जोश मलीहाबादी को पता चला नेहरूजी भी शिमला में हैं. उन्होंने फ़ोन किया सेक्रेटरी मुलाकात न करवा सकी. जोश मलीहाबादी ने अपने जोश के मुताबिक नेहरूजी को कड़ा पत्र लिखा. दूसरे दिन इंदिरा गांधी का फ़ोन आया आप आइये मेरे साथ चाय पीजिए. जोश ने कहा- ''बेटी वहां तुम्हारे बाप मौजूद होंगे, मैं उनसे मिलना नहीं चाहता.'' इंदिरा ने कहा-''मैं पिताजी को अपने कमरे में बुलाऊंगी ही नहीं.''
जोश जब पहुंचे तो पंडित नेहरू पीछे से जोश को पकड़कर सीधे अपने कमरे में ले गए और इसके बाद पंडित नेहरू जोश से जिस गर्मजोशी से मिले जोश नेहरूजी के गले लग कर रोने लगे.

जिन पुस्तकों में सबसे सुंदर, गुदगुदाने वाले संस्मरण हैं अब ऐसी ढेर सारी  पुस्तकें बाज़ार से गायब हैं.

मंटो की पुस्तकों का बाज़ार फिर से गर्म है. लिहाज़ा मंटो और इस्मत के किस्से हम पढ़ पा रहे पर अब भी इनकी आपबीती और कई खूबसूरत संस्मरणों वाली पुस्तकें नदारत हैं. सत्तर के दशक में उर्दू की बदनाम कहानियां आई थीं. इसमें उर्दू लेखकों के दिलचस्प प्रसंग दर्ज़ हैं पर बाजार से उपलब्ध नहीं है.

इसी तरह 'मंटो मेरा दुश्मन, ज़्यादा अपनी, कम पराई- अश्क ' जैसी पुस्तकें उपलब्ध नहीं हैं. उर्दू के (हिंदी में) बेहतरीन संस्मरण उपलब्ध नहीं है, कमलेश्वर की ही 'मेरा हमदम मेरा दोस्त उपलब्ध नहीं है... ऐसी एक लम्बी सूची है पर इन पुस्तकों का पुनर्प्रकाशन होना चाहिए. यहां मैंने सिर्फ दिलचस्प और गुदगुदाने वाली पुस्तकों का ही ज़िक्र किया. राहुल सांकृत्यायन की मेरी जीवन यात्रा जैसी ज्ञानवर्धक पुस्तकों की अलग श्रेणी है और वे भी बाजार से गायब होती जा रही हैं.

दोस्तों, अपने दिल ही नहीं दिमाग के दरवाज़े खोलिए. अपने अंदर के 'सेंस ऑफ ह्यूमर' को मरने मत दीजिए.हर दिन नया भूचाल लाने वाली राजनीति के इस दौर में राजनीतिक ही नहीं ज़िंदादिल लोगों की आत्मकथाएं और उनके रोचक अनुभव और संस्मरण भी पढ़िए.

अपूर्व साहित्य में दिलचस्पी रखते हैं. यह पोस्ट यहां उनकी फेसबुक वॉल से साभार प्रकाशित की जा रही है.

(यहां प्रकाशित विचार लेखक के नितांत निजी विचार हैं. यह आवश्यक नहीं कि डीएनए हिन्दी इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे और आपत्ति के लिए केवल लेखक ज़िम्मेदार है.)

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बाज़ार से ज़िंदादिल 'किताबें' गायब हैं  
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