डीएनए हिंदी: त्रैमासिक पत्रिका 'सामाजिकी' का पहला व्याख्यान बीते दिनों इंडिया इंटरनेशनल सेंटर के एनेक्सी हॉल में सम्पन्न हुआ. यह पत्रिका भारतीय समाज में हो रहे परिवर्तनों पर गंभीर दृष्टि देती है. दरअसल यह पत्रिका हिंदी भाषा में शोध आलेख, साक्षात्कार और पुस्तक समीक्षाएं छापती है. प्रयागराज के गोविन्द बल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान और दिल्ली के राजकमल प्रकाशन की साझा पहल है 'सामाजिकी'.
कार्यक्रम के शुरू में संपादक प्रो. बद्री नारायण ने सामाजिकी पत्रिका के बारे में श्रोताओं को संक्षिप्त जानकारी दी. इसके बाद प्रो. फ्रेंचेस्का ओर्सिनी ने 'साहित्य के इतिहास की प्रासंगिकता : क्यों और कैसे?' विषय पर केंद्रित वक्तव्य दिया. उन्होंने कहा, "हर भाषा की एक शक्ति होती है. हमें अपनी भाषा की शक्ति का अहसास होना जरूरी है. हम देखते हैं कि हिंदी की उर्दू के साथ एक ऐतिहासिक प्रतिस्पर्धा रही है. लेकिन हमें यह समझने की जरूरत है कि एक भाषा के बढ़ने का मतलब दूसरी भाषा का खत्म होना नहीं होता."
उन्होंने कहा कि कोई भी प्रामाणिक इतिहास ठोस दस्तावेज के आधार पर लिखा जाता है. ये ठोस आधार शिलालेख, सिक्के आदि भी हो सकते हैं. इसी तरह साहित्य के इतिहास का पता हमें उस समय के साहित्य को बारीकी से देखने-परखने पर पता चलता है. साहित्य का इतिहास विमर्श का हिस्सा क्यों नहीं बन पाया - इस विषय पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने इसमें आनेवाली अड़चनों को उजागर किया. उन्होंने कहा कि हमें अपनी बात रखने के लिए दूसरे को उखाड़ने की जरूरत नहीं है.
प्रथम सामाजिकी व्याख्यान कार्यक्रम की अध्यक्षता दिल्ली विश्वविद्यालय से सेवानिवृत्त प्रो. सुभद्रा मित्र-चानना ने की. कार्यक्रम का संचालन डॉ. अमित सुमन ने किया. इस दौरान 'सामाजिकी' पत्रिका के चौथे अंक का विमोचन किया गया. कार्यक्रम के अंत में सामाजिकी पत्रिका की सह-संपादक डॉ. अर्चना सिंह ने धन्यवाद ज्ञापन किया.
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एक भाषा के बढ़ने का मतलब दूसरी भाषा का खत्म होना नहीं होता