डीएनए हिंदी : यह तथ्य है जिससे हम आंख चुरा नहीं सकते कि आज ही के दिन महात्मा गांधी की हत्या हुई थी. इस हत्या के बाद हम सबने गांधी के विचारों की हत्या लगातार की है - यह वह सच है जिससे हम आंख मिलाना नहीं चाहते.
हत्या के बाद गांधी इस देश के नेताओं की जुबान पर रहे. कुछ ने उनके नाम को मीठी गोली की तरह चुभलाया, जिससे उनकी राजनीति सधती रही. तो कुछ वैचारिकी ने उनको कुनैन की गोली की तरह अपने मुंह में रखा, जिससे उनका मर्ज छुपता रहा.
बच गए होते गांधी तो...
एक कल्पना करें. नाथूराम गोडसे की चलाई गोली लगने के बाद भी गांधी बच जाते तो उनकी प्रतिक्रिया क्या होती. क्या वे अपने लिए सुरक्षा की मांग करते? गोडसे को कड़ी से कड़ी सजा देने की गुहार अदालत से लगाते? मुझे लगता है कि महात्मा गांधी ऐसा कुछ नहीं करते. बल्कि वह गोडसे को माफ कर देते. वह उसे समझाने की कोशिश करते कि वह जिसे राष्ट्रभक्ति समझ रहा है, दरअसल वह न असली राष्ट्र है, न सच्ची भक्ति. वह उसे देश का मतलब समझाते, उसे भक्ति की बारीकी में ले जाने की कोशिश करते.
क्यों याद करें गांधी को
इनसब के बाद भी यह सवाल बना रहता है कि आज हम गांधी को क्यों याद करें? उन्हें राष्ट्रपिता क्यों मानें? गांधी जब थे, तब थे. आज उनकी प्रासंगिकता क्या है? सच है कि धार्मिक पहचान और हिंसा के इस के इस दौर में गांधी आज और ज्यादा प्रासंगिक हो जाते हैं. उनके सत्य और अहिंसा की याद ज्यादा आती है. यह भी ध्यान जाता है कि एक खास तरह की वैचारिकी इस देश में गांधी का नाम लेते हुए, उनके अहिंसा की आड़ में बड़ी तेजी से हिंसक हो रही है.
दिल में बसे गांधी
ऐसे हिंसक दौर में गांधी को याद करते हुए कई ऐसे प्रसंग जेहन में बरबस चले आते हैं, जब यह दिखता है कि गांधी इस देश की हर वैचारिकी की मजबूरी हैं. यह वैचारिकी जानती है कि गांधी को नजरअंदाज कर इस देश में राजनीति नहीं की जा सकती. उसे पता है कि कैलेंडरों से वह गांधी को भले उतार दे, पर इस देश के लोगों के दिलों से नहीं निकाल सकती.
धार्मिक गांधी
असल सवाल यह है कि इस देश में वह कौन सी वैचारिकी है जो गांधी का विरोध करती है. यह वही वैचारिकी है जिसने गोडसे को पैदा किया, जहां से साध्वी प्रज्ञा आईं. यह वही वैचारिकी है जो धर्म का नाम लेकर सांप्रदायिकता को पोसती है. जो भारत-माता की जड़ मूर्ति बनाती है और राष्ट्रवाद को सांप्रदायिक पहचान के आधार पर बांटती है. यहां पर यह बात दुहराए जाने की है कि गांधी धार्मिक थे. लेकिन वे धर्म के कर्मकांड की अवहेलना करते हुए उसका मर्म खोज लाते थे. उनके इस मर्म से एक ऐसी राजनीति सधती थी जो एक नया देश और नया समाज बना सकती थी.
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डरी हुई सांप्रदायिकता
हमें यह समझना होगा कि गांधी की इस धार्मिकता से न परंपरावादी मुस्लिम घबराते थे, न परंपरावादी हिंदू. यह सांप्रदायिक हिंदुत्व था, जिसकी शिकायत थी कि गांधी मुसलमानों के प्रति बहुत उदार हैं और पाकिस्तान के साथ ममत्व भरा बरताव कर रहे हैं. यही वह वैचारिकी है जो बार-बार साध्वी प्रज्ञा जैसे लोगों को उकसाती है.
गांधी को क्यों कहें राष्ट्रपिता
इस विचारधारा के साथ पलते और इसके आसपास फटकते कई गांधी विरोधी यह सवाल समय-समय पर पूछते पाए जाते हैं कि महात्मा गांधी को हम राष्ट्रपिता क्यों कहें? उनका स्थूल तर्क होता है कि भारत गांधी के पैदा होने के सदियों पहले से एक देश रहा है. उसे किसी बापू ने जन्म नहीं दिया. यह तर्क अपने आप में सही लगता है, लेकिन है सतही. याद करें कि गांधी को किसने राष्ट्रपिता या बापू का दर्जा दिया? किसने उन्हें महात्मा का संबोधन दिया? क्या गांधी ने अपने लिए यह दर्जा मांगा था? दरअसल गांधी के विरोधी माने जाने वाले सुभाष चंद्र बोस ने गांधी को पहली बार राष्ट्रपिता कहा था - यह 1944 की बात थी. तब जर्मनी में बैठे सुभाषचंद्र बोस को क्यों लगा कि महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता कहा जाना चाहिए? क्योंकि सुभाष चंद्र बोस यह देख पा रहे थे कि पुराने राग-द्वेषों, पुरानी चौहद्दियों, पुरानी रियासतों और पुराने रजवाड़ों को पीछे छोड़कर, परंपरा की बहुत सारी जकड़नों को झटक कर आजादी की लड़ाई की कोख से जो एक नया भारत निकल रहा है, उसे दरअसल महात्मा गांधी आकार दे रहे हैं. सुभाष चंद्र बोस ने गांधी के विचारों और उनकी पैठ को देखते हुए ही कहा था कि अगर वे आवाज देंगे तो बीस हजार लोग सुनेंगे, गांधी आवाज देंगे तो बीस लाख लोग सुनेंगे.
मार्मिक घटना
गांधी की हत्या यह याद दिलाने वाली मार्मिक घटना थी कि नए बनते देश ने अपना पिता खो दिया. 30 जनवरी 1948 की रात न जाने कितने घरों में चूल्हा नहीं जला था. गांधी की हत्या के शोक में लोगों के आंसू नहीं थम रहे थे. ऐसा शोक, ऐसा रुदन सिर्फ पिता की मृत्यु पर मुमकिन है. पिता वही नहीं होते जो हमें जन्म देने का माध्यम बनते हैं, वे भी होते हैं जिन्हें हम पिता मान लेते हैं.
जड़ व्याख्या
लेकिन जो विचारधारा रिश्तों और मुल्कों को बिल्कुल जड़ व्याख्या और मूर्ति तक बांध कर रखती है, उसकी समझ में यह बात नहीं आती कि कोई व्यक्ति किसी मुल्क का पिता कैसे हो सकता है. वह यह नहीं समझ पाती कि मुल्क जितना भूगोल में होता है, उतना हमारी चेतना में भी बनता रहता है. मुल्क को जो लोग धर्म के आधार पर बांट कर देखना चाहते हैं या पाना चाहते हैं, उन्हें यह खूब पता है कि धर्म के भीतर लोगों को झूठी तसल्ली देने की क्षमता होती है. पर यह हमें समझना होगा कि धर्म की यह क्षमता पूंजीवाद को काफी रास आती है. जाहिर है, ईश्वर के साथ लेनदेन की प्रवृत्ति अंततः धर्म के ठेकेदारों को ही फायदा पहुंचाती है. यह अनायास नहीं है कि जैसे-जैसे लोगों के पास संपत्ति बढ़ती जाती है, उनकी धर्मभीरुता भी बढ़ती जाती है.
हमसब गांधी के हत्यारे
लेकिन इन सबके बाद भी यह सवाल भीतर से उठता है कि आखिर गांधी के हत्यारे को देशभक्त बताने पर हायतौबा करने का नैतिक अधिकार हमारे पास है? गांधी के नाम पर जो विलाप हम कर रहे हैं, दरअसल वह हास्यास्पद है. अगर हम गांधी के रास्ते पर चले होते तो शायद यह नौबत ही नहीं आती. यह बात अब स्वीकार करनी पड़ती है कि गांधी के गुनहगार दोनों हैं - उनको मानने वाले भी और उनको मारने वाले भी. बल्कि सच तो यह है कि गांधी को मानने का दावा करने वालों का गुनाह कहीं ज्यादा बड़ा है. उन्होंने गांधी को नीयत और नीति से हटाने का काम बरसों बेहद चुपचाप किया. फर्क बस इतना है कि मानने वालों ने दस्ताने पहन कर गांधी को मारा, जबकि विरोधी वैचारिकी ने दस्ताने उतारकर.
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बिड़ला भवन बनाम राजघाट
एनसीईआरटी के प्रमुख रहे शिक्षाशास्त्री कृष्ण कुमार की एक किताब है - ‘शांति का समर’. इसमें वह पूछते हैं - राजघाट ही हमारे लिए गांधी की स्मृति का राष्ट्रीय प्रतीक क्यों है, वह बिड़ला भवन क्यों नहीं है जहां महात्मा गांधी ने अपने आखिरी दिन गुजारे और जहां एक सिरफिरे की गोली ने उनकी जान ले ली? जब बाहर से कोई आता है तो उसे राजघाट क्यों ले जाया जाता है, बिड़ला भवन क्यों नहीं? अपनी किताब में इस सवाल का जवाब भी वे देते हैं. उनके मुताबिक आधुनिक भारत में राजघाट शांति का ऐसा प्रतीक है जो हमारे लिए अतीत से किसी मुठभेड़ का जरिया नहीं बनता, जबकि बिड़ला भवन हमें अपनी आजादी की लड़ाई के उस इतिहास से आंख मिलाने को मजबूर करता है जिसमें गांधी की हत्या भी शामिल है - यह प्रश्न भी शामिल है कि आखिर गांधी की हत्या क्यों हुई?
हत्या की बड़ी वजह
गांधी की हत्या की एक बड़ी वजह है - धर्म का नाम लेने वाली वह सांप्रदायिकता, जो उनसे डरती थी. राष्ट्रभक्ति की जड़ मूर्ति बनाने वाली, राष्ट्र को सांप्रदायिक पहचान के आधार पर बांटने वाली विचारधारा उनसे परेशान रहती थी. गोडसे ऐसी ही वैचारिकी की कुंठा का प्रतीक पुरुष था जिसने धर्मनिरपेक्ष नेहरू या सांप्रदायिक जिन्ना को नहीं, धार्मिक गांधी को गोली मारी.
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