डीएनए हिंदी: व्हीलचेयर पर चलती हैं वे, लेकिन उनकी कहानियां अपने कथ्य के पहिए पर सरपट दौड़ती हैं. उत्सव के किसी भी मौके पर उनका उत्साह देखते बनता है. बल्कि वे बताती हैं कि उनके लिए हर दिन एक उत्सव है. विकलांगता भले ही कुछ लोगों के लिए अभिशाप बनती हो, मगर कंचन सिंह चौहान रोज इस विकलांगता से मुठभेड़ करती हैं और उसे अपने दम पर पराजित कर आगे बढ़ती हैं. खास बात यह भी है कि उनकी इस जीत को हम जैसे लोग जब महिमामंडित करते हैं, ऐसे वक्त में भी उनका चेहरा, उनकी अभिव्यक्ति बिल्कुल सहज रहती है, जैसे यह विकलांग देह उनके लिए सहज स्थिति है.
कथाकार कंचन सिंह चौहान मानती हैं कि शारीरिक कमी को, विकलांगता को दिव्यांग कहने और लिखने का सुझाव अटपटा है. बल्कि अटपटा ही नहीं, उपहास उड़ाने जैसा है. देह की किसी कमी को सहज रूप से देखे जाने की जरूरत है. न उसे हेय दृष्टि से देखे जाने की जरूरत है और न ही सहानुभूति जताने वाले भाव से.
तुम्हारी लंगी
कंचन सिंह चौहान ने अपने रचना संसार और रचना प्रक्रिया पर विस्तार से बातचीत की. उन्होंने बताया कि लिखना उनके लिए क्यों जरूरी है. बता दें कि कुछ साल पहले राजपाल प्रकाशन से उनका कहानी संग्रह 'तुम्हारी लंगी' आ चुका है. वे बताती हैं कि 2011 में उनकी पहली कहानी छपी थी. इसके बाद उन्होंने कई कहानियां लिखीं जो अलग-अलग पत्र-पत्रिकाओं में छपती रहीं. ऐसी ही 9 कहानियों का संग्रह 2019 में 'तुम्हारी लंगी' नाम से आया.
उपन्यास पर जारी है काम
वे बताती हैं कि फिलहाल वे एक उपन्यास पर काम कर रही हैं. लगभग 60 प्रतिशत लिख चुकी हैं. बस उसी को पूरा करने की कोशिश में लगी हैं. उन्होंने बताया कि एक दौर था जब वे गीत और गजलें लिखा करती थीं. मंचीय कवि के रूप में उनकी पहचान बनी थी. लेकिन गजल लिखते वक्त उन्हें लगता था कि बातें पूरी नहीं आ पा रहीं. और तब पूरी बात रखने के लिए मैंने कहानी विधा में खुद को आजमाया.
बहुत अपनी-सी लगी कुब्जा
मेरी कहानियां लंबी हुआ करती थीं. मेरे पास कहने के लिए बहुत होता था. और ऐसे भी मुझे लगता है कि मैं बातों को छोटा करके नहीं रख पाती. मैं बहुत लंबी-लंबी बातें किया करती हूं. जैसे, मेरी एक कहानी है 'तुम्हारी लंगी'. इस कहानी का मेरे पास जो प्लॉट था वो था कृष्ण की एक प्रेमिका कुब्जा. कुब्जा को मैं बहुत पहले से जानती थी, पर किसी रोज कोई ऐसी घटना हुई जिसके बाद मैंने कुब्जा को फिर से और विस्तार से पढ़ा. और जब पढ़ा तो वह पात्र मुझे बहुत अपना सा लगा. कुब्जा को मैंने देखा कि एक विकलांग स्त्री है, जो उपेक्षिता भी है. लेकिन उसे किसी के प्रेम ने बहुत आत्मविश्वासी बना दिया. इतना आत्मविश्वासी कि उस समय ईश्वर कहे जाने वाले व्यक्ति को भी बढ़कर प्रणय निवेदन करने की हिम्मत आ गई. और यह पूछे जाने पर कि तुम क्या चाहती हो उसके भीतर ठुकरा देने की भी हिम्मत आ गई.
ऐसे बना उपन्यास लिखने का इरादा
जब मैं यह कहानी लिखने लगी तो मुझे लगा कि इस कहानी में तो उपन्यास के तत्त्व हैं. लेकिन उस वक्त कहानी पूरी करनी थी तो पूरी कर दी. लेकिन उसी समय तय कर लिया था कि कुब्जा पर मैं एक उपन्यास लिखूंगी. क्योंकि समय बीत जाता है, युग बीत जाता है पर जो उपेक्षित होता है, उसकी स्थितियां नहीं बदलतीं.
उपन्यास लेखन में मेरा ये संकट
वर्किंग लेडी होने के कारण मेरा ये संकट है कि सुबह जो ख्याल रखती हूं, वो रात तक याद नहीं रह जाता है. वो दिन भर के काम के बीच एबॉर्ड हो जाता है, गुम हो जाता है. उपन्यास लेखन में मेरे साथ ये दिक्कत हो रही है कि एक दिन कुछ लिखा फिर दो दिन तक किसी और काम में व्यस्त हो गई. फिर जब तीसरे दिन लिखने बैठूं तो पहले हिस्से को पढ़कर फिर उस मनःस्थित में, उन पात्रों में प्रवेश करना थोड़ा मुश्किल हो जाता है. शुरू में तो ठीक था कि 20-25 पन्ने थे तो उन पन्नों को पढ़कर कुब्जा और अन्य पात्रों के साथ आसानी से हो लेती थी, लेकिन ज्यादा पन्ने और ज्यादा पात्र हो जाने के बाद उन्हें फिर से पढ़ना और फिर उन स्थितियों में खुद को तुरंत ढाल लेना संभव नहीं हो पाता है. लेकिन मैं जानती हूं कि इस संकट से निकलकर अंततः मैं इसे साध लूंगी.
ख्याल नोट कर लेती हूं
मैं यह भी करती हूं कि उपन्यास और उसके पात्रों को लेकर जो ख्याल, जो विचार, जो स्थितियां जेहन में आती हैं, उन्हें नोट कर लेती हूं. दो-चार दिन के अंतराल पर ऐसे ख्याल आते ही रहते हैं जो मेरे पास नोट होते रहते हैं. बाद में इन अलग-अलग नोट्स के बीच में कई गैप दिखते हैं. तो इन गैप को भरना चुनौती वाला काम होता है.
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दिव्यांग कहना अजीब है
जब मैंने पहली बार यह शब्द सुना तो लगा कि चलो ठीक है किसी ने कह दिया तो नजरअंदाज करो. लेकिन यह ठीक वैसे ही हुआ जैसे किसी ने रात में पहरेदारी करने वाले का मजाक उड़ाते हुए कभी कह दिया कि तुम तो बहादुर हो, उसके बाद रात का हर पहरेदार 'बहादुर' कहलाने लगा. इसी तरह बाद में जब मैंने देखा कि यह तो हर तरह की विलांगता को दिव्यांग में बदल दिया गया तो अजीब लगा. यह वैसे ही है जैसे नेत्रहीनों को हम सूरदास कहने लगें. अब जरा सोचिए कि जिन लोगों ने अपने समर्थ बच्चों का नाम 'दिव्यांग' रखा होगा, उन पर क्या बीतती होगी.
समावेशी भाव हो तो बात बने
किसी दलित को हरिजन कह देने से, किसी महिला को वीरांगना कह देने से किसी विकलांग को दिव्यांग कह देने से बात बनने वाली नहीं है. होना तो यह चाहिए कि यह सब कहने के बजाए ये भाव आपके मन में हों. विकलांग हो, दलित हो या महिला हो - इन सबके प्रति आपके मन में समावेशी भाव हो तभी कोई सार्थक बात बनेगी. वर्ना आप कुछ भी कह लें, उससे किसी स्थिति में, किसी की हालत में कोई परिवर्तन नहीं होगा.
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लिखना मेरी मजबूरी
मैंने लिखना इसलिए शुरू किया कि मैं लिखे बिना नहीं रह सकती. दरअसल, हर बच्चे में अथाह ऊर्जा होती है, उन्हें भागना होता है, दौड़ना होता है. ऐसी ऊर्जा मेरे भीतर भी रही होगी. लेकिन वो समय मुझे बैठकर बिताना था. उस समय जो मैं करना चाहती थी, नहीं कर पा रही थी. नतीजतन मैं एक काल्पनिक दुनिया में चली गई. शुरुआती दौर में स्कूल में एडमिशन नहीं हुआ मेरा. लेकिन छुटपन में अक्सर मैं अपनी मां से कहा करती थी कि आज मेरी वो सहेली आनेवाली है. उसके साथ स्कूल जाना है. आज उसका जन्मदिन है तो मुझे भी कलर ड्रेस पहनना है... वगैरह... वगैरह... यहीं से मेरे भीतर एक काल्पनिक दुनिया बनने लगी और यहीं से मेरी कहानी भी शुरू हो गई. यानी मेरे अंदर जो भड़ास था, उसे निकालने के लिए मैं लिखने लगी. अगर मैं नहीं लिखती तो शायद मैं 'हाइपोथिटिकल' जीवन जीने लगती. मैं लिखने लगी तो मेरे भीतर का सारा गंदा पानी निकलता गया.
बदसूरती से ही निकली है खूबसूरती
कथाकार कंचन सिंह चौहान कहती हैं दुनिया की जितनी सुंदर चीजें हैं, वो गंदगी से ही निकली हैं. जितना ज्यादा गोबर (खाद) डालेंगे उतनी बेहतर पैदावार होगी. कहते हैं कि गांव में जहां मनुष्यों का मल ज्यादा रहा है, उस खेत की उपज ज्यादा रही है. इसे बच्चे के पैदा होने की पूरी प्रक्रिया से भी जोड़कर देख सकते हैं. कहने का मतलब कि जितनी ज्यादा बदसूरत चीजें होंगी उससे उतनी ही खूबसूरत चीजें निकलेंगी. साहित्य रचना में भी इसे देखा जा सकता है. पीड़ा में लिखा गया साहित्य दुनिया के श्रेष्ठ साहित्य में अपनी जगह बनाता है.
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देह विकलांग हो तो जरूरी नहीं कि सोच भी हो विकलांग, समझाती हैं कंचन सिंह चौहान