डीएनए हिंदी : विनीता परमार अपने लेखन के बल पर अपनी पहचान बनाती जा रही हैं. अब तक उनके दो कविता संग्रह और एक कहानी संग्रह पाठकों के बीच आ चुके हैं. कविता संग्रह हैं 'दूब से मरहम' और 'गरदन हिलाती मछलियां'. वैसे कई कवियों के साझा संग्रह 'खनक आखर की' में भी इनकी कुछ कविताएं शामिल हैं. बीते साल रुद्रादित्य प्रकाशन से इनका कहानी संग्रह 'तलछट की बेटियां' आया है.
बाघों की स्थिति को लेकर हाल में वाणी प्रकाशन से एक किताब आई है 'बाघ : विरासत और सरोकार'. इस किताब के लेखकद्वय में समीर कुमार सिन्हा और विनीता परमार के नाम हैं. इन सब के अलावा रोजी-रोटी के लिए विनीता परमार केंद्रीय विद्यालय पतरातू (झारखंड) में बतौर विज्ञान शिक्षक कार्यरत हैं. तो कवि, लेखक, कथाकार और शिक्षक विनीता परमार से फोन पर कई बातें हुईं. एक कवि, एक कथाकार, एक लेखक और एक शिक्षक की परतें खुलती गईं और अंत में एक ऐसे शख्स से हमारी बात होती रही जो मनुष्यता से लबरेज है. तो सबसे पहले मिलते हैं उस शिक्षक से जो विद्यार्थियों के लिए बेहद सख्त है, बिल्कुल अनुशासन प्रिय. लेकिन अकेले में अक्सर इस शख्स के सामने उसका शिक्षक रूप बेहद कातर हो जाता है, कभी-कभी तो बेहद शर्मिंदा और आत्मग्लानि से भरा हुआ. यह शिक्षक रोज अपने विद्यार्थियों से कुछ न कुछ सीखती है. इस शिक्षक से मुलाकात के साथ-साथ होगी उस रचनाकार से भी मुलाकात जो प्रकृति को लेकर बेहद संजिदा है. आइए मिलते हैं विनीता परमार के अलग-अलग रूपों से.
सवाल : लेखन के क्षेत्र में आप कैसे आईं?
जवाब : मन की बेचैनी, अंदर के उद्गार को व्यक्त करने के लिए कोई जगह चाहिए थी. लिखने से बेहतर प्लेस मुझे कोई दिखाई नहीं दिया. बाहरी अनुभव और उससे पैदा हो रहे मनोभावों को रखने करने के लिए मुझे लेखन के अलावा कोई रास्ता सूझा नहीं.
सवाल : घर-परिवार का माहौल साहित्य वाला रहा?
जवाब : साहित्य वाला तो नहीं, पर पढ़ने-लिखने वाला रहा. मेरे पिताजी बिहार सरकार के कृषि विभाग के छोटे कर्मचारी रहे और मां शिक्षिका. मेरी स्कूलिंग इंदिरा गांधी बालिका विद्यालय हजारीबाग से हुई है. तो हजारीबाग में हॉस्टल में रहने के दौरान हर तरह की लड़कियों से हर तरह के परिवेश से हमारा परिचय हुआ. वह दौर अविभाजित बिहार का था. तो कह सकते हैं कि अब के झारखंड और तब के अविभाजित बिहार को देखने, सुनने और समझने का अवसर मिला. तो उस समय जो भाव मन में भरे थे, उन्हें मैं कलम में उतारने लगी.
सवाल : पेशे से आप हैं शिक्षक. लेकिन आपकी कविताओं में और कहानियों में प्रकृति के प्रति ज्यादा रुझान दिखता है. यह कैसे?
जवाब : हां, यह सही है कि शिक्षिका हूं तो इस भूमिका में मुझे कहीं न कहीं कठोर होना पड़ता है. और यह भी सही है कि यह भूमिका में ढंग से निभाती हूं. दूसरी तरफ मैंने पर्यावरण विज्ञा में एमएससी किया है. उसके बाद पीएचडी की. उसी समय मैंने एक ऑर्गनाइजेशन ज्वॉइन किया था जिसका नाम है 'तरु मित्र'. यह संस्था लगभग 1800 स्कूलों में काम करती है. उस समय एमएससी था, नया खून था, नया जोश था. तो बच्चों के साथ वहां प्रकृति, जंगल, हवा, पानी के लिए काम करने लगी. और इसके बाद मैं इस काम से जुड़ती चली गई. शुरू में तो मैं अर्निंग के लिहाज से गई, पर काम करते हुए लगा कि सचमुच जंगल, पानी और हवा के लिए काम करने की जरूरत है.
सवाल : तो आप कविताएं भी लिखती हैं...
जवाब : हां, मैं कविताएं भी लिखती हूं और कविताओं से ही मैंने लिखने की शुरुआत की है.
सवाल : अभी आपने बताया कि शिक्षक के रूप में आपको सख्त होना पड़ता है और दूसरी तरफ आप कवि भी हैं जो बहुत कोमल मन होता है. ऐसे में किसी एकांत में आपका कवि मन आपके शिक्षक रूप को कभी कोसता भी है?
जवाब : हां, जरूर कोसता है. और कुछ दिन पहले जब मुझे 'हइलो इफेक्ट' (halo effect) के बारे में पता चला तो लगा कि सचमुच कई बार हम विद्यार्थियों को जज कर लेते हैं. बाहर से ही देखकर कि अगर ये पढ़ाई में अच्छा है तो हर कुछ में अच्छा होगा, या ये किसी चीज में बुरा है तो वह हर चीज में बुरा ही होगा. ऐसे हइलो इफेक्ट से कई बार गुजरी हूं. पिछले साल मार्च की ही बात है, ग्यारहवीं के रिजल्ट आने वाले थे. उसी समय पूजा नाम की एक बच्ची की मौत हो गई. इसे मैंने आठवीं और नौंवी में पढ़ाया था. वह बहुत गरीब परिवार की बच्ची थी. तो जब इस बच्ची की मौत की सूचना मुझ तक पहुंची तो मैं बहुत बेचैन हो गई. पिछले साल यूथ पार्लियामेंट के लिए वह बच्ची मेरे पास आई थी. और कहीं न कहीं मैंने उसके बाहरी अपियरेंस को देखकर उसे यूथ पार्लियामेंट में नहीं रखा. बाद में ग्यारहवीं के रिजल्ट में उसका दूसरा स्थान था. मुझे बार-बार यही लगा कि मैंने उस बच्ची के साथ अन्याय किया. जब कभी ऐसी बातें याद आती हैं तो मेरी आंख में आंसू आ जाते हैं, यह अलग बात है कि बच्चों के सामने नहीं ये आंसू अकेले में आते हैं. कई बार लगता है कि हम बच्चों के साथ सही व्यवहार नहीं कर पाते, जबकि बच्चे हमारे लिए बहुत कुछ करते हैं.
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सवाल : तो क्या ऐसा लगता है कि बच्चों के बीच रहते हुए बहुत कुछ सीखने को मिलता है? वे बच्चे भी हमें सिखाते हैं...
जवाब : रोज सिखाते हैं, रोज. मुझे तो लगता है कि बच्चे हम सबसे बेहतर होते हैं. जीना तो इन बच्चों के बीच रहके ही हमने सीखा है. ये कोई बनावटी बात नहीं कह रही. बिल्कुल सच कह रही हूं, इन बच्चों के बीच रहते हुए ही हम सीख पाते हैं कि कैसे सामंजस्य बनाया जाए, कैसे खुश रहा जाए - ये सारी बातें बच्चों से सीख सकते हैं हम और बहुत आसानी से सीख सकते हैं.
सवाल : चूंकि आप कथाकार भी हैं तो क्या ये बच्चे आपकी कहानियों के पात्र बने हैं?
जवाब : हां, हां, हां. पुरवाई के एक अंक में मेरे कहानी आई थी 'रोल नंबर 22'. उस कहानी के पात्र यही बच्चे हैं.
सवाल : और कविताओं में?
जवाब : हां, कविताओं में मैंने इन बच्चों की समस्याएं उठाई हैं, असमय बड़े हो रहे बच्चों पर लिखा है, छिन रहा बचपन मेरी कई कविताओं की चिंता में हैं. मशीनी होते जा रहे बचपन पर भी लिखा है. लेकिन यह सच है कि इन बच्चों पर अभी बहुत कुछ लिखा जाना मेरी ओर से बाकी है.
सवाल : बाल रचनाएं लिखने के बारे में क्या सोचती हैं?
जवाब : कोरोना के वक्त जब कक्षाएं ऑनलाइन कर दी गई थीं, तब इस तरह की कुछ कोशिश मैंने की थी. चूंकि मैं विज्ञान पढ़ाती हूं और मुझे प्रकाश संश्लेषण जैसे कई शुष्क अध्याय भी पढ़ाने होते हैं. ऑनलाइन क्लास के दौरान बच्चों को ऊबने से बचाना और उन्हें क्लास में कन्संट्रेट कराना बहुत बड़ी चुनौती भी थी, तो उस समय मैंने इन अध्यायों को लेकर कुछ कविताएं लिखी थीं, बच्चों ने उसे खूब पसंद किया था. क्लास सेवेन के लगभग हर चेप्टर को मैंने कविता में समझाने की कोशिश की. अब आप मेरी कमी समझिए या जो भी, लेकिन यह सही है कि उसके बाद मैं इस काम को आगे नहीं बढ़ा सकी.
सवाल : पर्यावरण को लेकर भी अभी आपकी कोई किताब आई है...
जवाब : पर्यावरण को लेकर सीधे तो नहीं, लेकिन हां, बाघों की स्थिति को लेकर एक किताब आई है जिसे मैंने अपने सीनियर समीर कुमार सिन्हा के साथ लिखा. देखिए बाघ जंगल का एक अनिवार्य जीव है जिसकी संख्या बड़ी तेजी से घटी है. बाघों को लेकर हमने पर्यावरण को भी समझने और समझाने की कोशिश की है.
सवाल : गिद्ध खत्म होते जा रहे हैं, मधुमक्खियां खत्म होती जा रही हैं, बाघ खत्म होते जा रहे हैं, तो इनके खत्म होते जाने को पर्यावरणविद विनीता परमार किस रूप में देखती हैं?
जवाब : मधुमक्खियों के कम होते जाने से परागण की क्रिया पर बुरा असर पड़ा है. इसी परागण की क्रिया से प्राकृतिक रूप से फूड प्रोडक्शन होता है. नतीजा है कि हमारी आवश्यकता तो बढ़ रही है लगातार, लेकिन सहज रूप से होने वाला फूड प्रोडक्शन कम होता जा रहा है. और अगर इसी रफ्तार से मधुमक्खियां खत्म होती गईं तो विशेषज्ञों का मानना है कि हमारा जीवन महज 12 साल बचा रह गया है. यानी मधुमक्खियां खत्म हुईं तो समझिए कि इनसान का जीवन खत्म हो जाएगा.
सवाल : तो आपने अपने इस अनुभव और ज्ञान का इस्तेमाल अपने साहित्य में कहां किया?
जवाब : मैंने कई कहानियों में अपने इन अनुभवों का इस्तेमाल किया है. एक सच यह भी है कि कहानियों में विज्ञान को लाने में दिक्कत तो होती है. फिर भी मेरी चार-पांच कहानियों में ये मुद्दे हैं. लेकिन हां, इन मुद्दों पर मैं लगातार लेख लिख रही हूं, जो अलग-अलग पत्र-पत्रिकाओं में भी जगह पा रहे हैं. स्थानीय पर्यावरणीय मुद्दों पर भी लगातार शोध कर रही हूं और लिख रही हूं.
सवाल : मुझे लगता है कि लेख शुष्क हुआ करते हैं जबकि कहानियां और कविताएं रोचक. तो क्या प्रकृति से जुड़ी इन बातों को फिर से कहानी या कविता में ढालने की कोई योजना है?
जवाब : हां, कोशिश तो है. मुझे जब कोई समस्या बहुत ज्यादा हिट करती है, जब प्रभावित करती है, तो उसे कहानी में ढालने की कोशिश की है और कर भी रही हूं. अभी हाल ही में साहित्य की मासिक पत्रिका पाखी मेरी एक कहानी प्रकाशित हुई है 'ट्रांसलोकेट @ 82 सेंटीमीटर'. इस कहानी की थीम है कि फ्लाईओवर हो या सड़कें या दूसरे तरह के निर्माण कार्य, सरकार इसे करने के लिए पेड़ों की कटाई कर रही है. और एनजीटी के दबाव से बचने के लिए इसे ट्रांसलोकेट करने का उपक्रम कर रही है. ट्रांसलोकेट यानी किसी पेड़ को एक जगह से उखाड़ कर दूसरी जगह शिफ्ट कर देना. पर यह शिफ्टिंग का काम दरअसल हो नहीं रहा. यह सब पैसों के बंदरबांट का खेल हो गया है.
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सवाल : आप कविताएं भी लिखती रहीं और कहानियां भी, आपको इन दोनों में क्या लिखना ज्यादा सहज लगता है?
जवाब : कविता लेखन तो स्पॉन्टेनियस होता है, यह ज्यादा सुखद होता है. लेकिन कहानी लेखन में आप अपनी बहुत सारी बात एक साथ कह पाते हैं. कई सारे लेयर एक साथ खोल पाते हैं. मैं चेष्टा करती हूं कि हर चीज के मनोविज्ञान को पकड़ूं. कविताओं में मनोविज्ञान को रख पाना मेरे लिए इतना सहज नहीं हो पाता.
सवाल : आपका अगला संग्रह कविताओं का होगा या कहानियों का?
जवाब : लेखों का संग्रह होगा. मैं इन दिनों झारखंड की नदियों के साथ कला-संस्कृति पर शोध कर रही. पिछले दिनों इन शोध निष्कर्षों के कई आलेख स्थानीय दैनिक में प्रकाशित भी हुए.
सवाल : झारखंड की पहचान उसके जंगल, पहाड़, झरनों और नदियों से है. यानी प्रकृति का सुहावन रूप झारखंड की पहचान है. आपके शोध में अब तक क्या बात सामने आईं, कितनी नदियां थीं, कितनी खत्म हो गई या कितनी नदियों की धार मंद पड़ी है?
जवाब : देखिए, झारखंड में 12 नदी बेसिन है. नदी का अपना पूरा भूगोल है. एक-एक बेसिन से कई नदियां गुजरती हैं, कितनी नदियां गुजरती थी, इन सब के साथ-साथ कौन सी सभ्यताएं बहकर झारखंड में पहुंची या झारखंड से बहकर कौन सी संस्कृतियां कहां पहुंचीं- इन सभी बातों को लेखों के संग्रह में रखने की कोशिश करूंगी और मुझे लगता है कि इसमें मुझे कामयाबी मिलेगी. ये सारे शोध मैं और मेरे मित्र हैं कुशाग्र राजेंद्र वो कर रहे हैं.
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कथाकार विनीता परमार को है किस बात का दुख, किस बात की ग्लानि, जानिए पूरी कहानी