डीएनए हिंदी : कहानियों के मुकाबले लघुकथाएं आकार में भले छोटी होती हैं, पर असर में नहीं. बल्कि हिंदी साहित्य में बीती सदी का आखिरी दशक लघुकथाओं के लिहाज से बहुत उर्वर रहा है. इस दौर में लघुकथाएं खूब लिखी गईं और पाठकों के बीच खूब लोकप्रिय भी हुईं. इसी तरह अंग्रेजी साहित्य में चले Six Word Story की तर्ज पर कुछ बरस पहले हिंदी में भी छह शब्दों में कहानी लिखने का चलन सोशल मीडिया पर दिखा. 
रेडियो के शॉर्ट वेब और मीडियम वेब तरंगों की तरह ही कविता, कहानी, उपन्यास... और साहित्येतर विधाओं की अपनी-अपनी रेंज होती है. कई बार ऐसा लगता है कि इस भागती-दौड़ती जिंदगी में साहित्य में नए पाठकों को जोड़ने का काम लघुकथाएं कर सकती हैं. इस लिहाज से भी हिंदी साहित्यकारों को लघुकथाओं ध्यान देने की जरूरत है. अभी हाल ही में सत्या शर्मा 'कीर्ति' की लघुकथाओं का संग्रह 'वक़्त कहाँ लौट पाता है' श्वेतवर्णा प्रकाशन से छपकर आया है. 128 पन्ने के इस संग्रह में कुल 66 लघुकथाएं हैं. इससे पहले सत्या का कवि रूप पाठकों के सामने आया था. संग्रह का नाम था 'तीस पार की नदियाँ'.

रक्षक करती है पुरुषों की परख

सत्या शर्मा की ये लघुकथाएं अपने समय के समाज की शिनाख्त करती हैं. इन लघुकथाओं में सत्या की निगाह धर्म, समाज, राजनीति, अनीति, अनाचार, अपराध, शिक्षा, मनुष्यता, प्रेम, प्रकृति और समलैंगिकता जैसे तमाम मुद्दों पर है. इस संग्रह की कई कहानियां अलग-अलग जगहों से पुरस्कृत भी हुई हैं. 'रक्षक' इस संग्रह की बेहतर कहानियों में से एक है, जिसके बारे में सत्या का दावा है कि यह कहानी कुछ लोगों ने लेखक की इजाजत के बिना अपने-अपने नाम से अलग-अलग जगहों पर प्रकाशित कर रखी है. यह बात बार-बार सामने आती रही है और इस सच से हम मुंह चुरा नहीं सकते कि स्त्रियों की निगाह में पुरुषों का चरित्र वाकई संदिग्ध है. महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराध इस बात के साक्षी हैं कि स्त्री के प्रति इस समाज के पुरुषों का रवैया बेहद बुरा रहा है. आज की स्थिति यह है कि पुरुषों के बीच घिरी स्त्री कई तरह से आशंकित रहती है और इन आशंकाओं ने स्त्री को अतिसतर्क कर दिया है. लेकिन 'रक्षक' कहानी यह बात बहुत करीने से रखती है कि हर पुरुष संदिग्ध नहीं हो सकता या हर पुरुष बुरा नहीं होता. कहा जा सकता है कि रक्षक कहानी पुरुषों की मनुष्यता की कहानी है. 

इसे भी पढ़ें : Book Review: 'स्त्रियोचित' की नई परिभाषा गढ़ती अनुराधा सिंह की कविताएं

नकाब उतारती कथा

'प्रोफ़ाइल पिक' और 'एक ख़ुशी ऐसी भी' जैसी लघुकथाएं इस दिखावटी समाज की पोल खोलती हैं. हालांकि यह इत्तफाक है कि इन दोनों कहानियों के पात्र स्त्री हैं, जबकि समाज में ऐसे पुरुष पात्रों की भी कमी नहीं जो दूसरों के दुख से सुखी होती हैं या दिखावे के लिए दूसरों के दुख में शरीक होते हैं. यानी समाज में कई लोग ऐसे हैं जिन्होंने अपने चेहरे पर एक नकली चेहरा लगा रखा है और इसी नकली चेहरे के सहारे वे अपनी छवि गढ़ने में जुटे रहते हैं. जबकि उनका असली चेहरा मनुष्यता के पैमाने पर शर्मनाक है.

अपराध कथा

'भेड़िया', 'फटी चुन्नी', 'अपनी-अपनी भूख' और 'आईने के पीछे का सच' इस संग्रह की वे लघुकथाएं हैं जो बलात्कार और यौन उत्पीड़न जैसे मुद्दे पर लिखी गई है. इन चार लघुकथाओं में दो ऐसी हैं जिनमें शिकार पुरुष हुआ है. एक कहानी ऐसी है जिसमें उत्पीड़न करने वाली महिला है. इस तरह अगर देखें तो समझ में यह बात आती है कि यौन अपराध की मानसिकता स्त्री-पुरुष नहीं देखती और यह मानसिकता भी किसी भी शख्स में हो सकती है. बलात्कारियों और उत्पीड़कों की पहचान चेहरे, शरीर या कपड़ों से नहीं की जा सकती. और ऐसे लोग अक्सर आसान शिकार (सॉफ्ट टारगेट) तलाशते हैं.

बदलते ट्रेंड की शिनाख्त

लेकिन इसी संग्रह की दो कहानियां बताती हैं कि वक्त बदल रहा है, जिन स्त्री या बच्चों को अपराधी 'सॉफ्ट टारगेट' समझते हैं, वे 'सॉफ्ट टारगेट' भी यौन उत्पीड़न के खिलाफ अब मोर्चा लेने लगे हैं. यानी इस संग्रह की लघुकथाएं यह भरोसा दिलाती हैं कि स्त्रियां बदल रही हैं, उनमें जागरूकता आ रही है. वे समझने लगी हैं कि स्त्री को बेइज्जत करने के हथियार के रूप में पुरुष यौन हमला करता है और अब स्त्रियां इन हमलों का मुंहतोड़ जवाब दे रही हैं, वे कमर कस रही हैं. इस संग्रह की लघुकथा है 'भेड़िया'. इसमें एक बच्चे का यौन उत्पीड़न उसका रिश्तेदार करता है, तब पीड़ित की मां उस बच्चे को लेकर पुलिस स्टेशन जाती है. इसी तरह की दूसरी लघुकथा है 'पंख', इसमें कॉरपोरेट जगत में चर्चित शिखा नाम की स्त्री से बलात्कार होता है, लेकिन इस यौन हमले से शिखा डरती नहीं, बल्कि प्रेस कॉन्फ्रेंस करती है और बताती है कि वह ऐसे हमलों से घबराने वाली नहीं. जिस वर्चस्व को, जिस गुरुर को, जिस स्वाभिमान को, जिस वजूद को 'औकात' दिखाने के लिए उसके बलात्कार किया, ऐसे अपराध से उसका हौसला टूटने वाला नहीं. बल्कि वह और तेजी से अपनी उड़ान भरेगी.

पौराणिक संदर्भों का आधुनिक आख्यान

पौराणिक संदर्भों, चरित्रों और पात्रों को लेकर भी इस संग्रह में कई लघुकथाएं हैं. इनमें 'युग परिवर्तन', 'कृष्ण की गीता और मैं (बोध-कथा)' और 'रक्तबीज' हैं. रक्तबीज स्त्री के बदलते रूप की कथा है. यह कथा बतलाती है कि स्त्रियां अब अपने साथ हो रहे अन्याय के खिलाफ बिगुल फूंकने को तैयार है. शोषण और शासन उन्हें कतई मंजूर नहीं. तोहमतें अब उनका कुछ बिगाड़ नहीं सकतीं. 'रक्तबीज' कथा में पृथ्वी की प्रतीक है भूमिजा, जिसकी बेटी व्यथित है दूसरों के आरोपों से. लेकिन भूमिजा कहती है कि अब अपने निष्कलंक होने का प्रमाण किसी को देने की जरूरत नहीं. वह अपनी बेटी से कहती है कि अब न मैं फटूंगी न तुम्हें खुद में छुपाऊंगी. वह अपनी बेटी को सुझाव देती है संघर्ष का रास्ता अख्तियार करने की और कहती है कि अब तुम खुद को मजबूत बनाओ.

इसे भी पढ़ें : स्त्री के अंतर्मन को समझने की नई दृष्टि देता है साझा कविता संग्रह 'प्रतिरोध का स्त्री-स्वर'

थर्ड जेंडर से कैसा डर

लेखक सत्या शर्मा की निगाह में थर्ड जेंडर वाले भी हैं और समलैंगिकों का समाज भी. इस बाबत इस संग्रह में उनकी दो लघुकथाएं हैं - 'अर्धनारीश्वर' और 'कोई अपना सा'. दोनों कथाओं में लेखक इस समाज के साथ खड़ी दिखती हैं. बल्कि समलैंगिक शादी को लेकर लिखी गई कथा अर्धनारीश्वर में उन्होंने प्रकृति और पुरुष के संवाद में प्रकृति को समझाने का जतन किया है और इसी तरह दूसरी कथा कोई अपना सा में उन्होंने थर्ड जेंडर को अपनाते एक शख्स को दिखाया है. हालांकि उनकी यह प्रगतिशील सोच कई कहानियों में परंपरागत भी दिखी है.

समानांतर कथाएं

लघुकथाओं की एक खूबी यह भी होती है कि वह पाठक के भीतर अपने समानांतर एक दूसरी कहानी भी चला रही होती है. सत्या शर्मा की कई कथाओं में यह खूबी दिखी. 'अनकहा सा' ऐसी ही कथा है जिसमें चाय बेचने वाली एक बूढ़ी महिला की यादें हैं. वह याद कर रही है कि इस पहाड़ी इलाकों में ही उसका बचपन बीता, जवानी बीती और अब बुढ़ापा भी बीत रहा है. ताउम्र वह अकेली रही है. पाठक के मन में इस लघुकथा को पढ़ते हुए दूसरी कहानी तब शुरू होती है जब पता चलता है कि यह बूढ़ी महिला अपने बचपन में अपने घर से भागकर यहां पहुंची थी. जाहिर है कि एक बच्ची का इस तरह से भागना और उसके बाद भी 'भेड़िया'वाले इस समाज में सुरक्षित रह जाना कई तरह के ख्याल पैदा करता है. ये सारे ख्याल कहानी की तरह पाठकों के भीतर घूमने लगते हैं. इसी तरह की दूसरी कहानी है 'आत्मसम्मान'. इस कहानी में पूजा नाम की एक शिक्षक हैं जो किसी स्कूल में पढ़ाती हैं. स्कूल में पढ़ाने के अलावा वह रवि नाम के एक बच्चे को ट्यूशन भी पढ़ाती हैं. एग्जाम करीब आनेवाले हैं और रवि के पिता पूजा को उनके जन्मदिन के मौके पर कोई तोहफा देना चाहते हैं. पूजा इस तोहफे से इनकार कर देती हैं. वह कहती हैं 'देखिये मि. प्रकाश ट्यूशन लेना मेरी आर्थिक ज़रूरत है।' पूजा के इस संवाद के साथ ही ध्यान जाता है कि आज के स्कूल बच्चों से मनमानी फीस तो वसूलते हैं, लेकिन अपने शिक्षकों को इतनी सैलरी नहीं देते कि उनकी जरूरतें पूरी हो जाएं. अपनी जरूरतें पूरी करने के लिए शिक्षक ट्यूशन या दूसरी जॉब भी साथ-साथ करते हैं. और यहीं से शुरू होता है शिक्षा का पतन. 

अकेलेपन का जिम्मेवार कौन

इस संग्रह की कई कथाएं पारिवारिक परिवेश को लेकर भी हैं. कुछ कथाओं में ऐसा परिवेश है, जहां वृद्ध की इज्जत नहीं है. कुछ कथाएं अकेलेपन की भी हैं. 'व्यापार यादों का', 'सपनों का घर', 'मूक साथी', 'यादें जो ज़िंदा रहती हैं', 'कसक', 'मेरा ख़त तुम्हारे नाम', 'संवेदना' और 'मुक्ति' कुछ ऐसी ही कथाएं हैं. इन कथाओं से गुजरते हुए आप घर में स्त्री/पुरुष का अकेलापन साफ तौर से महसूस कर पाएंगे. मुक्ति जैसी कुछ कहानियों में मां की उपेक्षा का दंश आपको परेशान करेगा. इस संग्रह की अंतिम कहानी है 'अधूरा सा'. इस कहानी में एक अकेली मां है जिसके दोनों बच्चे विदेश में बस गए हैं. मां स्वेच्छा से अपने देश में रह गई है. लेकिन यहां अकेले रहते हुए वो जिन मानसिक स्थितियों से गुजरती हैं, अकेलेपन में गुजरते उनके दिन उन्हें काटने को किस कदर दौड़ते हैं और इस अकेलेपन का हश्र क्या होता है - इसे पढ़ते हुए कई बार तो उनके बच्चों के खिलाफ मन में गुस्सा उभरता है, लेकिन अगले पल ही इस संग्रह की कथा 'कसक' याद आ गई, जिसमें ऐसी ही स्थिति की चर्चा है. पिता गांव में अकेला है और बेटा शहर में. बेटे को तकलीफ है कि उसका पिता उसके साथ नहीं रहता. गांव के लोग ताना मारते हैं कि बेटा अपने बाप को साथ नहीं रखता. लेकिन कहानी से गुजरते हुए यह बात बिल्कुल साफ हो जाती है कि हमेशा संतान ही गलत नहीं होती. इन सबके अलावा इस संग्रह में कई कहानियां ऐसी हैं जो स्त्री का पारंपरिक चरित्र सामने रखती हैं.

इसे भी पढ़ें : Book Review: स्त्री के सपने, संघर्ष और सवालों की परतें खोलता है कविता संग्रह 'पैबंद की हँसी'

सोशल साइट्स के साइड इफेक्ट

सोशल नेटवर्किंग साइट्स के साइड इफेक्ट्स घर, परिवार और समाज पर दिखते हैं. ये असर सत्या की निगाह से अनदेखे नहीं रहे हैं. इस संग्रह की कई कहानियों में इस रूप को आप देख सकते हैं. 'प्रोफाइल पिक', 'दौड़', 'आभासी भय', 'नया संग्रह' और 'मृगतृष्णा' ऐसी ही कथाएं हैं. मृगतृष्णा कहानी की पात्र मनोरोग का शिकार हो जाती हैं. फेसबुक के जाल में इस तरह उलझती हैं कि उनका संबंध वास्तविक दुनिया से कट जाता है. उनके लिए आभासी दुनिया ही सबकुछ हो जाता है. उनका मनोरोग जब बढ़ता है तो उन्हें मेंटल हॉस्पिटल में भर्ती करना पड़ जाता है.

रेखांकित करने लायक कथाएं

'लड्डू से मीठे रिश्ते', 'काश' और 'वक्त' इस संग्रह की बेहतर कथाओं में गिने जाने लायक हैं. लड्डू से मीठे रिश्ते कहानी के पात्र हामिद के जरिए अनजाने में धर्म की दीवार टूटती नजर आती है. यह भी ध्यान जाता है कि विधवाएं हमारे समाज में किस हाल में रह रही हैं. क्यों मथुरा और वृंदावन जैसी जगहों पर विधवा आश्रम बनाने की दरकार लोगों को पड़ीं. काश कहानी में एक पिता की विवशता है. इस पिता का नाम प्रमोद है. दिसंबरी ठंड में मॉल के बाहर उसे सांता की पोशाक पहनकर बच्चों के बीच टॉफियां बांटने का काम मिला है. पूरा दिन हंसते-खेलते कैसे गुजर गया प्रमोद को यह पता ही नहीं चला. खिलखिलाते बच्चों के साथ प्रमोद भी दिन भर हंसता रहा. लेकिन शाम को सांता का लिबास उतारने के बाद प्रमोद उदास हो जाता है क्योंकि उसे याद आता है कि उसकी बेटी फिर उससे लाल साइकिल की डिमांड करेगी, जिसे वो पूरा नहीं कर पाएगा. वक्त कहानी एक चोर की कहानी है, जो पहले फुटपाथ पर दुकान लगाता था. लेकिन अतिक्रमण हटाओ अभियान ने उसे बेरोजगार बना दिया. लेकिन जब कई दिनों बाद भूख ने अंतड़ियां ऐठीं तो उसने चोरी करने का जुर्म किया. यह कहानी सोचने को बाध्य करती है कि किसका अतिक्रमण - भूख का विवेक पर, मजबूरी का ईमानदारी पर या कानून का मनुष्यता पर?

बुनावट में कमजोर कथाएं

'मोजे', 'हामिद और राहुल' और 'अवांछित' अपनी बुनावट में इस संग्रह की कमजोर लघुकथाएं हैं. मोजे कहानी में एक गरीब और मासूम बच्ची के सुनहरे ख्वाब हैं. इस कहानी में पूस की सर्द सुबह एक महिला अपने मोजे तलाश रही है, जो उसने सोते समय उतारकर अपने सिरहाने रखे थे. लेकिन मोजे मिले नहीं तो उसने बच्ची को नींद से जगाकर पूछा कि उसने मोजे देखे हैं? तब बच्ची ने डरते-डरते बताया कि उसे उसने अमरूद के पेड़ पर टांग दिया है. दरअसल, इस बच्ची को साहेब के बच्चों ने बताया था कि रात में उन्होंने अपने मोजे टांगे थे तो सांता ने आकर बहुत सारी टॉफी और खिलौने दिए थे. बस इसी बात ने बच्ची के मन में जगह बना ली और उसने अपनी मां के मोजे अमरूद पेड़ पर टांग दिए और मन ही मन चाहा कि मां के फटे पांव की दवा, गर्म शॉल और उसके कोर्स की किताबें सांता दे दे. इस कहानी में यह सवाल स्वाभाविक रूप से उठता है कि जब पूस की रात मां सोने जा रही है, तो बच्ची उस ठंड भरी रात में अमरूद के पेड़ तक कैसे चली गई और अंधेरे में मोजे कैसे टांग आई? इसी तरह अवांछित कहानी में यह आश्चर्यजनक लगता है कि सर्वधर्म मीटिंग के लिए लोग क्या श्मशान की जगह तलाश करेंगे? हामिद और राहुल कहानी अगर दो पैरा पहले खत्म कर दी जाती तो कहानी ज्यादा बड़ा अर्थ दे सकती थी, लेकिन उसे जिस तरह से खत्म किया गया है, वह हामिद के नायकत्व को नकारने की कोशिश जैसी लगती है.

इसे भी पढ़ें : DNA Exclusive: लेखक उदय प्रकाश से खास बातचीत, कहा- हमारा संकट AI नहीं, NI है

गहराई का उथलापन

इस संग्रह की सबसे कमजोर लघुकथा है 'गहराई'. इस कहानी के शुरुआती हिस्से से पता चलता है कि कैंसर से पीड़ित 26 साल की सुमी की मौत हो गई. पर कथा के बीच में ही पता चल जाता है कि यह मौत नहीं, बल्कि हत्या है. सुमी के पति सुमित ने अपनी दीदी को बताया कि रात में उसने नींद की ढेर सारी गोलियां पानी में घोलकर सुमी को पिला दी थीं. यह अपराध उसने सिर्फ इसलिए किया कि वह सुमी को दर्द झेलता नहीं देख सकता था और डॉक्टरों ने उसे चंद दिन का मेहमान बताया था. लेखक ने सुमित के इस कृत्य को प्रेम की गहराई के रूप में देखा है और इसकी तुलना राधा और कृष्ण के प्रेम से की है. किसी भी हाल में ऐसी भावुकता को प्रेम नहीं कहा जा सकता जो अपराध के मुकाम पर आदमी को पहुंचा दे. फर्ज करें कि सुमी कैंसर से पीड़ित न होकर किसी बलात्कारी का शिकार हुई होती तो क्या सुमी से गहरे प्यार करने वाले सुमित को उस बलात्कारी की हत्या की इजाजत दी जा सकती है? जाहिर है, अपराध का महिमामंडन करने वाला कोई भी लेखन स्वीकृत नहीं किया जा सकता. लेकिन इसी टिप्पणी में लघुकथा की एक खूबी की चर्चा करते हुए लिखा कि लघुकथाएं अपने समानांतर एक अन्य कहानी भी चला रही होती हैं, इस लिहाज से देखें तो ध्यान जाता है कि यह 'इच्छा मृत्यु' को कानूनन स्वीकृति देने, न देने के मुद्दे पर दबाव बनाने की कोई कोशिश तो नहीं. अगर लेखक की यह मंशा है तो दबाव बनाने के इस तरीके को स्वीकार नहीं किया जा सकता.

प्रकाशक की कारगुजारी

इस संग्रह की प्रिंटिंग क्वॉलिटी अच्छी है, स्केचेज खूबसूरत हैं, कवर भी रचनात्मक है. लेकिन इस संग्रह के शुरू से अंत तक प्रूफिंग की इतनी चूकें हैं कि पढ़ने का मजा किरकिरा हो जाता है. लघुकथाओं के साथ लगे स्केच पैबंद की तरह नजर आते हैं. यानी सांकेतिक होते हुए भी कथा के साथ उनका तालमेल नहीं बन पाता. यह समझ में आ जाता है कि ये स्केच कथाओं के आधार पर नहीं बनवाए गए हैं. इस संग्रह की एक लघुकथा है 'दौड़'. इसमें साहित्य के गिरते स्तर पर प्रहार किया गया है. लेकिन इस प्रहार के दौरान व्यंग्य शब्द 'व्यंग' छपा है (पेज 72). और तो और इस संग्रह में शामिल जिस कहानी के नाम को संग्रह का नाम 'वक़्त कहाँ लौट पाता है' दिया गया है, वह नाम ही कहानी में हिज्जे का शिकार हो गया है (पेज 69).

समाज की नब्ज पर निगाह

लेकिन इन कमियों के बावजूद संग्रह पढ़ने लायक है. अधिकतर कहानियां इसकी रोचक हैं और अपने समय और समाज की नब्ज पकड़ती हैं. इस बदलते हुए परिवेश में हाशिए पर ठेली जा रही मनुष्यता, प्रकृति के बेहिसाब दोहन, समाज की संकीर्ण मानसिकता पर नजर रखते हुए कथाएं लिखी गई हैं. इनमें से कई लघुकथाओं में इतने विस्तार की संभावना है कि वे सशक्त कहानी के रूप में बन सकती हैं. सत्या को उनके पहले गद्य संग्रह के लिए बधाई.

देश-दुनिया की ताज़ा खबरों Latest News पर अलग नज़रिया, अब हिंदी में Hindi News पढ़ने के लिए फ़ॉलो करें डीएनए हिंदी को गूगलफ़ेसबुकट्विटर और इंस्टाग्राम पर.

Url Title
Book Review Vaqt kahan laut pata hai a collection of short stories written by Satya Sharma Kirti
Short Title
Book Review:विसंगतियों की नब्ज टटोलती लघुकथाओं का संग्रह- वक़्त कहाँ लौट पाता है
Article Type
Language
Hindi
Section Hindi
Created by
Updated by
Published by
Page views
1
Embargo
Off
Image
Image
सत्या शर्मा 'कीर्ति' की लघुकथाओं का संग्रह 'वक़्त कहाँ लौट पाता है'.
Caption

सत्या शर्मा 'कीर्ति' की लघुकथाओं का संग्रह 'वक़्त कहाँ लौट पाता है'.

Date updated
Date published
Home Title

Book Review:विसंगतियों की नब्ज टटोलती लघुकथाओं का संग्रह- वक़्त कहाँ लौट पाता है

Word Count
2786