डीएनए हिंदी : किसी भी विधा में लिखी गई कोई भी रचना अपनी संप्रेषणीयता की वजह से याद रह जाती है. संप्रेषण की यह कसौटी कविता, कहानी और उपन्यास से लेकर लेखों, आलोचनाओं तक पर लागू होती है. इसी गुण के कारण लेख और आलोचनाएं बौद्धिक विमर्श पैदा करते हैं, सामयिक दृष्टि देते हैं. विमर्श न भी पैदा करें तो सोचने-समझने का एक छोर तो जरूर पकड़ा देते हैं. हालांकि किसी कविता-कहानी के कालजयी हो जाने की वजहें कई होती हैं, सिर्फ संप्रेषणीयता नहीं.
कविता, कहानी और उपन्यास में भाषा, अभिव्यक्ति का प्रांजल होना अनिवार्य होता है. कहन में तार्किकता होती है. चरित्र विश्वसनीय लगते हैं. बहरहाल, बात कविताओं की करें तो उसके भी पाठक वर्ग अलग-अलग होते हैं. जिस पाठक को कोई कविता बिल्कुल अपने आसपास की, बिल्कुल अपनी लगती है वह उसकी तारीफ करेगा. यही वह बिंदु है जहां कवि और पाठक एक हो जाते हैं.
परतों में ढकी कविताएं
कहानियां अपने पहले पाठ से जितनी खुली हुई होती हैं, कविताएं उतनी ही परतों में ढकी होती हैं, वे धीरे-धीरे खुलती हैं. यह भी एक वजह है कि कई बार कवि की कविता बिल्कुल अलग आकार में पाठकों के भीतर बनती हैं. यानी कविता पढ़ता हुआ पाठक नए सिरे से उस कविता को अपने भीतर गढ़ता है. जब ऐसा होता है तो इसे कवि की कामयाबी के रूप में दर्ज किया जाना चाहिए. कवि अपने अनुभवों से अर्जित दृष्टि जब कविताओं में पैबस्त करता है, तो उसे इस तरह संकेतित करता है कि वह एकसाथ कई दिशाओं की ओर फैले. यानी पाठक जिस रास्ते भी कविता में प्रवेश करे, उसे वह रास्ता अपना लगे और वह अपने रास्ते पर अपने तरीके से चलता हुआ, अंतत: कवि की दृष्टि तक पहुंचे. अनुराधा सिंह का रचना शिल्प भी ऐसा ही है. कविताओं में वे बहुत धीरे-धीरे खुलती हैं. इस खुलने के कई रास्ते हैं, पर आखिरकार पाठक उसी विचार बिंदु पर, उसी दृष्टि तक पहुंचता है, जो कवि का ध्येय है. इस लिहाज से देखें तो अनुराधा सिंह की कविताओं में उनकी दृष्टि कविता के अंदर बहुत गहराई में बैठकर पाठकों को अपने तक लाने के कई रास्ते खोल रखती है. जैसे टार्च के बल्ब से निकलकर बाहर तक फैली हुई कोई रोशनी हो, जिसमें आप किसी ओर से चलना शुरू करें आखिरकार टॉर्च के बल्ब के पास ही पहुंचेंगे जहां रोशनी का उत्स है.
कुल 105 कविताएं
बता दूं कि अनुराधा सिंह की कविताओं पर यह राय उनके ताजा संग्रह 'उत्सव का पुष्प नहीं हूं' को पढ़ते हुए बनी है. यह कविता संग्रह वाणी प्रकाशन से छपकर आया है. विषय सूची के मुताबिक, इस संग्रह में कुल 68 कविताएं हैं. संग्रह की अंतिम कविता के रूप में 'कवि का गद्य' है. लेकिन इस शीर्षक के तहत कुल 38 गद्य कविताएं हैं. तो इस तरह 152 पृष्ठों में कुल 105 कविताएं मौजूद हैं. इससे पहले अनुराधा सिंह की कविताओं का संग्रह 'ईश्वर नहीं नींद चाहिए' भारतीय ज्ञानपीठ से 2019 की जनवरी में छपकर आया था. इनके अलावा दो गद्य संग्रह हैं - 'ल्हासा का लहू' और 'बचा रहे स्पर्श'.
अस्तित्व का संघर्ष
अनुराधा सिंह के इस संग्रह की शुरुआती कई कविताएं स्त्री के अस्तित्व की तलाश करती दिखती हैं. बल्कि कहना चाहिए 'तलाश करती नहीं', उसके अस्तित्व को स्थापित करने का संघर्ष करती कविताएं हैं. क्योंकि स्त्री और उसके अस्तित्व को लेकर अनुराधा की दृष्टि बिल्कुल साफ है. अनुराधा की कविताओं में स्त्री कोई देवी नहीं, बल्कि हाड़-मांस के साथ धड़कता हुआ दिल है, जिससे चूकें भी होंगी, गलतियां भी होंगी. इन गलतियों और चूकों से वह सीखती भी रहेगी, खुद को मांजती भी रहेगी. जरूरत पड़ने पर वह राजनीति भी कर सकती है, साजिशें भी कर सकती है, संघर्ष भी कर सकती है और बेखयाली के साथ कहीं भी गहरी नींद ले सकती है.
वेटिंग रूम में सोती स्त्री
इस संग्रह की पहली कविता पढ़ते हुए अनुराधा के इससे पहले वाले संग्रह की याद बरबस आती है. पहले संग्रह का नाम है 'ईश्वर नहीं नींद चाहिए' और इस नए वाले संग्रह की पहली कविता का शीर्षक है 'वेटिंग रूम में सोती स्त्री'. पहला संग्रह मैंने नहीं पढ़ा है, लेकिन 'ईश्वर नहीं नींद चाहिए' शीर्षक पढ़ते ही मन में सवाल उठता है कि जिस ईश्वर को पाने के लिए सदियों से यह समाज भटक रहा है, जिसकी सत्ता स्थापित करने के नाम पर केंद्र में बैठी मौजूद सत्ता अपना अस्तित्व बनाए रखने में कामयाब है, आखिर उस ईश्वर के बनिस्बत इस कवि को, इस कवि की स्त्री को नींद इतनी प्यारी, इतनी आत्मीय क्यों है? जाहिर है, इस मर्दवादी समाज ने स्त्रियों को चैन की नींद कभी सोने नहीं दिया. अपनी महत्त्वकांक्षाएं तुष्ट करने के लिए हमेशा स्त्री को खदेड़ता रहा, लांछित करता रहा, अपमानित करता रहा, आर्थिक रूप से कमजोर कर परावलंबी बनाने की साजिश करता रहा. इन सबसे संघर्ष करती स्त्री सचमुच थक चुकी है, उसे अब ईश्वर तक पर भरोसा नहीं रहा, वह इस मर्दवादी समाज को नकार देना चाहती है. अब इसे बगावत समझें या उसका मोहभंग - लेकिन वह बेखौफ होकर कुछ पल चैन की नींद सोना चाहती है. इसलिए उसे 'ईश्वर नहीं नींद चाहिए'. इसी 'चाहने' विस्तार है इस संग्रह की पहली कविता - 'वेटिंग रूम में सोती स्त्री'. इस पहली कविता को पढ़ते हुए साफ तौर पर आप महसूस करेंगे कि अनुराधा की स्त्री अब किसी तोहमत से नहीं डरती, किसी की उम्मीदों की परवाह नहीं करती, किसी दूसरी स्त्री का लगाया कोई भी लांछन उसे परेशान नहीं करता, वह इन लांछनों-उम्मीदों से ऊपर उठ चुकी है. अब उसे उसके खुद के अस्तित्व से प्यार है, उसे अपने वजूद से इश्क है, उसका अपना सुनहरा संसार है जहां उसके अपने सपने हैं, अपना संघर्ष है, अपनी जिंदगी है. इसीलिए तो अनुराधा इस कविता के अंत में कहती हैं :
'...वह औरत
अकारण रात भर घर से बाहर रह सकने
की अपील पर
पहला हस्ताक्षर है।'
पहला हस्ताक्षर है पहली कविता
कहना न होगा कि 'ईश्वर नहीं नींद चाहिए' की ख्वाहिश पालने वाली लड़की इस नए संग्रह के पहले पन्ने पर अब वेटिंग रूप में बेधड़क सोती दिख रही है. संग्रह के नाम से ही यह स्त्री मुनादी कर रही है कि भले फूल सी नाजुक हूं, पर फौलाद सी हैं मेरी इच्छाएं. इसलिए मुझे किसी उत्सव के सजावटी वस्तु की तरह देखने की चूक न करो.
'स्त्रियोचित' की नई परिभाषा
इस समाज ने स्त्रियों को बचपन से ही स्त्रियोचित तमाम गुण सिखाए हैं. मसलन, उसे बताया जाता है कि तेज दौड़ना, खिलखिलाकर हंसना या फिर पलटकर सवाल करना स्त्रियों के लिए उचित नहीं है. इन सारी नसीहतों को घुट्टी की तरह पीकर स्त्री संकोच, दब्बूपन और कायरता के सांचे में ढलती हुई जीती-जागती मूर्ति बनती है. हमारा मर्दवादी समाज अपनी गढ़ी हुई इस मूर्ति पर सीना तानकर कहता है, देखो- इसमें लज्जा है, शील है, सहनशीलता है. इस 'स्त्रियोचित' का बेजा फायदा यह मर्दवादी समाज उठाता रहा है. बल्कि अब तो फायदा उठाने और हाशिए पर ढकेलने का यह ट्रेंड पत्रकारिता और साहित्य में खुलकर दिखता है. पुरुष संपादक से लेकर पुरुष कवि-कथाकार तक स्त्री को 'भोग की वस्तु' समझने में कदमताल करते दिखते हैं. लेकिन अनुराधा सिंह ने इस संग्रह की दूसरी कविता 'भी' में जो सांकेतिक विस्फोट किया है, उससे कई कवि-कथाकार-संपादक थर्राए होंगे. इस कविता की अनुगूंज लंबे समय तक उन्हें सुनाई देती रहेगी. इस नाते यह पूरी कविता का पाठ एकबार फिर होना चाहिए. आप भी पढ़ें 'भी' (स्त्री कविता) :
मेरे हिस्से उनका विनोद था
गज़ब सेंस ऑफ़ ह्यूमर
ऐसे-ऐसे चुटकुले कि
कोई हँसता-हँसता दोहरा हो जाये
लेकिन मैं नहीं हँसी
मुस्कुराई भर
मुझे अपने लिखे पर बात करनी थी
मेरे पास मीठा गला था
स्त्रियोचित लोच और शास्त्रीय संगीत की समझ
मन्द्र सप्तक में भी कहती रही
मैं भी कवि हूँ
गाने पर नहीं कविताओं पर बात करते हैं
मेरे पास था उज्ज्वल ललाट
छोटी सी यूरीपीय खड़ी नाक और खिंची
पूरबी आँखें
और-तो-और मेरे चिबुक का स्याह तिल
पहुँचने ही नहीं देता था
उन्हें मेरी कविताओं तक
फिर मैंने कहा, आप
सदियों से मेरे चमकदार खोल की
प्रशस्ति कर रहे हैं
जबकि लिखते-लिखते
मेरी आत्मा नीली-काली हो गयी है
दया कर, एक बार उसे भी पढ़ लीजिए
आपने सही कहा- मैं खाना अच्छा बनाती हूँ
चित्रकारी उम्मदा करती हूँ
बागवान प्रिय है
नौकरी में कर्मठ कही जाती हूँ
वात्स्यायन की मानें
तो केलि और मैत्री के लिए सर्वथा उपयुक्त
किन्तु आपके सामने बैठी हूँ मैं
सिर से पैर तक एक कवि ही बस
आइए, मेरी भी कविताओं पर बात करें।
तो चुप रहने की घुट्टी पीने वाली स्त्री ने बोलना शुरू कर दिया है. बोलने वाली स्त्रियां इस मर्दवादी समाज को हमेशा अपने लिए खतरा लगती रही हैं. लेकिन अनुराधा सिंह की कविताओं ने यह खतरा उठाया है, बिल्कुल करीने से, पूरी शालीनता और पूरी दृढ़ता से अपनी बात रखती हैं.
ढक्कन भर ब्रांडी जैसी कविताएं
किसी वेबसाइट पर अनुराधा सिंह का वक्तव्य था - '...मैं कविता इसलिए लिखती हूँ कि मुझे इस शोर और भीड़ भरे शहर की धुएँदार हवा में अपने लिए जंगल, झरने, तितलियाँ बना लेना अच्छा लगता है, मुझे उदास शामों को एक खो कर मिले प्रेमपत्र में तब्दील कर देने का शग़ल है, मुझे ऐसे आदमी गढ़ लेना बहुत अच्छा लगता है जो कई सदियों तक ग़लतियाँ करने के बाद कम से कम अब सामने बैठ कर अपनी सज़ाएँ सुनें, मुझे रोज़ अख़बार में बलात्कार और नरसंहार की खबरों से न चौंकने वालों को दो पंक्ति की कविता से झिंझोड़ना अच्छा लगता है.
मैं कवि न होती तो भला कैसे कह पाती कि –‘कबसे उसे ही ढूँढ़ रही हूँ मैं
जिसने पुरुषों के दिल का रास्ता पेट से होकर जाता बताया था’
कविता में विमर्श वैसे ही आना चाहिए जैसे सर्दी खाँसी ग्रस्त बालक को एक ढक्कन भर ब्रांडी पिला दी जाये. मुझे ढक्कन भर ब्रांडी जैसी कविताएँ लिखना अच्छा लगता है.' तो इस संग्रह की कविता 'वहाँ जाना तो है' ऐसी ही ढक्कन भर ब्रांडी है जो मां के शोक से ग्रस्त बेटी/बेटा के जख्म पर मरहम का काम करती है. लेप लगाती ऐसी कई कविताएं हैं इस संग्रह में. ऐसी कुछ गद्य कविताएं भी हैं, जिनकी चर्चा आगे करूंगा. फिलहाल, मां को याद करती इस कविता की कुछ पंक्तियां देखें -
...वह पहाड़ वहीं खड़ा है
वह नदी चलती ही जा रही है
सरसों-सी कुछ चमक रही है विरल वृक्षों की आड़ से
बुंदेलखण्ड गुज़र रहा है वहीं ट्रेन के आसपास
जहाँ से भादों गुज़र चुका है दो महीने पहले
सूखा नहीं अब भी हरा है उनका रास्ता
पर किसे बताऊँ उसके रास्ते के ये हाल
कैसे बढ़ाऊँ उसी नम्बर की ओर उँगली
जिसके पीछे माँ की आवाज़ नहीं है...
कमजोर के पक्ष में बोलती कविताएं
अनुराधा सिंह की कविताओं का एक खास ट्रेंड है कि वे हर हाल में कमजोर के पक्ष में खड़ी दिखती हैं, मनुष्यता का संधान करती हैं, जीवन के हर पक्ष को मानवीय दृष्टि से पकड़ने की कोशिश करती हैं. उनकी निगाह में मटर की फली में लगा कीड़ा हो या गुम चोट, जीवन में पुरुष का प्रेम हो या प्रेम में स्त्री का समर्पण सबके अपने अलग अर्थ हैं, सबकी तस्वीरें परंपरागत तस्वीरों से अलग हैं. 'ढँकने का काम' शीर्षक कविता में वह बतलाती हैं कि समर्पण हो या शक्ति - दोनों अपने-अपने तरीके से चीजों को ढकने की कोशिश करते हैं. यह अलग बात है कि समर्पण को देख हम श्रद्धा से नत होते हैं जबकि शक्ति के सामने कभी विद्रोही बन तन जाते हैं तो कभी झुक जाते हैं. लेकिन यह तय है कि झुकें या तनें - किसी भी स्थिति में शक्ति के लिए मन में कोई सम्मान पैदा नहीं होता.
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लेखा-जोखा
अनुराधा सिंह की एक कविता कभी पढ़ी थी 'क्या चाहते हो स्त्री से'. इस कविता में पुरुष को याद दिलाया गया था कि हर बुरी स्थिति में स्त्री ने तुम्हारा साथ दिया है, तुम्हें उबारा है. अगर स्त्री न होती तो तुम्हारा अस्तित्व भी नहीं होता, लेकिन अपनी पूरी उपलब्धियों के बीच उसी स्त्री का नाम गायब कर दिया तुमने और कविता अंत में सवाल करती है कि तुम जाने क्या चाहते हो स्त्री से. 'उत्सव का पुष्प नहीं हूँ' की कविता 'स्त्री का कुलनाम' पढ़ते हुए यह कविता याद आ गई. इस कविता में स्त्री जीवन के कुछ अंशों का हिसाब-किताब काव्य-रूपकों के सूत्रों से किया गया है और अंत में स्त्रियों को उनकी वह चूक याद दिलाई गई, जिसका खमियाजा वे सदियों से उठा रही हैं. यहां याद दिलाने का मकसद कोसना नहीं है बल्कि उन्हें यह ध्यान दिलाना है कि संभावनाएं अभी खत्म नहीं हुई हैं, उनकी कोशिशों से स्थितियां अब भी बदल सकती हैं. यह बेहतरीन कविता आप भी पढ़ें :
स्त्रियो, तुमने
इतने स्वेटर बुने कि चाहतीं तो उस ऊन से
पृथ्वी से चंद्रमा तक पेंग भरनेवाला
एक झूला बुन लेतीं
इतनी रोटियाँ पकाईं
कि तरतीब से रखतीं तो
दुनिया के सबसे ऊँचे पहाड़ चढ़ने को सीढ़ियाँ बना लेतीं
इतने कपड़े सिये कि उन डोरों से
सारे महासागरों पर पुल बाँध लेतीं
फिर भी बच रहता
बलिष्ठ जहाजों पर टिकाऊ पाल सिल देने जितना धागा
तुम इतना सब बनाती रहीं
अपने लिए वह सड़क क्यों नहीं बनाई
जिस पर आधी रात बिना किसी पुरुष को साथ लिए
चल सकतीं
वह छोटी सी सड़क
जो बेवक्त तुम्हें यार दोस्तों के दरवाज़े पहुंचा सकती
जहाँ सारे पत्थर तुम्हारी नानी दादियों के नाम के होते
स्त्रियो, तुमने इतनी प्रसव पीड़ा सही
कि सागर होतीं तो रत्नों के अंबार लगा देतीं
तुमने उस पुरुष को जन्म क्यों न दिया
जो अपनी संतान को अपनी स्त्री का कुलनाम दे देता?
पीछे हटती हुई औरतें
हम सबने अपने घर और अपने आसपास अक्सर देखा है स्त्री को कई बार चुप होते. लेकिन हम यह कभी नहीं समझ पाए कि उनका चुप होना मौन विरोध का एक तरीका है और ऐसा विरोध इस दुनिया के किसी भी सभ्य समाज के लिए लज्जा की बात होनी चाहिए. इसी संग्रह की कविता है 'पीछे हटती हुई औरत'. यह कविता इस पुरुष मानसिकता वाले समाज को समझाती है कि युद्ध जीतने के लिए कई बार जरूरी होता है पीछे हटना. इसलिए पीछे हटने को किसी की हार मान लेना नादानी की बात है. अव्वल तो यह 'युद्ध' ही बेवजह है, जो पुरुषों की नादानी की वजह से पैदा हुआ है. फिर भी स्त्री के पीछे हटने या उसके चुप हो जाने का मर्म समझे जाने की जरूरत है. दरअसल, किसी औरत का पीछे हटना उस घर, समाज और उस देश के लोगों की पराजय है. पढ़ें कविता 'पीछे हटती हुई औरत'.
यह इस दुनिया के लिए
लज्जा की बात है
कि कोई कहे मुझे भूख कम लगती है
नींद की ज़रूरत अधिक नहीं
साज सिंगार रुचता नहीं
कपड़े काम लायक हैं ही
मान सम्मान का क्या है, मिले, न मिले
यह इस दुनिया के लिए
शोक की बात है
कि हर दूसरी स्त्री यह कहे
मुझे इस दुनिया से कुछ नहीं चाहिए
क्योंकि कुछ चाहते ही
कैसा तुच्छ कर देते हो तुम उसे
जैसे सूनामी से ठीक पहले समुद्र हट जाता है अपने तट से बहुत पीछे
बाण को छोड़ने के लिए धनुष को खींचा जाता है प्रत्यंचा से पीछे
जैसे धावक आगे दौड़ने से पहले रखता है एक कदम पीछे
वह हर मोर्चे पर खड़ी रहती है सामने की कतार में
फिर हर दावे से एक क़दम पीछे हट जाती है
तुम गर्व से मुस्कुराते
उसकी बाहक़ ज़मीन पर पहला क़दम रखते हो
और अपने जायज़ से एक क़दम पीछे
हटती हुई औरत
तुम्हारी सभ्यता को हज़ार साल पीछे धकेल
देती है.
असम्भव चित्र उकेरती कविताएं
इस भारतीय समाज के पुरुषों का रवैया ऐसा रहा है कि वे स्त्रियों की निगाह में संदिग्ध हो चुके हैं. आलम यह है कि इस संग्रह की कविताओं में किसी पुरुष पात्र से (शिकायत रहने के बावजूद) कोई शिकायत नहीं की गई है, (घृणा रहने के बावजूद) कहीं कोई घृणा नहीं जताई गई है, बल्कि कविताओं की स्त्रियां उन्हें माफ करती हुई दिखती हैं, स्त्री निगाह में पुरुष दया के पात्र नजर आते हैं. ऐसे समय में अवतार सिंह संधू 'पाश' की एक कविता की कुछ पंक्तियां याद आती हैं :
'जा, तू शिकायत के काबिल होकर आ
अभी तो मेरी हर शिकायत से
तेरा कद बहुत छोटा है'
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गोपन इच्छाओं की दुनिया
इस संग्रह की कविताओं से गुजरते हुए आप स्त्रियों की गोपन इच्छाओं-आकांक्षाओं और आशंकाओं की दुनिया से परिचित होंगे. कुछ आशंकाएं वर्तमान परिवेश से पनपी हैं, कुछ आकांक्षाएं ऐसी भी हैं जो निर्वासित सपनों में तब्दील हो गई हैं. लेकिन इन स्त्रियों में अभी वह इच्छा जीवित है जो किसी मर्द को एक इनसान में बदल देने की उम्मीद जगाता है. हालांकि यह दुनिया स्त्रियों के लिए मायावी है और जबकि इस समाज ने स्त्रियों को ही मायावी बताने की साजिश रची है. इस संग्रह की एक कविता है 'हिदायत'. इसके अंतिम हिस्से में पीढ़ी-दर-पीढ़ी सरकती अनिष्ट की आशंका दिखेगी और नई पीढ़ी को दिलासा और भरोसा देने का जतन दिखेगा :
...मैं हव्वा की क़सम खाकर कहती हूँ बच्ची
मैंने सबको हिदायत दे दी है
कि तमीज़ से रहो
मेरी बेटी बहुत रात गये
लाइब्रेरी से हॉस्टल लौटना चाह रही है।
स्त्रियों में आखिर ऐसी आशंकाएं क्यों घर कर जाती हैं, बहुत मासूम दिखने वाला यह सवाल दरअसल शातिर दिमाग वाले ही पूछा करते हैं. इसी संग्रह की कविता 'असम्भव चित्र' इस सवाल का जवाब देती है :
...दुनिया हर लड़की को
आज़ादी की अलग परिभाषा समझाती है
असंभव है उसके इतने बड़े झाँसे को
एक छोटे से कैमरे में क़ैद करना।
रिश्तों की लाजवाब कविताएं
इस संग्रह में मां और पिताजी को लेकर लिखी गईं कई कविताएं हैं. कुछ कविताएं गद्य शैली में भी हैं. 'पिताओं की दुनिया में' इस संग्रह की बेजोड़ गद्य कविता है. प्रायः हर बच्चे के लिए उसका पिता उसके जीवन का नायक होता है. ऐसे में अपने पिता की लकवाग्रस्त छवि को याद करना कितना मुश्किल होता है इसे इस बात से समझा जा सकता है कि जब कवि कहे 'वे जब लकवाग्रस्त हुए तब 73 साल के थे
उस दिन के बाद से मुझे हँसते-बोलते, खड़े-बैठे बूढ़ों से ईर्ष्या होने लगी।' हालांकि वे इसी कविता के अगले हिस्से में लिखती हैं '... ऐसे मुझे दुनिया के तमाम बुड्ढों से प्रेम हो गया जबकि वे मुझे एक अपरिचित स्त्री से अधिक कुछ नहीं मानते। कुछ तो आहत भी हैं कि मैंने उनका हर कहा नहीं माना।
ईश्वर को ही लें, वह कब जवाब देने वाला है कि उसने मेरे पिता को ही क्यों आघात पहुँचाया। पहले ही ऐसे तमाम अधमरे प्रश्न हैं जिनके जवाब ईश्वर पर शेष हैं।' पिता को लेकर इसी संग्रह की एक कविता है 'पिता कहाँ हैं', गद्य कविताओं में 'हाथ' और 'प्रार्थना' पिता से जुड़ी हुई मर्मस्पर्शी कविताएं हैं. 'स्मृति (2)' में कवि ने पिता समान ससुर को याद किया है. इस संग्रह में मां से जुड़ी हुई कई कविताएं हैं. एक कविता की चर्चा पहले कर चुका हूं, गद्य कविताओं में संग्रह की आखिरी कविता भी मां को लेकर ही हैं.
गद्य कविताओं की गति
अपनी परंपरागत छवि से निकलकर कविताएं जब गद्य का रूप धरती हैं तो वहां भाषा और भाव की जबर्दस्त कारीगरी चाहिए होती है. जरा सी चूक होने पर कविता फिर कविता नहीं रह पाती, वह महज विचार, खबर या लेख बन जाती है. इस संग्रह की कई गद्य कविताएं इस हादसे का शिकार हुई हैं. 'नींद', 'देह', 'स्पर्श', 'एकान्त', 'जूते', 'सरहद' ऐसी ही कुछ रचनाएं हैं जो कविता बनने से पहले दम तोड़ गईं. हालांकि इनमें काव्य तत्त्व खूब हैं. 'नींद' की एक पंक्ति है - 'वे पुरुष बहुत भाग्यवान हैं, जो अपने घर की औरतों को सोता देख पाते हैं।' ऐसी पंक्ति के बाद उम्मीद बंधती है कि यह खूबसूरत गद्य कविता बनेगी, लेकिन अंत तक आते-आते कवि चूकता हुआ दिखता है. दरअसल, यह चूकना कई बार वाक्य विन्यास में शब्दों के लापरवाह क्रम की वजह से भी होता है. 'जूते' की एक पंक्ति में शब्दों का क्रम देखें - 'एक खास तरह के टायर काटकर बनायी गयी चप्पलें पहनते थे।' इस वाक्य विन्यास से पता चलता है कि टायर खास तरह के हुआ करते थे जिससे चप्पलें बनाई जाती थीं, जबकि कवि कहना चाहता है कि टायर काटकर उससे खास तरह की चप्पलें बनाई जाती थीं.
गद्य कविताओं में रवानगी
लेकिन अनुराधा की कई गद्य कविताएं बेहद लाजवाब हैं. कुछ प्यारी रचनाओं की चर्चा इससे पहले कर चुका हूं. लेकिन उनके अलावा 'चिट्ठी' कविता जबर्दस्त असर पैदा करती है. इसी तरह 'हम जो पानी हैं', 'साइकिल' 'मन (का ठौर) कहाँ है ' बहुत ही प्यारी कविताएं हैं. 'औरत और जाति' और 'चूल्हा' स्त्री विमर्श को आगे बढ़ाती हुई कविताएं हैं. कहना न होगा कि 'उत्सव का पुष्प नहीं हूँ' पढ़ने के बाद बेचैन कर देने वाला काव्य संग्रह है.
कविता संग्रह : उत्सव का पुष्प नहीं हूँ
कवि : अनुराधा सिंह
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन
मूल्य : 295 रुपए
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