डीएनए हिंदी: आज भारत का युवा डॉक्टर बनने में ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखाता है. करियर के नए विकल्प और डॉक्टर बनने में लगने वाला लंबा समय और मेहनत - ये वो वजहें हैं जिसकी वजह से अब भगवान का दर्जा पाने वाले इस प्रोफेशन में जाने वालों की संख्या घटी है. हालांकि, ऐसे ही दौर में आज हम आपको एक ऐसे परिवार की कहानी बताने जा रहे हैं जिसमें पिछले 100 वर्षों से ये तय है कि उस परिवार का हर सदस्य डॉक्टर ही बनेगा.
Delhi का सबरवाल परिवार है मिसाल
दिल्ली के सबरवाल परिवार का हर सदस्य वर्ष 1920 से डॉक्टरी के पेशे में है. इस परिवार में अब 150 से ज्यादा डॉक्टर हैं. यह परंपरा कैसे शुरु हुई और इस परंपरा को निभाने में क्या क्या चुनौतियां आई, ये कहानी भी कम रोचक नहीं है. यह कहानी आज के युवाओं को जरुर देखना चाहिए ताकि उन्हें प्रेरणा मिलेगी कि क्यों इस देश को डॉक्टरी के पेशे को एक मिशन के तौर पर देखने की जरुरत है.
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सास-बहू साथ में मरीजों का केस डिस्कस करती हैं
इस परिवार की बात थोड़ी अलग है. आपस में बातें करती सास-बहू घर के साथ क्लिनिक में भी साथ रहती हैं. सास डॉ मालविका सबरवाल स्त्री रोग विशेषज्ञ हैं और बहू ग्लॉसी सबरवाल रेडियोलॉजिस्ट हैं. दोनों ही अक्सर साथ में मरीजों के केस डिस्कस करती हैं. दोनों महिलाएं बखूबी जानती हैं कि उनका पेशा और रिश्ता कितना संवेदनशील है और उसी संवेदना के साथ दोनों काम पर लगी हैं. आपसी रिश्ते की गर्माहट भी कामकाज के दौरान महसूस की जा सकती है. डॉक्टर ग्लॉसी सबरवाल पेशे से रेडियोलॉजिस्ट और इस परिवार की बहू कहती हैं कि इस परिवार में बहू होने के बहुत फायदे हैं.
1920 में शुरू किया था अस्पताल
1920 में इस परिवार के मुखिया लाला जीवनमल ने पहले अस्पताल की शुरुआत की थी जो आज के जैसा बिल्कुल नहीं दिखता था. पाकिस्तान में जलालपुर जट्टा शहर में ये अस्पताल शुरु करने की प्रेरणा उन्हें गांधी जी के एक भाषण से मिली थी. गांधी जी ने अपने भाषण में कहा था कि हमारे देश का भविष्य शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं की व्यवस्था पर निर्भर करेगा. तब लाला जीवनमल ने तय किया कि वो अपने चारों बेटों को डॉक्टर बनाएंगे. आजादी के बाद परिवार ने जीवनमाला अस्पताल के नाम से दिल्ली में ये परंपरा जारी रखी है. 1975 में दिल्ली के अस्पताल की कुछ पुरानी प्रिस्क्रिप्शन और फीस के तौर पर कटने वाली 5 रुपए की पर्ची भी परिवार ने संभाल कर रखी है.
एक बेटे ने मैनेजमेंट छोड़ डॉक्टरी की पढ़ाई की
इस तरह शुरु हुई परिवार में हर किसी को डॉक्टर बनाने की शपथ आज तक यानी 102 वर्षों बाद भी हर कोई निभा रहा है. हालांकि, यह काम इतना आसान भी नहीं है. परिवार के एक बेटे ने मैनेजमेंट की पढ़ाई भी शुरु कर दी थी लेकिन दादी मां की इमोशनल अपील और परिवार के माहौल ने उन्हें भी मैनेजमेंट छोड़कर डॉक्टरी पढ़ने पर मजबूर कर ही दिया था. आज वो एक कामयाब सर्जन हैं.
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डॉ विनय सबरवाल , सर्जन और परिवार के मुखिया कहते हैं कि दिल्ली के सभी जीवनमाला अस्पताल में ये परंपरा है कि किसी मरीज के पास पैसे ना होने की वजह से उसे लाइलाज ना लौटाया जाए. इस परिवार के 2 डॉक्टर सदस्यों का कोरोना की वजह से पिछले वर्ष देहांत हो गया था. हालांकि डॉ विनय के मुताबिक अगली पीढ़ी के हर बच्चे को इतनी मेहनत और बलिदान वाले पेशे के लिए अब मना पाना संभव नहीं है.
परिवार की बहू को मिल चुका है पद्मश्री
एक ही परिवार में हर बीमारी का डॉक्टर मौजूद है. परिवार की सबसे बड़ी बहू डॉ मालविका सबरवाल को अपने काम की बदौलत पद्मश्री पुरस्कार भी मिल चुका है.आज उनकी उम्र तकरीबन 70 वर्ष है लेकिन वो मेहनत के साथ दिन भर अस्पताल में मरीजों को देखती पाई जाती हैं. बेटे, पति, बहू, बेटी सभी को घर चलाने के साथ साथ अस्पताल चलाने और डॉक्टरी के अनुभव के बहुत से गुर ये बातों-बातों में सिखा देती हैं. यह परिवार ऐसे बहुत से लोगों को प्रेरणा दे सकता है जो देश सेवा से जुड़ा कोई काम करना चाहते हैं और एक प्रोफेशनल और कामयाब करियर की तमन्ना भी रखते हैं.
फिलहाल भारत में प्रति 1000 लोगों पर 1.7 नर्सें और 1404 लोगों पर 1 डॉक्टर है. विश्व स्वास्थ्य संगठन WHO के मुताबिक 1000 लोगों पर 3 नर्सें और 1100 की जनसंख्या पर 1 डॉक्टर होना चाहिए. डॉक्टरों की कमी का हाल कुछ ऐसा है:
कहां कितने डॉक्टरों की कमी
1.5 लाख प्राइमरी हेल्थ सेंटर में
1.1 लाख सब डिविजनल हॉस्पिटल में
80 हजार कम्युनिटी हेल्थ सेंटर में
ऐसे में एक परिवार जहां बच्चे के जन्म के समय ही उसकी किस्मत लिखी जा रही हो, यह परंपरा निभाना आसान नहीं है. आज एक मायने में ये दुनिया का सबसे अनोखा परिवार कहा जा सकता है.
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Doctors Day Special: दिल्ली के इस परिवार में हैं 150 डॉक्टर, 100 साल से जारी है सिलसिला