दुनिया का सबसे कमज़ोर व्यक्ति असल में दुनिया का सबसे मजबूत व्यक्ति होता है क्योंकि वह अपनी समस्त कमज़ोरियों के साथ सर्वाइव करता है.

-           दर्पण शाह

विकलांगता पर इससे बेहतर बात नहीं मिली. वाक़ई दुनिया का सबसे कमज़ोर व्यक्ति असल में दुनिया का सबसे मजबूत व्यक्ति होता है क्योंकि उसके लिए कोई और ज़मीन नहीं होती, कोई अलग आसमान नहीं होता, मौसमों की मार उस पर उतनी ही होती है जितनी मजबूत पर, गला-काट दुनिया की प्रतियोगिता उसके लिए बन्द नहीं होती.

वे सारी चीज़ें जिनमें मजबूत व्यक्ति आसानी से सर्वाइव करता है उन्हीं में वह कमज़ोर व्यक्ति अपनी कमज़ोरियों के साथ सर्वाइव करता है, इसीलिए दुनिया का सबसे कमज़ोर व्यक्ति असल में दुनिया का सबसे मजबूत व्यक्ति होता है.

अपनी कमजोरियों पर कभी चिढ़ती हूँ, कभी सबसे मुँह फेर किसी खोल में घुस जाती हूँ बहुत दिनों तक चेहरा ना उठाने को और कभी उस किसी सर्जक को धन्यवाद देती हूँ कि तुमने बहुत सारी कमजोरियों के साथ सर्वाइवल करने  के लिए मेरा चुनाव किया... जैसे तुम दिखाना चाहते थे/हो कि होने को बहुत कुछ हो सकता है बस अपनी दृष्टि दौड़ाई जाये.

कथन में जो पैराडॉक्स है

कहने वाले कह सकते हैं... सोचने वाले सोच सकते हैं कि यह एक तरह का पैराडाक्स (विरोधाभासी कथन) है... वे कह सकते हैं कि असल में कहने वाले को यह कहना चाहिये कि ‘सबसे कमज़ोर दिखने’ वाला व्यक्ति असल में सबसे मजबूत होता है, ठीक उसी तरह जिस तरह ‘सबसे मजबूत दिखने’ वाला व्यक्ति अपने आप में बहुत कमज़ोर होता है .

लेकिन मैं उन कहने वालों से कहना चाहूँगी कि मेरे द्वारा कहे जा रहे कमज़ोर शब्द की भावनाओँ को समझें… यह  पैराडॉक्स ही है लेकिन आधारहीन पैराडॉक्स नहीं. जैसे ज़िन्दगी को बहुत प्यार से जीने वाला व्यक्ति मृत्यु को सहजता से स्वीकार सकता है यह तब पता चलता है जब उसे कैंसर का फ़ोर्थ स्टेज डायग्नोज़ होता है. वह असल में उस मृत्यु को सहजता से स्वीकार ना करे तो करे क्या ? उसी तरह वह व्यक्ति जो दुनिया का सबसे कमज़ोर आदमी है वह, दुनिया का सबसे मजबूत आदमी ना बने तो करे क्या ?

मुझे भी पता है कि यह जानने और महसूस करने के बाद भी कि हम कमज़ोर हैं, बहुत से दोस्त/अपने दिलासा देने का प्रयास करेंगे कि नहीं तुम कमज़ोर नहीं... और बहुत दिनों तक या आज भी हर विकलांग ने भी यह ही बताने-जताने के संघर्ष मे खुद को झोंक रखा है कि हम कमज़ोर नहीं, हम औरों से ज़्यादा मजबूत हैं, हममें औरों से ज़्यादा क्षमता है.

मगर पता है आपको विकलांग व्यक्ति अपनी बात कहने से सिर्फ़ इसलिए डरता है क्योंकि वह ख़ुद भी नहीं चाहता कि लोग उसे कमज़ोर समझें, दया का पात्र समझें.  लेकिन विकलांगों को समझना होगा कि अपनी कमजोरी स्वीकारना और उस कमज़ोरी के साथ अपने अस्तित्व को सम्मान देना सबसे बड़ा साहस है.

कोई कितनी भी दिलासा दे, भरम रखे लेकिन असल में कमज़ोर तो होता ही है वह व्यक्ति जो बनावट में थोड़ा अलग होता है सामान्य लोगों से... कमज़ोर होता भी है और कमज़ोर पड़ता भी है बार-बार.

मन मारना कमज़ोर तो बनाता ही है

तब, जब खूब दौड़ने की, दौड़ते रहने की उम्र होती है उस समय जब एक खिड़की से सिर्फ देखना होता है हम-उम्र बच्चों को दौड़ता हुआ…  दौड़ना नहीं... तब कमज़ोर तो होता ही है व्यक्ति.

छूवा-छुवैय्यल, आई-स्पाई, विष-अमृत वाले खेलों में जब दोस्तों के साथ पार्क में सिर्फ़ बैठना होता है, खेलना नहीं, तब कमज़ोर तो पड़ता है वह बच्चा कि तब इतनी अक्ल भी कहाँ होती है कि जान सके कि यह कमज़ोरी मजबूती का पड़ाव है.

किशोरावस्था के सारे आकर्षण जब यह सोच कर इग्नोर कर दिए जाते हैं कि कोई क्यों लेगा हम में रूचि कि हम तो पूर्ण भी नहीं, तब मन मारना कमज़ोर तो बनाता ही है.

जब ज़िन्दगी में हर साथ को यह कह कर ठुकरा दिया जाये कि सायकिल का पहिया कार के पहिए के साथ जितना भी ख़ूबसूरत लगे सफ़र नहीं तय कर पायेगा. चाहे आपकी अंतरात्मा कितना भी कहे कि यह साथ सायकिल के पहिए को कार से ज़्यादा तेज़ और सहज रास्ता तय करा सकता है.

जब आपका यायावर मन विशाल समंदर को फोटो में देख बस ललच-ललच कर रह जाये कि आपको पता हो कि रेत में ना आपके पैर आपका साथ देंगे, ना आपकी व्हील चेयर का पहिया.

जब खूबसूरत पहाड़ आपके लैपटॉप का कवर पेज ही बन सकें क्योंकि उस ऊँचाई पर ना आपकी व्हील चेयर जा सकती है, ना आपके कैलीपर्स.

जब सारे मंदिरों का वास्तु, शांति, दिव्यता आपको खींचे तो खूब लेकिन आपका प्रवेश नामुमकिन हो...

it's not disabled friendly

जब हर खूबसूरत रेसोर्ट में जाने के पहले पता हो जाये ' it's not disabled friendly’!  जब दुनिया आपको चिड़ियाघर का एक प्राणी समझ घूरती रहे और आपके मुँह पर आपकी ऑटोप्सी रिपोर्ट पढ़ी जाये! असल में कमज़ोर तो होता ही है तब व्यक्ति... हर बार, बार-बार!

 लेकिन इन्हीं सारे क्षणों का प्रतिशोधइन्ही पलों को दोगुनी, चौगुनी मात्रा में जिंदगी से निकाल फेंकने की ज़िद, ज़िन्दगी का हर पल भरपूर जीने की चाह पैदा करती है… जूनून पैदा करती है. ख़ुश रहने से ज़्यादा ख़ुश दिखने की होड़ पैदा करती है और ये होड़ जाने कब आदत बन जाती है.

फ़िर इन्हीं सारे कमज़ोर पलों से अँखुआते हैं सारे मज़बूत पल और मैं  दर्पण शाह  की उस बात को बार-बार दोहराती हूँ कि ‘दुनिया का सबसे कमज़ोर व्यक्ति असल में दुनिया का सबसे मज़बूत व्यक्ति होता है.‘

यह बात कहने में शुरुआत में झिझक लगी, शर्म लगी, लगा कि लोग सोचेंगे कि सिंपैथी बटोरने को कही जा रही है यह बात, अपने लिए उदारता की भीख का कटोरा ले कर खड़े हो जाने जैसा होगा ऐसी बातें कहना लेकिन फिर सोचना शुरू किया कि मैं नहीं तो और कौन ? कौन जागरूक करेगा लोगों को मेरे जैसे लोगों के लिए सेंसिबिलिटी को पैदा करने के लिए ?

नक्कारखाने में तूती की आवाज़ ही सही

हर उपेक्षित तबके के लिए जागरूक होने में लोगों को समय लगा.  कितना-कितना लिखा गया स्त्री विमर्श और दलित-विमर्श पर तब जा कर अब थोड़ी सी संवेदनशीलता या समानता आई हैं, वह भी कहीं-कहीं...! लेकिन विकलांग व्यक्ति के लिए अभी भी संवेदनशीलता का मतलब है, “ओहो... भगवान क्यों देता है ऐसा जीवन ?” “ऐसे जीवन से भला तो भगवान मौत दे दे” “सब कुछ हो कर भी क्या है उनके पास जब शरीर ही साथ नहीं दे रहा” जैसे शब्द...!

क्यों ? क्योंकि विकलांग व्यक्ति अपने संघर्षों पर बात भी नहीं करना चाहता . लोगो को बताना भी नहीं चाहता कि उसकी लोगों से अपेक्षा क्या है ?

मगर अब सोचा है कि नक्कारखाने में तूती की आवाज़ ही सही लेकिन बोलूँगी. यद्यपि लोगों को समझने में बहुत देर लगेगी. लेकिन मैं अपनी पूँछ से समंदर मे रेत झाड़-झाड़ कर समंदर पाटने का अपना प्रयास करूँगी ही और ता-उम्र करूँगी.

- कंचन सिंह चौहान 

(कंचन सिंह चौहान लेखिका हैं. दिव्यांग हैं और अपनी ज़िन्दगी अपनी शर्तों पर जीती हैं. इनकी किताब 'तुम्हारी लंगी' को ख़ूब सराहा गया है. )

(यहाँ दिये गये विचार लेखक के नितांत निजी विचार हैं. यह आवश्यक नहीं कि डीएनए हिन्दी इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे और आपत्ति के लिए केवल लेखक ज़िम्मेदार है.)

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notes from a disabled warrior
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वह जो दुनिया का सबसे मजबूत आदमी है
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