डीएनए हिंदी: संसद का विशेष सत्र 18 से 22 सितंबर तक चलेगा. एक देश एक चुनाव और यूनिफॉर्म सिविल कोड को लेकर चर्चा का दौर शुरू हो गया है. एक देश एक चुनाव का बिल लाए जाने की काफी संभावना है क्योंकि पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के नेतृत्व में एक कमेटी भी बना दी गई है. हालांकि, इसे लागू करना देश में इतना आसान नहीं है. एक देश एक चुनाव के बारे में सबसे मजबूत तर्क यह दिया जा रहा है कि इससे लगातार देश में होते रहने वाले चुनाव और उस पर खर्च होने वाला बेशुमार पैसा बचेगा. हालांकि इस प्रक्रिया का विरोध करने वालों की राय है कि यह लोकतंत्र के लिहाज से सही कदम नहीं है. आइए समझते हैं कि क्या वाकई में वन नेशन वन इलेक्शन से देश के खजाने में भरपूर पैसा बचने वाला है. समझें इसके सभी पहलू.
अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव से भी महंगा था भारत का लोकसभा चुनाव
सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज के हवाले से बताया गया था कि 2019 के लोकसभा चुनाव में 55000 करोड़ रुपए का खर्च आया था. भारत जैसे देश में यह एक बहुत बड़ी रकम थी. खास बात यह है कि 2016 में अमेरिका में हुए राष्ट्रपति चुनावों से भी यह रकम ज्यादा है. इस चुनाव में हर वोटर पर आठ डॉलर का खर्च आया था. देश में आधी से ज्यादा आबादी रोजाना तीन डॉलर से भी कम पर गुजारा कर रही है. इसके अलावा विधानसभा चुनाव में भी भरपूर खर्चा होता है.
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5 राज्यों के चुनाव में हो गए 500 करोड़ से ज्यादा का खर्च
साल 2022 में चुनाव आयोग ने पांच राज्यों पंजाब, मणिपुर, उत्तर प्रदेश, गोवा और उत्तराखंड में हुए विधानसभा चुनावों में हुए खर्च के आंकड़े जारी किए थे. इन आंकड़ों के मुताबिक 500 करोड़ से ज्यादा की रकम चुनाव प्रचार में ही खर्च हो गई थी. चुनाव आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक, बीजेपी ने 340 करोड़ रुपए और कांग्रेस ने 190 करोड़ रुपए खर्च किए थे. इन आंकड़ों से आप समझ सकते हैं कि भारत में चुनाव कितना खर्चीला है. इसके अलावा 2009 से 2022 तक हुए अळग-अलग चुनावों में खर्च की रकम लगातार बढ़ी है.
कितनी बचत का है अनुमान?
अभी तक निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता है कि एक साथ चुनाव कराने पर कितनी रकम की बचत होगी. अब तक देश में इसे लेकर निश्चित तौर पर आंकड़े नहीं जारी किए गए हैं और यह अलग-अलग एजेंसियों के अनुमान के आधार पर है. लॉ कमीशन का कहना था कि अगर 2019 में लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराए जाते हैं तो 4,500 करोड़ का खर्चा और ज्यादा होगा. 2024 में साथ चुनाव कराने पर 1,751 करोड़ का खर्चा बढ़ेगा. हालांकि इसके बाद यह खर्चा कम होने लगेगा क्योंकि औसतन हर साल देश में कोई न कोई चुनाव होता है जो एक साथ चुनाव कराने के बाद खत्म हो जाएगा. इस प्रक्रिया की शुरुआत बेहद जटिल और अतिरिक्त खर्च लेकर आएगी यह तय है.
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क्षेत्रीय दलों की स्थिति कमजोर होने का अनुमान
एक देश एक चुनाव कराने के लिए संवैधानिक संशोधन की जरूरत होगी. लोकसभा और विधानसभा के कार्यकाल को एक साथ करने के लिए संविधान संशोधन करना होगा. क्षेत्रीय दलों की स्थिति कमजोर होने का अनुमान भी राजनीतिक विश्लेषक लगाते हैं. इसकी वजह यह है कि अगर साथ में चुनाव कराए गए तो केंद्रीय मुद्दे ही हावी हो सकते हैं. साथ ही बड़ी पार्टियों की तुलना में क्षेत्रीय दलों के पास संसाधनों का अभाव भी होगा. 2015 में आईडीएफसी संस्थान की तरफ से की गई स्टडी में पाया गया कि यदि लोकसभा और राज्यों के चुनाव एक साथ होते हैं तो 77 प्रतिशत संभावना है कि मतदाता एक ही राजनीतिक दल या गठबंधन को चुनेंगे. भारत के संघीय ढांचे को देखते हुए भी एक देश एक चुनाव को लागू करना बेहद मुश्किल है.
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एक साथ कराए जाएं चुनाव तो कितनी होगी बचत, समझें पूरा गणित