डीएनए हिंदी: अंतरिक्ष में कोई भी सैटलाइट भेजने के लिए लॉन्चिंग व्हीकल (Launching Vehicle) का इस्तेमाल किया जाता है. ये एक तरह के रॉकेट होते हैं जिनकी मदद से सैटलाइट लॉन्च किए जाते हैं. अभी तक पोलर सैटलाइट लॉन्चिंग व्हीकल (PSLV) और जियोसिंक्रनाइज लॉन्चिग व्हीकल (GLSV) की मदद से अंतरिक्ष अभियान चलाए जाते रहे हैं. अब भारत ने छोटे सैटलाइट भेजने के लिए पहला स्मॉल सैटलाइट लॉन्चिंग व्हीकल (SSLV) ईजाद किया है. इसकी मदद से भारत के इसरो ने पहला मिशन भी भेजा. हालांकि, यह मिशन पूरी तरह सफल नहीं रहा लेकिन इसरो को उम्मीद है कि इन खामियों को दूर करके SSLV मिशन को कामयाब किया जा सकता है.
PSLV क्या होते हैं?
पीएसएलवी भारत के सबसे पहले ऐसे रॉकेट हैं जिनका इस्तेमाल सैटलाइट भेजने के लिए किया जाता है. भारत में इसका इस्तेमाल सबसे पहले 1994 में हुआ था. भारत के चंद्रयान-1 और मार्स ऑर्बिटर एयरक्राफ्ट को इसी की मदद से भेजा गया था. PSLV की मदद से ज्यादातर ऐसे सैटलाइट भेजे जाते हैं जिनकी मदद से निगरानी करनी होती है या तस्वीर खींची जाती है. इनकी सबसे अहम खासियत होती है कि ये सन सिंक्रोनस सर्कुलर पोलर ऑर्बिट (SSPO) में सैटलाइट को भेजते हैं. इसका मतलब यह होता है कि ये सैटलाइट पृथ्वी का चक्कर लगाते हैं और पृथ्वी के अलग-अलग हिस्सों को कवर करते हैं.
यह भी पढ़ें- SSLV-D1 से भेजे गए सैटलाइट का क्या हुआ? इसरो ने बताया कहां हुई गड़बड़
PSLV की मदद से 600 से 900 किलोमीटर की ऊंचाई पर सैटलाइट भेजे जाते हैं. PSLV की मदद से 1750 तक के सैटलाइट भेजे जाते हैं. पीएसएलवी की मदद से जिओसैंक्रोनस ऑर्बिट में भी सैटलाइट भेजे जा सकते हैं. पीएसएलवी चार स्टेज वाले रॉकेट होते हैं जिनमें पहले और तीसरे स्टेज में सॉलिड ईंधन और दूसरे और चौथे स्टेज में लिक्विड ईंधन का इस्तेमाल किया जाता है.
GSLV रॉकेट कैसे करते हैं काम
जीएसएलवी में सबसे बड़ा अंतर यह है कि ये रॉकेट जियो सिंक्रोनस ऑर्बिट में सैटलाइट भेजता है. जियोसिंक्रोनस का मतलब यह है कि जैसे-जैसे पृथ्वी घूमती है वैसे-वैसे ही ये सैटलाइट घूमते हैं. इसी वजह से ये सैटलाइट हमेशा एक जगह पर रुके हुए से लगते हैं. इसी वजह से कम्यूनिकेशन सैटलाइट, टेलीविजन सैटलाइट और कई अन्य सैटलाइट GSLV से ही भेजे जाते हैं.
यह भी पढ़ें- 5G Network: इंसानों की सेहत पर बुरा असर डालेगा 5जी नेटवर्क? जानिए क्या है सच्चाई
इसमें तीन स्टेज और चार बूस्टर लगे होते हैं. उसके ऊपरी स्टेज में क्रायोजेनिक इंजन लगे होते हैं. इसकी मदद से सैटलाइट को 250X36000 किलोमीटर के ऑर्बिट में सैटलाइट भेजे जाते हैं. इनकी मदद से 2,500 किलोग्राम से लेकर 5,000 किलोग्राम तक के सैटलाइट भेजे जाते हैं. इसके पहले चरण में सॉलिड रॉकेट, दूसरे में लिक्विड और तीसरे में क्रायोजेनिक इंजन का इस्तेमाल किया जाता है. हालांकि, जीएसएलवी के मुकाबले पीएसएलवी को ही ज्यादा भरोसेमंद माना जाता हैं.
यह भी पढ़ें- लॉन्च हुआ ISRO का रॉकेट SSLV, लेकिन टूट गया संपर्क, जानें पूरी डिटेल
अब SSLV क्या नई चीज है?
एसएसएलवी का फुल फॉर्म है स्मॉल सैटलाइट लॉन्चिंग व्हीकल. यानी कि इसका इस्तेमाल छोटे सैटलाइट को अंतरिक्ष में भेजने के लिए किया जाता है. इसकी मदद से 500 किलोग्राम तक के सैटलाइट भेजे जा सकते हैं. इन सैटलाइट को 5000 किलोमीटर से कम के सन सिंक्रोनस ऑर्बिट में भेजा जाता है. यह भी चार स्टेज वाले सिस्टम पर काम करता है जिसमें 3 स्टेज सॉलिड फ्लूल पर काम करते हैं और चौधा स्टेड लिक्विड ईंधन से काम करता है.
देश-दुनिया की ताज़ा खबरों Latest News पर अलग नज़रिया, अब हिंदी में Hindi News पढ़ने के लिए फ़ॉलो करें डीएनए हिंदी को गूगल, फ़ेसबुक, ट्विटर और इंस्टाग्राम पर.
- Log in to post comments
PSLV, GSLV और अब SSLV, जानिए क्या है इन तीनों में अंतर, क्यों अलग-अलग होते हैं लॉन्चिंग व्हीकल