पेड़ लगाना बाबा का शौक रहा, आदत रही. उनके शौक ने हम नातियों को हमेशा प्रिविलेज फील कराया. आम, अमरूद, आंवला, सिरफल, जामुन, कटहल आदि के ढेरों पेड़ बाबा ने लगाए.
बाबा जब भी कलकत्ता से छुट्टी पर घर आते तो उनके झोले में टॉफी, नातियों के लिए किताब के अलावे जो अन्य जरूरी सामान होता था वह कोई न कोई पौधा होता था. वापस कलकत्ता लौटते वक्त वह बच्चों को यह जिम्मेदारी देकर जाते कि यदि अगली बार आने तकपौधा बचा रह गया तो तुम लोगों के लिए ईनाम रहेगा.
बाबा की बहुत यादें मेरे पास नहीं है, बस यह याद है कि चाय उन्हें खूब पसंद थी और बिल्कुल बुढापे में एक आदमी था जिसका काम थाबाबा को रोज चट्टी पर ले जाना और दोपहर तक वापस ले आना. साथ में कुछ और भी खूबसूरत स्मृतियां हैं.
नींबू तब बाजारू चीज नहीं हुआ करता था
बाबा को निबुकि(नींबू का अचार) बहुत पसंद था तो उन्होंने लगभग पच्चीस पेड़ नींबू लगा दिया. मेरी यादों में नींबू के उस बगीचे केअंतिम दिनों की तस्वीरें हैं जब बाबा के बाद वह बगीचा भी अपने अंतिम दिनों में था. वह देशी किस्म के नींबू थे जो गोल गोल न होकरलंबे लंबे होते थे.
घर परिवार टोला में उन दिनों नींबू की कभी कमी नहीं हुई न ही नींबू के अचार की. तब रोज लोगों का बाजार जाना नहीं होता था और बाजार जाने पर भी कम से कम बगैर किसी आवश्यकता के नींबू खरीदना तो शायद ही होता हो क्योंकि नींबू तब बाजारू चीज नहीं हुआ करता था. पेट दर्द होने से लेकर उल्टी तक कुछ भी हुआ एक समाधान मौजूद होता था, बगीचे से नींबू तोड़ ले आओ.
नींबू के अचार में जो खड़ी मिर्च पड़ती है वह मुझे बहुत पसंद है. घर पर सबको कम से कम नींबू का अचार तो पसंद है ही. कई अचार केबीच से जो पहला अचार आजी उठाती है वह नींबू का ही होता है.
पिता जी को भी पेड़ लगाने का शौक है और बाजार से आते वक्त उनके हाथ में कुछ हो न हो नींबू की थैली जरूर रहती आई है. तीन चारपेड़ नींबू पिता जी ने भी लगाया है,कागजी नींबू, गोल वाले. खूब फरते हैं और लोग खूब खाते हैं। पिता जी का मन है कि कम से कम एकपेड़ लम्बा वाला नींबू तो रहना ही चाहिए. कई प्रयासों के बावजूद वह चीज नहीं मिल पाई है.
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हालांकि एक जन ने खबर दी है कि कलकत्ता में अब भी वह नींबू का पौधा मिल जाएगा तो उम्मीद है कि अगली बरसात में वह लग जाये. रही बात कलकत्ते की तो क्या ही कहूं… वहां बिना गए वह शहर मेरी जान है क्योंकि वह बाबा की कर्मभूमि रहा… बड़े पिता जी की यादोंमें अब भी कलकत्ता अपना जीवंत रूप लिए बचा हुआ है.
अच्छा, अब बाबा वाली बात तो नहीं रही फिर भी अपने अगल बगल कम से कम नींबू के लिए लोगों को तब तक बाजार जाना तो नहीं हीपड़ता है जब तक पेड़ पर नींबू हों… क्योंकि अब भी हमारे लिए नींबू बाजारू चीज नहीं है और शायद कभी नहीं होगा.
(एकलव्य सुंदर और सामयिक गद्य लिखते हैं. यह पोस्ट उनकी फेसबुक वॉल से ली गई है.)
(यहां दिये गये विचार लेखक के नितांत निजी विचार हैं. यह आवश्यक नहीं कि डीएनए हिन्दी इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे और आपत्ति के लिए केवल लेखक ज़िम्मेदार है.)
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