डीएनए हिंदी: म्यांमार (Myanmar) की अपदस्थ नेता आंग सान सू की (aung san suu kyi) को 2 साल की जेल की सजा सुनाई गई है. उनके खिलाफ कई मुकदमे चल रहे हैं जिनमें अगर वे दोषी पाई जाती हैं तो उन्हें 100 साल से ज्यादा की सजा मिल सकती है. म्यांमार की सत्ता पर सेना फरवरी 2021 से ही काबिज है. सेना ने वहां के लोकतांत्रिक ढांचे को ही ध्वस्त कर दिया है.
फरवरी में म्यांमार की सत्ता सेना के नियंत्रण में आने के बाद से सू की नजरबंद है. नोबल पुरस्कार विजेता आंग सान सू की पर सेना के खिलाफ अपने देश में विद्रोह भड़काने का भी आरोप है. आंग सान सू को जेल भेजने वाले फैसले की वैश्विक निंदा हो रही है.
संयुक्त राष्ट्र, यूरोपीय संघ और ब्रिटेन समेत कई अंतरराष्ट्रीय संगठनों ने सेना के इस फैसले की निंदा की है. कभी म्यांमार की सर्वोच्च नेता रही आंग सान सू के खिलाफ चल रहे मुकदमों को दुनिया राजनीति से प्रेरित बता रही है. पहले उन्हें 4 साल की सजा सुनाई गई थी जिसे सैन्य अधिकारियों ने घटाकर 2 साल कर दिया था.
साल 2015 में उनकी पार्टी लोकतांत्रिक तरीके से चुनकर सत्ता में आई थी. आंग सान सू ने खुद पद नहीं संभाला था वे सरकार की सलाहकार की भूमिका में थीं. सैन्य गुटों ने संवैधानिक वजहों से 2008 में भी उन्हें राष्ट्रपति बनने से रोक दिया था. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश की पहली नागरिक सरकार में सत्ता के केंद्र के रूप में उनकी भूमिका मानी गई थी. 1989 से 2010 तक ज्यादातर वक्त आंग सू की ने नजरबंदी और जेल में बिताया है. 2015 में उनके उदय को म्यांमार के लोकतंत्र में बड़े अवसर के तौर पर देखा गया लेकिन अब स्थितियां बदल गई हैं. अभी म्यांमार में लोकतंत्र की बहाली होती नजर नहीं आ रही है.
वैश्विक मंचों पर आलोचनाओं का शिकार हो चुकी हैं आंग सान सू की
म्यांमार में सैन्य अधिकारी अलगाववादी विद्रोहियों से लगातार जूझते रहे हैं. साल 2017 में पश्चिमी रखाइन राज्य में रोहिंग्या मुसलमानों के खिलाफ अत्याचारों की वजह से हजारों लोग बांग्लादेश भाग गए. म्यांमार की सत्तारूढ़ नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी (NLD) सरकार पर वैश्विक दबाव बढ़ने लगा और अंतरराष्ट्रीय समर्थन कम होने लगा. आंग सान सू की पूरे सैन्य और स्थानीय विद्रोह की कार्रवाई में चुप रहीं.
यह आंग सान सू की की अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा के लिए एक बड़ा झटका था और रोहिंग्या संकट पर उनकी चुप्पी की वजह से 2001 में उन्हें दिए गए नोबेल शांति पुरस्कार को रद्द करने के लिए लगातार मांग उठी. अंतर्राष्ट्रीय निंदा तब और बढ़ गई जब वह दिसंबर 2019 में नरसंहार के दावों के खिलाफ म्यांमार का बचाव करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में पेश हुईं.
कैसे म्यांमार में मजबूत हुई सेना?
नवंबर 2020 के चुनाव में उनकी पार्टी एक बार फिर सफल रही लेकिन सेना ने नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी पर वोटिंग में धोखाधड़ी का बड़ा आरोप लगाया. इस आरोप को अंतरराष्ट्रीय पर्यवेक्षकों ने खारिज कर दिया था. सेना ने सरकार को ही अवैध ठहराया जिसकी वजह से फरवरी में हुए सैन्य अधिग्रहण की नींव तैयार हुई.
तख्तापलट के बाद से सेना ने अपनी सैन्य क्षमता को और बढ़ाने की ठानी. सेना ने अपनी स्थिति को मजबूत करने के लिए म्यांमार के भीतर कानूनी ढांचे का मनचाहा इस्तेमाल किया. तमाम ऐसे वैश्विक उदाहरण देखने को मिले हैं जब तख्तापलट के बाद सेनाओं ने संविधान में बदलाव कर अपनी ताकत को बढ़ाया है.
कानूनों का मनचाहा इस्तेमाल कर रही है म्यांमार सेना
अमेरिकी राजनीतिक वैज्ञानिक नैन्सी बेरमेओ अपने एक शोध में कहा था कि तख्तापलट के बाद की सरकारें तख्तापलट करने वालों की स्थिति और अधिकारियों को मजबूत करने के लिए पहले से मौजूद कानूनी परिसरों और संस्थानों का उपयोग करती हैं. सैन्य सरकार ने 2008 के संविधान का इस्तेमाल तख्तापलट के लिए कानूनी आधार के रूप में किया और नई सरकार की नियुक्ति और आंग सान सू की का मुकदमा इसका तार्किक विस्तार है.
(एजेंसी इनपुट के साथ)
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