डीएनए हिंदी: 24 अगस्त को रूस और यूक्रेन के बीच जारी युद्ध के 6 महीने पूरे हो रहे हैं. इस युद्ध ने पूरी दूनिया को प्रभावित किया है. लड़ाई के बाद उर्जा स्रोतों और खाद्य पदार्थों के साथ-साथ कई और वस्तुओं के दामो में बेतहाशा वृद्धि हुई है. दुनिया के कई देशों में मंहगाई दर काबू से बाहर हो गई. महंगाई को काबू में करने के लिए दुनिया भर के केन्द्रीय बैंकों ने ब्याज दरें बढ़ा दीं. खाद्यान और ऊर्जा की महंगाई के कारण दुनिया भर में मंदी आने की आशंका जताई जाने लगी. मंहगाई के कारण खाद्य और ऊर्जा जैसी आधारभूत सुविधाओं की बढ़ी हुई कीमत चुकाने के लिए गरीब और विकासशील देश ही नहीं बल्कि यूरोप के अमीर देश भी जूझ रहे हैं. आइए देखते हैं कि लड़ाई के 6 महीने के बाद उर्जा स्रोतों और खाद्य पदार्थों का संकट कितना गहरा या हल्का हुआ है?
गैस की कीमतें आसमान छू रहीं, यूरोप पर भारी पड़ेंगी सर्दियां
रुस-यूक्रेन की लड़ाई से एक साल पहले प्राकृतिक गैस की कीमत 2.79 अमेरिकी डॉलर प्रति MMBtu थी जो कि मौजूदा हालात में तीन गुना से ज्यादा बढ़ गई है. रूस के पास दुनिया के गैस रिजर्व का 24 प्रतिशत हिस्सा है और ये दुनिया का सबसे बड़ा गैस सप्लायर भी है. यूरोप के अधिकतर देश रूस की गैस सप्लाई पर काफी हद तक निर्भर रहते हैं. साल 2021 में यूरोप ने अपनी जरूरतों की लगभग 40 प्रतिशत नैचुरल गैस रूस से आयात की थी.
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कीमतों में वृद्धि पिछले साल से ही देखी जा रही थी. युद्ध के दिन 24 फरवरी को गैस की कीमत 4.6 डालर थी जो कि लड़ाई के बाद लगातार बढ़ती रही है. इस बीच अमेरिका और ब्रिटेन के द्वारा रूस की गैस और तेल का बहिष्कार करने के बाद से ही कीमतें बढ़ती गई हैं. जून महीने में जब जंग के कारण वैश्विक मंदी की खबरें आई तो कीमतों में मामूली गिरावट आई लेकिन जबसे सर्दियों की आहट शुरू हुई है तबसे यूरोप में ऊर्जा संकट की आशंका गहरा गई है.
नेचुरल गैस की कीमतें उच्चतम स्तर को पार कर चुकी हैं. यूरोप की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था जर्मनी की 50 प्रतिशत गैस की जरूरत रुस से पूरी होती है. ऐसे में 31 अगस्त से 3 सितंबर के बीच रूस द्वारा एक गैस पाइपलाइन को रखरखाव के लिए बंद करने से यूरोप में पर्याप्त गैस की उपलब्धता सवालों के घेरे में है. अगर ये मामला जल्दी नहीं सुलझा या और बिगड़ा तो भारत में भी गैस के सिलिंडरों और सीएनजी की कीमत बढ़ना तय है.
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कच्चे तेल के दाम थमे लेकिन आखिर कब तक?
सऊदी अरब और अमेरिका के बाद दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा कच्चा तेल उत्पादन करने वाला देश रूस है लेकिन निर्यात के मामले में रूस तेल उत्पादों का सबसे बड़ा और कच्चे तेल का दूसरा सबसे बड़ा निर्यातक देश है. दुनिया भर की कच्चे तेल की सप्लाई का लगभग 11 प्रतिशत रूस से आता है. लड़ाई के शुरू होने से पहले ही साल 2021 के अंत से ऊर्जा की कीमतों में बढ़े दबाव का असर कच्चे तेल पर दिखना शुरू हो गया था. भारत में भी कई राज्यों में पेट्रोल की कीमतें 100 रुपये के पार हो गई थीं.
लड़ाई के ऐलान के वक्त कच्चे तेल की कीमत 90.4 डालर प्रति बैरल थी जो कि 8 मार्च, 2022 को 119.6 डालर के उच्चतम स्तर तक पहुंच गई. हालांकि, इसके बाद तेल की आपूर्ति को लेकर अनिश्चिताओं को विराम मिलने के बाद तेल के दाम थोड़ा थमे रहे.
जून महीने के अंत से ही मंहगाई के कारण वैश्विक मंदी की आशंका की वजह से तेल की कीमतें में थोड़ी कमी देखी जा रही है. 22 अगस्त को तेल करीब 90 डालर प्रति बैरल के पास है. कच्चे तेल का आज का बाजार भाव करीब करीब लड़ाई की घोषणा (24 फरवरी) के आस पास ही है.
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अनाज संकट हो गया खत्म?
रुस और यूक्रेन दोनों मिलकर दुनिया को करीब एक तिहाई गेहूं की आपूर्ति करते हैं. ऐसे में रूस और यूक्रेन के लड़ाई के कारण सिर्फ ऊर्जा ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में खाद्य संकट की आशंका भी गहरा गई थी. गेहूं की कीमतों में पिछले साल के अंत से तेजी देखी जा रही थी. 24 फरवरी को गेहूं की कीमत 680 डॉलर प्रति बुशैल थी जो कि लड़ाई की घोषणा के वक्त लगभग 25 फीसदी बढ़कर 925 डालर प्रति बुशैल पर पहुंच गई थी. लड़ाई के दौरान ये कीमत बढ़ती गई. 17 मई 2022 को 1277 डालर प्रति बुशैल पर पहुंच गई थी लेकिन इसके बाद कीमतों में सुधार देखा गया.
हाल ही में यूएन द्वारा किए गए समझौते के कारण यूक्रेन का गेहूं वैश्विक बाजार में पहुंचना शुरू हो गया है. इस समझौते की संभावना के चलते ही बाजार में कीमतों में नरमी आई थी. मौजूदा समय में गेहूं की कीमत युद्ध की घोषणा के वक्त की कीमत से 15 प्रतिशत कम हो गई है. भारत पर भी इसका व्यापक प्रभाव पड़ा है. गेहूं का बाजार तो लड़ाई से पहले से ही तेज चल रहा था. साल 2021- 22 में भारत ने 7 मिलियन टन गेहूं का निर्यात किया जो कि आमतौर पर 2 मिलियन टन रहा करता था.
पहले से ही बाजार में तेजी के कारण गेहूं की MSP से ज्यादा भाव निजी क्षेत्र में मिल गया. भारत ने भारी मात्रा में गेहूं का निर्यात भी किया. जिसके कारण सरकार अपने लक्ष्य के मुताबिक गेंहू खरीद भी नहीं पाई. विपत्ति को अवसर के तौर पर देखते हुए बड़े निर्यात लक्ष्य भी निर्धारित किए गए लेकिन घरेलू खाद्य सुरक्षा को देखते हुए सरकार ने अचानक निजी क्षेत्र से गेहूं निर्यात पर बैन लगा दिया था.
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कम हुई खाद की कीमतें लेकिन पहले से ज्यादा हैं दाम
खाद्यान्न और बाकी फसलों के उत्पादन में उर्वरकों पर बहुत ज्यादा निर्भर है. उर्वरकों के आयात बंद करने के बाद श्रीलंका में आए खाद्य संकट का उदाहरण हमारे सामने है. रूस दुनिया का सबसे बड़ा यूरिया निर्यातक है. दूसरा नम्बर चीन का है. पिछले साल 24 फरवरी को एक महत्वपूर्ण उर्वरक UREA का दाम 216 डॉलर प्रति टन पर था. युद्ध की घोषणा के वक्त तक यूरिया की कीमत तीन गुना बढ़ कर 600 डॉलर प्रति टन पर पहुंच गई थी.
युद्ध के बाद आपूर्ति की आशंकाओं के चलते यूरिया की कीमत में 30 प्रतिशत की वृद्धि हो गई. 17 मई 2022 को यूरिया अपने उच्चतम दाम 860 डालर प्रति टन तक पहुंच गया था. हालांकि, इसके बाद से दामों में कमी आई है और अभी दाम कमोबेश युद्ध होने की कीमत के स्तर पर ही हैं. भारत पर भी इसकी बढ़ती कीमतों का प्रभाव पड़ा. साल 2022 में भारत ने अपनी यूरिया जरूरत का 20 प्रतिशत और DAP का करीब 30 प्रतिशत आयात किया था. इस साल के बजट में भी भारत का फर्टिलाईजर सब्सिडी बिल 1 लाख करोड़ से ज्यादा रहने का अनुमान लगाया गया है.
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रूस-यूक्रेन युद्ध के 6 महीने बाद ऊर्जा और खाद्य संकट का हाल, कितना सुलझा कितना उलझा?