डीएनए हिंदी: दूसरे देशों के युद्ध में कोई भी देश अपनी सेनाओं को झोंकना नहीं चाहता. यूक्रेन (Ukraine) और रूस (Russia) के बीच छिड़ी जंग का आज तीसरा दिन है. दोनों देशों के बीच जंग ने यह संदेश स्पष्ट तौर पर दे दिया है. वैश्विक कूटनीति में एक बात बात और उभरकर सामने आई है कि अगर आपका पड़ोसी रूस की तरह ताकतवर हो तो आपको उससे बनाकर रखनी चाहिए. अगर आप ताकतवर पड़ोसी देश से दुश्मनी को बढ़ाएंगे और दूर के दोस्त को यूक्रेन की तरह पनाह देंगे तो नतीजे भयावह हो सकते हैं.
उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (NATO) और अमेरिका (USA) का रूस के खिलाफ रुख यही संदेश दे रहा है. केवल आर्थिक प्रतिबंध लगाना युद्ध की स्थिति में पर्याप्त नहीं है. वह भी तब, जब रूस जैसा महाबली देश सामने हो. रूस और यूक्रेन के बीच जारी युद्ध के तीसरे दिन तक उत्तरी और पश्चिमी यूक्रेन पर रूस का कब्जा हो गया है. न यूक्रेन में नाटो की सेनाएं पहुंची हैं, न ही अमेरिका अपनी सेनाएं भेजने वाला है.
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50 घंटे से ज्यादा वक्त पहले ही बीत चुका है. रूस का सैन्य ऑपरेशन यूक्रेन के कई हिस्सों को तबाह कर चुका है. सवाल यह उठ रहा है कि दुनिया की सबसे बड़ी ताकतें सो क्यों रही हैं. क्या उनका समर्थन महज जुबानी है?
खल रही है पश्चिमी देशों की चुप्पी
यूक्रेन पर रूस के हमले ने अमेरिका, पश्चिमी देशों और नाटो, यूरोपीय संघ और संयुक्त राष्ट्र जैसे संगठनों की पोल खोल दी है. ऐसे सभी पश्चिमी देश और महाशक्तियां केवल लोकतंत्र और शांति पर सम्मेलन और सेमिनार आयोजित कर सकते हैं. दिग्गज देश यूक्रेन की संकट पर बयान भले ही दे रहे हों लेकिन यूक्रेन की मदद करने की हिम्मत इनमें भी नहीं हैं.
आर्थिक प्रतिबंध से नहीं दबेगा रूस!
अमेरिका खुद को दुनिया का सबसे पुराना लोकतंत्र कहता है. संयुक्त राष्ट्र दुनिया के 80 करोड़ लोगों के मानवाधिकारों की रक्षा की बात करता है. नाटो शांति और सहयोग की बात करता है. यूरोपीय संघ खुद को लोकतंत्र का चैंपियन बताता है. सभी देशों के संयुक्त प्रयास यूक्रेन के लिए क्या हैं, यह किसी से छिपा नहीं है. इन देशों ने रूस पर आर्थिक प्रतिबंध लगाए हैं, जिनका कोई महत्व नहीं है. रूस दिग्गज देश है, उसका व्यापार अगर यूरोप नहीं तो एशिया में फलेगा-फूलेगा.
दगाबाज निकला NATO!
नाटो की दगाबाजी ने यूक्रेन को तबाह कर दिया है. जब 1991 में सोवियत संघ का विघटन हुआ था तब नाटो ने रूस से वादा किया था कि अगर वह भविष्य में किसी भी समय वारसा संधि (Warsaw Pact) को खत्म करता है तो नाटो, पूर्वी यूरोप के उन देशों को अपने सैन्य संगठन में शामिल नहीं करेगा जो पहले सोवियत संघ का हिस्सा थे.
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विश्वासघाती रहा है हमेशा नाटो का रुख!
नाटो की तरह वारसा संधि, सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप के देशों का एक सैन्य गठबंधन था. 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद रूस ने इस समझौते को इस उम्मीद में समाप्त कर दिया कि नाटो भी अपना वादा पूरा करेगा. नाटो ने अपना वादा पूरा नहीं किया. नाटो ने एस्टोनिया, लातविया, पोलैंड और रोमानिया जैसे देशों को अपने संगठन में शामिल कर लिया. यह देश कभी वारसा संधि शामिल थे, जो इस संधि के मुताबिक सोवियत संघ का हिस्सा थे. नाटो ने आज तक केवल विश्वासघात किया है और आज यूक्रेन और रूस के बीच हो रहे युद्ध की जड़ में यही मुख्य कारण है.
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पश्चिमी देशों की दगाबाजी से तबाह हुआ यूक्रेन
इसी तरह 2003 में नाटो ने जॉर्जिया से वादा किया था कि वह भविष्य में उसे अपना सदस्य बनाएगा. नाटो ने बात नहीं की और रूस और जॉर्जिया के बीच संबंध खराब हो गए. नतीजा यह निकला कि दोनों देशों के बीच साल 2008 में भीषण युद्ध हुआ. अब यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोडिमिर जेलेंस्की को भी (Volodymyr Zelensky) का भी नाटो देशों से मोहभंग हो गया है. रूसी हमले में तबाह हो रहे देश को देखकर जेलेंस्की ने शुक्रवार को यह कह दिया कि दिग्गज देशों ने बड़े वादे किए लेकिन यूक्रेन की मदद के लिए कोई नहीं आया.
दुनिया को गुमराह करते हैं पश्चिमी देश
नाटो की तरह अमेरिका और ब्रिटेन जैसे दिग्गज देश भी लोकतंत्र और शांति के नाम पर दुनिया को गुमराह करते हैं. जब भी दो देशों के बीच तनाव भड़कता है और एक देश बेहद ताकतवर होता है तो ऐसे देश मुंह मोड़ लेते हैं. अगर यूक्रेन ने बुडापेस्ट मेमोरेंडम के वक्त सही फैसला लिया होता और अमेरिका और ब्रिटेन के इशारे पर अपने परमाणु हथियारों को नष्ट नहीं किया होता तो शायद युद्ध की मौजूदा स्थिति अलग होती. यूक्रेन आत्मविश्वास से अपनी रक्षा कर पाता. यूक्रेन पर पश्चमी देशों, अमेरिका और नाटो पर भरोसा जताना बहुत भारी पड़ गया है.
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