इस खास एक्सपेरिमेंट की थीम है कि किताबें पढ़िए, सजा कम करवाइए और फिर मुस्कुराते हुए बाहर जाइए. ऐसा करके देश की जेलों में बंद सैकड़ों कैदियों को किताबें पढ़ने के लिए प्रोत्साहित भी किया जा रहा है.
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बोलीविया की भीड़भाड़ वाली जेलों में कैदियों की संख्या कंट्रोल करने के लिए यह तरकीब आजमाई गई है. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक बोलीविया में मौत की सजा या उम्रकैद की सजा नहीं है. ऐसे में यह तरीका कैदियों को खूब रास आ रहा है. जेल प्रशासन भी इस प्रोजेक्ट की कामयाबी से बेहद खुश है.
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बोलिविया में फिलहाल हर तरफ इसी स्कीम की चर्चा है. इस कार्यक्रम के तहत जेल में कैद बंदियों को उनकी रिहाई की तारीख से कुछ दिन या कुछ हफ्ते पहले जेल से बाहर निकलने का मौका मिलता है. यह कार्यक्रम देश की 47 जेलों में एक साथ शुरू किया गया है.
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WION में छपी रिपोर्ट के मुताबिक बोलीविया में आजीवन कारावास या मृत्युदंड का प्रावधान नहीं है. वहीं देश की धीमी यानी सुस्त न्याय प्रणाली की वजह से यहां की सभी जेलों में क्षमता से ज्यादा कैदी भर गए हैं. ऐसे में कैदियों की संख्या को कंट्रोल करने के मकसद से इस कार्यक्रम की शुरुआत की गई है. अच्छी बात यह है कि इसके बड़े ही सकारात्मक नतीजे दिख रहे हैं.
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जेल में बंद 865 कैदियों को किताबें पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है. इस कार्यक्रम के तहत कैदियों के लिए हर जेल में लाइब्रेरी बनाई गई है. जहां से वे किसी भी विषय की किताब पढ़ सकते हैं. यही वजह है कि इन दिनों जेल के लगभग हर दूसरे या तीसरे कैदी के हाथों में किताबें नजर आ रही हैं. हर किताब को पढ़ने के बाद कैदियों का टेस्ट लिया जाता है. उसमें नंबर के आधार पर सजा को कम करने का फैसला होता है. ऐसी ही एक कैदी जैकलीन एक साल में आठ किताबें पढ़ चुकी हैं वो चार रीडिंग टेस्ट पास कर चुकी हैं. उनका कहना है कि सुधरने की कोशिश कर रहे कैदियों के लिए यह एक अच्छी शुरुआत है.
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इस कार्यक्रम से प्रेरणा लेकर ब्राजील में भी कुछ ऐसे ही प्रोग्राम की शुरुआत की गई है. वहीं बोलिविया के मानवाधिकार संगठनों की बात करें तो उनके मुताबिक देश की जेलों के हालात बेहद खराब हैं. वहां बंद कैदी भीड़ और गंदगी से परेशान हैं. अक्सर यहां की जेलों में कैदी अपने बुरे हालातों को लेकर प्रदर्शन करते रहते हैं. ऐसे में कई कैदी इस स्कीम का फायदा उठाने के लिए लगातार पढ़ाई कर रहे हैं. वहीं सजा कम कराने के लिए वो कैदी भी पढ़ना सीख रहे हैं जो किसी मजबूरी की वजह से पढ़ लिख नहीं पाए.