देश की राजधानी दिल्ली. यहां विधानसभा चुनाव के नतीजे आए 10 दिन हो चुके हैं, लेकिन नए मुख्यमंत्री का ऐलान अब तक नहीं हुआ है. बताया जा रहा है कि 20 फरवरी को भाजपा नए सीएम का चुनाव करेगी और उसी दिन शपथ ग्रहण भी होगा. जाहिर है तब कार्यवाहक मुख्यमंत्री के रूप में आतिशी का कार्यकाल खत्म हो जाएगा, लेकिन दिल्ली से सटे उत्तर प्रदेश में एक ऐसा भी मौका आया था जब एक साथ दो मुख्यमंत्री थे.  एक जिसके पास विधानसभा में बहुमत था और दूसरा जो बहुमत होने का दावा कर रहा था. राज्यपाल इतनी जल्दबाजी में थे कि विधानसभा में शक्ति परीक्षण के बिना ही उन्होंने नए मुख्यमंत्री को शपथ दिला दी थी. हालांकि, 31 घंटे बाद ही कोर्ट का फैसला आ गया और नए सीएम को इस्तीफा देना पड़ा.

1998 का वाकया
यह वाकया साल 1998 का है. तब कल्याण सिंह यूपी के मुख्यमंत्री थे. 21 फरवरी, 1998 को बसपा नेता मायावती ने लखनऊ में घोषणा कर दी कि कल्याण सिंह की सरकार गिरने वाली है. इसके बाद वे अपनी पार्टी के साथ अजीत सिंह की किसान कामगार पार्टी, जनता दल और सरकार का समर्थन कर रहे लोकतांत्रिक कांग्रेस के विधायकों को लेकर राजभवन पहुंच गईं. तब रोमेश भंडारी राज्यपाल थे. मायावती ने राज्यपाल के सामने दावा किया कि कल्याण सिंह सरकार विधानसभा में अपना बहुमत खो चुकी है. उन्होंने जगदंबिका पाल को नए मुख्यमंत्री के रूप में शपथ दिलाने की मांग की जो कल्याण सिंह की कैबिनेट में मंत्री थे.

कल्याण सिंह से नाराज थे राज्यपाल
लखनऊ में जब मायावती विधायकों के साथ राज्यपाल से मिल रही थीं, कल्याण सिंह गोरखपुर में एक चुनावी रैली को संबोधित कर रहे थे. वे भागे-भागे लखनऊ आए. उन्होंने राज्यपाल से कहा वे विधानसभा में अपना बहुमत सिद्ध करने को तैयार हैं, लेकिन रोमेश भंडारी तो पहले ही उन्हें बर्खास्त करने का मन बना चुके थे. इसके पीछे भी एक वजह थी. करीब पांच महीने पहले यूपी विधानसभा में एक अभूतपूर्व घटना हुई थी. 21 अक्टूबर, 1997 को यूपी विधानसभा में जबरदस्त अफरा-तफरी हुई थी. हालात इतने खराब हो गए थे कि सत्ताधारी और विपक्षी विधायक एक-दूसरे पर माइक और कुर्सियों से हमला करने लगे. अफरातफरी के बीच मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को सुरक्षा बलों के संरक्षण में सदन से बाहर निकालना पड़ा था. विधानसभा में हुई इस घटना से राज्यपाल बेहद नाराज थे. वो राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाना चाहते थे, लेकिन केंद्र में सत्तारूढ राष्ट्रीय मोर्चे की सरकार ने उनकी सिफारिश नहीं मानी. राज्यपाल तब से ही कल्याण सिंह से खार खाए बैठे थे.

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रात 10 बजे दिलाई शपथ
मायावती के दावे ने रोमेश भंडारी को इसका मौका दे दिया. मायावती से मुलाकात के कुछ घंटे बाद राज्यपाल ने कल्याण सिंह सरकार को बर्खास्त कर दिया. 21 फरवरी की रात के 10 बजे उन्होंने आनन-फानन में जगदंबिका पाल को सीएम पद की शपथ दिला दी. राज्यपाल इतनी जल्दी में थे कि राजभवन में शपथ ग्रहण समारोह के बाद राष्ट्रगान तक नहीं बजा. जगदंबिका पाल पहले कांग्रेस में थे, फिर तिवारी कांग्रेस में चले गए थे. 1997 में उन्होंने नरेश अग्रवाल के साथ मिलकर लोकतांत्रिक कांग्रेस बनाई और कल्याण सिंह सरकार में शामिल हो गए थे. कल्याण सिंह की बर्खास्तगी के बाद वे सीएम तो बन गए, लेकिन उनकी यह खुशी कुछ घंटे तक ही बनी रह सकी.

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सीएम की कुर्सी के दो दावेदार
एक तरफ जगदंबिका पाल का शपथ ग्रहण हो रहा था तो दूसरी तरफ राज्यपाल के फैसले के खिलाफ बीजेपी विरोध जता रही थी. अगले दिन लखनऊ में लोकसभा चुनाव के लिए मतदान होना था. इसी बीच अटल बिहारी वाजपेयी राज्यपाल के फैसले के खिलाफ स्टेट गेस्ट हाउस में अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल पर बैठ गए. लखनऊ के राज्य सचिवालय में भी अजीब स्थिति थी. दो लोग मुख्यमंत्री होने का दावा कर रहे थे. सचिवालय के कर्मचारी भी पसोपेश में थे कि किसकी बात सुनें. इधर, राज्यपाल के निर्णय के खिलाफ बीजेपी कोर्ट पहुंच गई. 22 फरवरी को बीजेपी नेता नरेंद्र सिंह गौड़ ने राज्यपाल के फैसले की वैधता को चुनौती देते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट में याचिका दायर की. अगले दिन तीन बजे हाई कोर्ट का फैसला आया. कोर्ट ने जगदंबिका पाल की नियुक्ति को गैरकानूनी करार दिया. कोर्ट ने अपने फैसले में कल्याण सिंह सरकार को बहाल करने का आदेश देते हुए उन्हें तीन दिन के अंदर विधानसभा में बहुमत साबित करने का निर्देश दिया.

अड़ गए जगदंबिका पाल
इधर, जगदंबिका पाल भी अड़े हुए थे. कोर्ट का फैसला आने के बाद भी जगदंबिका पाल अपने पद से इस्तीफा देने को तैयार नहीं थे. उन्होंने शर्त रख दी कि जब तक हाई कोर्ट के आदेश की कॉपी नहीं मिलेगी, वे इस्तीफा नहीं देंगे. हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में याचिका भी दाखिल की. सुप्रीम कोर्ट ने बीच का रास्ता निकाला और कहा कि अगले 48 घंटे के भीतर विधानसभा में कैमरे की निगरानी में ‘कंपोजिट फ्लोर टेस्ट’ होगा. उसमें जो जीतेगा, उसे मुख्यमंत्री माना जाएगा. तब तक के लिए दोनों (जगदंबिका पाल और कल्याण सिंह) के साथ मुख्यमंत्री जैसा व्यवहार किया जाएगा, लेकिन कोई भी नीतिगत फैसला फ्लोर टेस्ट के बाद ही होगा.

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फ्लोर टेस्ट में कल्याण सिंह की जीत
26 फरवरी को विधानसभा में शक्ति परीक्षण हुआ. बहुमत के लिए कल्याण सिंह को 213 विधायकों के समर्थन की जरूरत थी. वोटिंग में उनके पक्ष में 225 विधायकों ने वोट डाला. जगदंबिका पाल के पक्ष में 196 वोट पड़े. वोटिंग की प्रक्रिया की वीडियो रिकॉर्डिंग की गई. निगरानी के लिए सदन में 16 वीडियो कैमरे लगाए गए थे. शक्ति परीक्षण का नतीजा आने के बाद बीजेपी के कुछ विधायक जगदंबिका पाल को जबरदस्ती मुख्यमंत्री कार्यालय से बाहर निकालने पर आमादा थे. 

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ऐसे खत्म हुआ कंफ्यूजन
कुछ लोगों का मानना था कि कल्याण सिंह के दोबारा मुख्यमंत्री बनाए जाने के बारे में राजभवन से आदेश जारी होना चाहिए. कानूनविदों से विचार-विमर्श के बाद तय हुआ कि कोर्ट ने जगदंबिका पाल की नियुक्ति को ही अवैध बताया है. इसका मतलब ये हुआ कि कल्याण सिंह का कार्यकाल बीच में टूटा ही नहीं था तो दोबारा नियुक्ति का सवाल नहीं उठता.लेकिन इससे आम लोगों का कंफ्यूजन दूर नहीं होने वाला था. प्रदेश की जनता भी गफलत में थी कि राज्य का मुख्यमंत्री कौन है. सवाल उठा कि आम लोगों और मीडिया तक ये संदेश कैसे पहुंचाया जाए. इसका हल ये निकाला गया कि कल्याण सिंह अपनी कैबिनेट की बैठक बुलाएं और इसका एक प्रेस नोट जारी किया जाए. कल्याण सिंह इसके लिए तैयार हो गए और जगदंबिका पाल भी मुख्यमंत्री कार्यालय से बाहर आ गए. इस तरह मुख्यमंत्री का कंफ्यूजन खत्म हुआ. बाद में रोमेश भंडारी ने यह कहकर पल्ला झाड़ लिया कि उन्हें तो जगदंबिका पाल ने 215 विधायकों के समर्थन की लिस्ट दी थी. सबसे रोचक तो यह है कि आज कल्याण सिंह नहीं हैं और जगदंबिका पाल अब भाजपा के ही सांसद हैं.

 

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when UP had two CMs at one time, Kalyan Singh and Jagdambika Pal, Governor Romesh Bhandari created the confusion, know the story
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...जब यूपी में एक ही समय पर थे दो सीएम, राज्यपाल की 'अनुकंपा' बना कंफ्यूजन
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साल 1998 में एक ऐसा मौका आया था जब यूपी में एक ही समय पर दो मुख्यमंत्री थे. आम लोगों से लेकर राज्य सचिवालय के कर्मचारी भी गफलत में थे कि सीएम किसे मानें.
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