- विमल कुमार
डीएनए हिंदी : हर साल 14 सितंबर को पूरे देश में हिंदी दिवस धूम धाम से मनाया जाता है. हिंदी भाषी लोगों के लिए एक दिन उत्सव का मिल गया है लेकिन सरकारी संस्थानों में हिंदी दिवस अब एक रूटीन कार्यक्रम बन कर रह गया है और अब रस्म अदायगीअधिक दिखाई देने लगी है पर हिंदी दिवस मनाने की परंपरा शुरू होने से सैकड़ों वर्ष पूर्व हिंदी हमारे देश के लोगों की चेतना में समाई हुई थी, नस-नस में व्याप्त थी. इन सैकड़ों वर्षों में हिंदी ने अपनी एक लंबी विकास यात्रा पूरी की है जिसमें हिंदी का रंग ढंग, चाल चलन, शैली ,कहन अंदाज़ और स्वरूप में भी काफी बदलाव हुआ है. अब वह हिंदी नहीं है जो हिंदी कभी अमीर खुसरो के पदों मुकरियों में थी या तुलसीदास की चौपाइयों में थी या फिर विलियम फोर्ट कालेज के सदल मिश्र और लल्लू लाल के गद्य में थी.
बदले हैं हिंदी के रंग
हिंदी की बिंदी के रंग में भी काफी बदलाव हुए और आज उसे कई रंगों और कई आवाजों में देखा सुना जा सकता है. हिंदी को भले ही हमने संविधान सभा मे 14 सितम्बर 1949 को राजभाषा के रूप में अंगीकार किया लेकिन वह लोक भाषा और जन भाषा के रूप में हिंदी पट्टी के हृदय में वर्षों से बसी हुई है. भले ही संविधान द्वारा हमने हिंदी को केवल राज्य भाषा के रूप में मान्यता दी हो लेकिन महात्मा गांधी की दृष्टि में वह राष्ट्रभाषा की हकदार रही.यह अलग बात है कि उसे आज तक इस रूप में स्वीकार नहीं किया गया.
इसका एक बड़ा कारण है कि भारत एक बहु सांस्कृतिक देश है और यहां कई भाषाएं लिखी और बोली जाती हैं, इसलिए हिंदी को भारतीय भाषाओं को दरकिनार कर ‘राष्ट्रभाषा’ का दर्जा नहीं दिया जा सका लेकिन पूरे देश में एक संपर्क भाषा के रूप में हिंदी ही आज व्यावहारिक रूप से ‘राष्ट्रभाषा’ भी बनी हुई है.
दरअसल आज हिंदी जिस रूप में मौजूद है उसे एक लंबा संघर्ष भी करना पड़ा है. अगर आप देवनागरी लिपि के इतिहास को पढ़ें और जानें तो पता चलेगा कि उसे उर्दू के बरक्स एक लंबी लड़ाई लड़नी पड़ी थी क्योंकि अंग्रेजों के जमाने में कोर्ट कचहरियों की भाषा उर्दू ही थी वह शासन की भाषा थी. महावीर प्रसाद द्विवेदी ने सरस्वती में 1910 के आस-पास एक लेख लिखा था जिसमें बताया गया था कि उस जमाने में उर्दू की किताबें हिंदी से अधिक संख्या में छपती थी और हिंदी को उचित दर्जा प्राप्त नहीं था धीरे-धीरे हिंदी का विकास हुआ और हिंदी सेवियों कोश निर्माताओं पत्रकारों लेखकों और राष्ट्रीय आंदोलन के नेताओं ने हिंदी का प्रचार प्रसार किया.इसमें उर्दू मराठी बंगला और दक्षिण भारत के भी लोग शामिल थे. हम सब जानते हैं कि प्रेमचंद जैसे लेखक उर्दू से ही हिंदी में आए थे. उससे पहले हिंदी साहित्य उस रूप में मौजूद नहीं हुआ था यद्यपि लाला श्रीनिवास दास श्रद्धाराम फिल्लौरी देवकी नंदन खत्री के उपन्यास आ चुके थे और उनकी महत्ता तथा लोकप्रियता समाज में काफी सिद्ध हो चुकी थी.इस तरह हिंदी आधुनिक हिंदी का इतिहास डेढ़ सौ साल का इतिहास है. वैसे तो उदंड मार्तंड से हिंदी पत्रकारिता का आरंभ हो चुका था लेकिन क्या कारण है इतना सारा कुछ होने के बाद भी हिंदी को आज भी वह दर्जा नहीं मिल पाया जो उसकी हकदार है.असल में हिंदी को एक औपनिवेशिक दासता की मानसिकता से आज तक संघर्ष करना पड़ा है और आज भी हिंदी को अंग्रेजी के सामने कई बार कमतर कमजोर और लाचार पेश किया जाता है लेकिन यह वास्तविकता नहीं है बल्कि यह शासक वर्गों की नीतियों का नतीजा है.
हिंदी में केवल खड़ी हिंदी के शब्द नहीं हैं
हिंदी में केवल खड़ी हिंदी के शब्द नहीं हैं बल्कि तत्सम और देशज शब्द हैं उसमें बोलियां की मिठास है उर्दू फारसी अरबी पुर्तगाली और फ्रेंच तथा इतालवी शब्द भी घुले मिले हैं.दरअसल हमने हिंदी को केवल हिंदी दिवस के हाल पर छोड़ दिया और यह धीरे-धीरे कर्मकांड और पाखंड की भाषा भी बनती चली गई.शायद यही कारण है कि रघुवीर सहाय ने में हिंदी की स्तिथि पर एक बहुचर्चित कटाक्ष पूर्ण कविता लिखी थी जिसको लेकर उस जमाने में बड़ा विवाद भी खड़ा हुआ था और श्रीनारायण चतुर्वेदी जैसे लोगों ने तब बड़ा विरोध किया था. लेकिन हर साल हिंदी दिवस मनाने का सिलसिला खत्म नहीं हुआ और आज भी जारी है. अक्सर यह प्रश्न उठाया जाता है क्या हिंदी का कोई भविष्य है पर अब तो वह बाजार की भी भाषा बन गई है. वह गूगल और सोशल मीडिया की भाषा बन गई है. टाइपराइटर के बाद कम्प्यूटर की भाषा बन गयी है. अब तो वह गूगल ट्रांसलेशन की भाषा है और हिंदी में बोलकर हिंदी में टाइप करने के एप्प भी आ गए हैं.हिंदी फिल्मों और हिंदी गीतों ने हिंदी को जितना फैलाया है उतना तो शायद हिंदी लेखकों ने नहीं फैलाया होगा. नई आर्थिक नीति के बाद देश में जिस तरह बाजार फैला है उस बाजार ने भी हिंदी को प्रचारित प्रसारित किया है. हिंदी के चैनलों ने भी हिंदी का प्रचार प्रसार बहुत किया है लेकिन सरकारी कामकाज में जो हिंदी का प्रयोग किया जा रहा है वह कृतिम भाषा है. दरअसल वह अनुवाद की भाषा है बनकर रह गई है.राष्ट्रपति के अभिभाषण से लेकर संसद की कार्यवाही भी अंग्रेजी में होती है और उसका हिंदी अनुवाद पेश होता है.आज भी सरकारी कामकाज में पहले अंग्रेजी का ही प्रयोग होता है और बाद में उसका हिंदी अनुवाद किया जाता है.दरअसल हमारी नौकरशाही हिंदी में लिखने पढ़ने में निर्णय लेने और टिप्पणियां करने में सक्षम नहीं है.आजादी के 75 साल बाद भी हम नए संसद भवन का नाम अंग्रेजी में सेंट्रल विस्टा रख रहे हैं.
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हिंदी में बेहद कम हैं रोजगार के अवसर
इससे हिंदी की स्थिति का पता चलता है. राजनीतिक मजबूरियों और वोट बैंक के कारण हिंदी आज जरूर चुनाव की भाषा है. हिंदी भाषी इलाकों में नेताओं को इससे वोट मिलता है लेकिन हिंदी में रोजगार के अवसर कम है.कोई भी भाषा तभी विकसित होती है जब उसमें रोजगार हो उसमें शोध कार्य हो अनुसंधान हो लेकिन अभी भी समाज विज्ञान की भाषा के रूप में मेडिकल साइंस की भाषा के रूप में तकनीकी विज्ञान की भाषा में रूप में हिंदी का पर्याप्त विकास नहीं हुआ है.एक जमाना था जब बिहार राष्ट्र भाषा परिषद से रबर पेट्रोलियम की किताबें और समाज विज्ञान की किताबें उपलब्ध थीं. काशी नागरी प्रचारिणी सभा हिंदी साहित्य सम्मेलन ने हिंदी के प्रचार प्रसार में भूमिका निभाई अब ऐसी संस्थाएं नहीं है जो हिंदी के लिए काम करें. दरअसल जब तक हम हिंदी को केवल हिंदी पट्टी की भाषा बनाकर रखेंगे हिंदी का यह हाल रहेग. महात्मा गांधी ने 1918 मेंही दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा का गठन किया था. पी वी नरसिंह राव जैसे लोग उसके माध्यम से हिंदी के प्रचारक बने थे.आज भी हिंदी के लिए काम करनेवाले लोग हैं उन्हें पहचानने मंच पर लाने की जरूरत है. दिनकर ने बहुत पहले कहा था कि हिंदी को भारतीय भाषाओं के साथ मिलकर काम करना पड़ेगा तभी वह अंग्रेजी के खिलाफ अपनी लड़ाई लड़ सकेगी.
हिंदी को वह सम्मान जरूर मिले जिसकी वह हकदार है और यह तभी संभव है जब हिंदी साहित्य के लेखक पत्रकार शिक्षक से लेकर हिंदी में काम करने वाले सभी लोग और नौकरशाही तथा राजनेता हिंदी से प्यार करें उसे पढ़े लिखें और इस बात को समझें हिंदी का विकास करना बहुत जरूरी है तभी हिंदी मजबूत होगी. उसे 14 सितंबर के भरोसे न छोड़ें तभी हिंदी की बिंदी चमकेगी.
(यहां प्रस्तुत विचार लेखक के नितांत निजी विचार हैं. यह आवश्यक नहीं कि डीएनए हिन्दी इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे और आपत्ति के लिए केवल लेखक ज़िम्मेदार है)
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बेहद कम हैं रोजगार के अवसर, ऐसे में हिंदी की बिंदी कब चमकेगी?