पल्लवी त्रिवेदी
पुनाखा इत्ते किमी ,पुनाखा उत्ते किमी तो लिखा रास्ते भर दिखता रहा लेकिन जब पुनाखा आया तो कहीं कोई माइल स्टोन नहीं था.तो पुनाखा पहुंचने के चक्कर में हम पुनाखा से काफी आगे निकल गए. पन्द्रह बीस मिनिट बाद भी पुनाखा कहीं नज़र नहीं आया बल्कि जो आबादी और कस्बाई एहसास थोड़ी देर पहले हुआ था वो भी इस सुनसान पर्वत प्रदेश में खो गया.
'लगता है, पुनाखा पीछे छूट गया ' मैंने कहा.
' हां ...जहां नदी किनारे कुछ गाड़ियां खड़ी थीं, वही शायद पुनाखा था, कुछ रिजॉर्ट भी दिख रहे थे वहां ' गड्डू ने आगे जोड़ा.
हम्म..लौटते हैं.
यूं मिला खोया हुआ पुनाखा
देवेन ने गाड़ी वापस घुमा दी. अब ढाई बज चुके थे और हम भूख से बेहाल थे.कोई रेस्टॉरेंट भी नज़र नहीं आ रहा था. सब अपने अपने मोबाइल्स में होटल ढूंढने की कवायद में लग गए थे.वापस लौटते हुए अचानक दायीं ओर पहाड़ पर दूर एक होटल नज़र आया. वास्तव में दूर से देखने में और इन्टरनेट पर भी देखने पर प्रॉपर्टी मंहगी लग रही थी. मगर हमने जाने का निश्चय किया. मंहगी प्रॉपर्टी में रुकने लायक कैश नहीं था हमारे पास. शायद अब ले देकर पंद्रह हज़ार रूपये पड़े होंगे. फिर भी हमने सोचा कि देखने में कोई बुराई नहीं है. एक तो इसलिए कि हो सकता है बड़े होटल्स कार्ड एक्सेप्ट करते हों और दूसरा यह कि कमरे नहीं भी मिले तो खाना तो मिल ही जाएगा.
जैसे ही ऊपर पहाड़ पर पहुंचे तो वहां से नीचे घाटी का नज़ारा बेहद सुंदर होता जा रहा था. होटल काफी ऊंचाई पर स्थित था. रिसेप्शन पर पहुंचे तो पता चला कि होटल में कोई कमरा खाली नहीं है. कोई डेलिगेशन आया हुआ है तो पूरा होटल बुक है.
और खाना ?
हां ..वो मिल जाएगा. डायनिंग हॉल में बुफे लंच लगा हुआ है. लेकिन आप चार लोग हो ,कहीं कम न पड़ जाए आप लोगों को. रुकिए, मैं पूछ कर बताती हूं.
'हम तो कम-कम ही खाते हैं. हो जाएगा सबका .' हम इस बुफे लंच को मिस नहीं करना चाहते थे जिसकी एक लज्ज़त भरी झलक हम खुले हुए दरवाज़े से देख चुके थे.
ठीक है ..आप जा सकते हैं. 600 पर पर्सन.
ओके ...
हम सीधे डायनिंग हॉल में पहुंचे जहां खाने की ख़ूब सारी वैरायटियां अपनी लजीज़ गंध बिखेरते हुए हमारा इंतज़ार कर रही थीं. जब वहां पहुंचे तो थोड़ी निराशा हुई क्योंकि आधे से ज्यादा व्यंजन मांसाहारी थे और देवेन के अलावा हम तीनों शुद्ध शाकाहारी. लेकिन फिर भी हमारे लिए काफी विकल्प थे. सबसे ज्यादा ख़ुशी इस बात की थी कि यहां एमा दात्शी भी थी और इसके साथ अन्य भूटानी डिश भी थीं.
डायनिंग हॉल में ज्यादातर विदेशी ही थे. यही डेलिगेशन था शायद जो इस होटल में ठहरा हुआ है. हमें देखकर सब विश करते हुए मुस्कुरा रहे थे. विदेशियों की ये आदत तो कसम से जान ले लेती है और एक हम हिन्दुस्तानी हैं जो किसी अजनबी को देखकर मुस्कुराना जानते ही नहीं. बल्कि कोई जान पहचान वाला भी हो तो दायें बाएं देखकर बचने की कोशिश करते हैं कि अभी देख लिया तो बात करना पड़ जाएगा. मुस्कुराने में कंजूसी करके जाने क्या बचा लेते हैं हम.
मोचू पोचू नदी हैं या प्रेमी-प्रेमिका
एक विदेशी लड़की अपना लैपटॉप लेकर कॉफ़ी पीते हुए बेहद तल्लीनता से अपना कोई काम कर रही थी. उसे देखकर लगा कि शायद वह भी अपनी ट्रेवल डायरी लिख रही है या शायद भूटान पर कोई प्रोजेक्ट वर्क.बहरहाल हम अपना खाना लेकर हॉल से बाहर टेरेस पर आ गए और वहां से नीचे घाटी का नज़ारा देखकर मंत्रमुग्ध हो गए. निस्संदेह यह हमारी जिंदगी का मोस्ट सीनिक लंच था.नीचे घाटी में बहती हुई दो नदियां जो इतनी ऊपर से दूध की धारों-सी दिखाई दे रहीं थीं और जो एक पहाड़ी के पीछे से अलग अलग आ रही थीं और पहाड़ी के आगे आकर एक हो गयी थीं. वेटर ने बताया कि ये नदियां मोचू और पोचू हैं. यहां चू का अर्थ नदी और मो प्रतीक है स्त्री का और पो पुरुष का. इस अर्थ में दो प्रेमी यहां मिलकर एक होते हैं. स्त्री और पुरुष के मिलन का प्रतीक. यह कथा जानने के बाद जब उन नदियों को दुबारा देखा तो सचमुच एक प्रेमी और प्रेमिका नज़र आये जो जाने कितनी दूरी तय करके अलग अलग दिशाओं से चले आ रहे हैं और आलिंगन रत एक हो आगे हमसफर बने चले जा रहे हैं. यहां हमारी आंखें उन्हें आते हुए और मिलते हुए एक साथ देख रही हैं. अहा ..कितना सुंदर दृश्य. प्रेम में विरह चाहे जितना लम्बा हो लेकिन अंत मिलन पर ही होना चाहिए.
नदियों के पास दूर दूर तक फैले हुए चावल के खेत.और जहां तक नज़र जाए वहां तक जीवन का प्रतीक गहरा हरा रंग. आसमान साफ़ था और उसके गहरे नीले रंग के मेजपोश पर सफ़ेद बादलों के फूल टंके हुए थे. प्रकृति से बड़ा कलाकार कोई नहीं. कुश फेसबुक पर इस लोकेशन को लाइव कर रहा था और मेरे सामने मोबाइल लाकर कह रहा था कि कुछ कहूं और मैं मुंह में कोई व्यंजन भरे सिर्फ इतना कह पायी कि बहुत भूख लगी है.
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खाना बेहद स्वादिष्ट था और भूटानी जायका भी हमें पसंद आया.लेकिन यह भी था कि बार-बार इसे नहीं खा सकते. एक आध बार के लिए ठीक है. और अपने इस निर्णय पर संतोष भी हुआ कि इन व्यंजनों को एक अच्छी जगह आकर ही खाया. शायद अच्छी तरह ना बनाए जाने पर ये हमें पसंद नहीं आते.
नदी के किनारे का वह आसरा!
भोजन करके जब निपटे तो साढ़े तीन बज चुके थे. अभी भी होटल ढूंढना था पर अब पेट पूजा हो चुकी थी तो कोई टेंशन नहीं था.होटल से नीचे उतरते हुए हम घाटी को देखते हुए आये. ये नज़ारा अब नहीं देखने को मिलेगा क्योंकि हम नदी के किनारे किसी रिजॉर्ट में रुकने का मूड बना रहे थे और इस ऊंचाई पर पुनाखा में अब शायद आना न हो. नीचे पहुंचे तो जीपीएस के बजाय लोकल व्यक्ति से पूछताछ की क्लासिकल मेथड पर भरोसा किया और एक पेट्रोल पम्प पर पहुंचे जहां पता चला कि पुनाखा इस पूरी घाटी का नाम है इसलिए इसका कोई माइल स्टोन कहीं मिलेगा भी नहीं. यह जो कस्बा है ' ' यही है जो है सो. यहीं पर्यटक आते हैं और यहीं काफी सारे रिजॉर्ट भी हैं. तब तक कुश ने एक रिजॉर्ट सिलेक्ट कर लिया था जो उस स्थान से मुश्किल से एक किमी दूर था. सबसे पहले उसी को देखने का इरादा किया। रिजॉर्ट का नाम था ' डेमचेन ' और जब वहां पहुंचे तो बाहर से ही मन आनंदित हो गया. मोचू-पोचू नदी के एकदम किनारे पर बना हुआ यह रिजॉर्ट रुकने के लिए एकदम मुफीद था. लेकिन जब तक कमरे ना देख लिए जाएं तब तक कुछ नहीं कह सकते. और थिम्फू के अनुभव के बाद तो अब गद्दे भी दबाकर देखने होते हैं कि कहीं स्प्रिंग तो नहीं उछल रहीं.
(पल्लवी त्रिवेदी मध्य प्रदेश सरकार में पुलिस अधिकारी हैं. उनके चुटीले व्यंग्य की जनता मुरीद है. )
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