आज के DNA TV Show में हमने सुप्रीम कोर्ट के उस चाबुक का विश्लेषण किया जो उसने इलेक्टोरल बॉन्ड पर चलाया है. अगर किसी आम आदमी के बैंक अकाउंट में एक पैसा भी बेनामी आ जाए तो उसका सारा रिकॉर्ड सरकार के पास चला जाता है क्योंकि सरकार का अधिकार है कि वह आम जनता की कमाई के एक-एक पैसे का हिसाब देख सके. आप इससे तो इत्तेफाक रखते ही होंगे लेकिन किसी राजनीतिक दल को मिलने वाले चंदे की जानकारी पाना नागरिकों का मौलिक अधिकार नहीं है. 

आप भले ही इस विचार से इत्तेफाक रखें या ना रखें लेकिन ये भारत सरकार का आधिकारिक विचार है और सरकार के इस विचार से अटॉर्नी जनरल यानी सरकार के सबसे बड़े वकील, सुप्रीम कोर्ट को भी अवगत करा चुके हैं. जब नवंबर 2023 में चीफ जस्टिस डी.वाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली 5 जजों की संविधान पीठ इलेक्टोरल बॉन्ड को चुनौती दने वाली याचिका पर सुनवाई कर रही थी लेकिन आज सुप्रीम कोर्ट ने कह दिया है कि मतदाताओं को चुनावी फंडिंग के बारे में जानने का अधिकार है ताकि वो अपने मतदान के लिए सही चयन कर सकें.

सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा?
यानी इलेक्टोरल बॉन्ड से मिलने वाले चंदे की रकम को छिपाने के लिए जेम्स बॉन्ड बन रही केंद्र सरकार को सुप्रीम कोर्ट ने जोर का झटका दे दिया है और इसे अवैध करार देते हुए इसके जरिए चंदा लेने पर तत्काल रोक लगा दी है. इस सुप्रीम बैन का मतलब क्या है और इससे राजनीतिक दलों की आर्थिक सेहत पर क्या और कितना असर होगा, आज हम इसी का विश्लेषण करेंगे. लेकिन सबसे पहले आपको इलेक्टोरेल बॉन्ड पर रोक लगाने वाले सुप्रीम कोर्ट के फैसले की बड़ी बातें बताते हैं.


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सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि इलेक्टोरल बॉन्ड, चुनावी लोकतंत्र के खिलाफ है, क्योंकि इसके जरिए कंपनियों की तरफ से राजनीतिक दलों को असीमित फंडिंग का रास्ता खुलता है. सुप्रीम कोर्ट ने ये भी कहा है कि इलेक्टोरल बॉन्ड को गुप्त रखना सूचना के अधिकार और अनुच्छेद 19 (1) (ए) यानी अभिव्यक्ति की आजादी का उल्लंघन है. 

  • SBI, 6 मार्च तक चुनाव आयोग को राजनीतिक दलों का ब्यौरा दे, जिन्होंने 2019 से अबतक इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिये चंदा हासिल किया है.
  • SBI, 6 मार्च तक राजनीतिक दलों की तरफ से कैश किए गए हर इलेक्टोरल बॉन्ड की जानकारी दे.
  • चुनाव आयोग, 13 मार्च तक इलेक्टोरल बॉन्ड की सारी जानकारी अपनी आधिकारिक वेबसाइट पर प्रकाशित करे.

यह फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने छह साल पुरानी इलेक्टोरल बॉन्ड योजना को अवैध करार दे दिया है और इसके जरिए चंदा लेने पर तत्काल रोक लगा दी है लेकिन आखिर सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का आधार क्या है? यह समझने के लिए आपको ये जानना होगा कि इलेक्टोरल बॉन्ड क्या होते हैं और ये क्यों लाए गए थे?


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जनवरी 2018 में केंद्र सरकार इलेक्टोरल बॉन्ड योजना लेकर आई थी. ये एक तरह का Promisery Note होता है, जिसे Bank Note भी कहते हैं. इलेक्टोरल बॉन्ड, एक हजार रुपए से लेकर एक करोड़ रुपये तक की रकम के हो सकते हैं. भारत का कोई भी नागरिक या कंपनियां ये बॉन्ड खरीदकर सियासी पार्टियों को चंदे के रूप में दे सकते हैं. SBI की देशभर में चुनिंदा 29 शाखाओं से ही ये Bonds खरीदे जा सकते हैं.

सुप्रीम कोर्ट ने क्यों लगाया बैन?
इलेक्टोरल बॉन्ड से चंदा देने वाले का नाम गुप्त होता है. इलेक्टोरल बॉन्ड से चंदा लेने वाले का भी नाम गुप्त होता है और इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिये चंदे की रकम का स्रोत भी गुप्त होता है. यानी यानी जिस इलेक्टोरल बॉन्ड योजना को राजनीतिक चंदे में पारदर्शिता लाने के दावे के साथ लाया गया था, उसे गोपनीय रखने के सारे 'फूल प्रूफ' इंतजाम कर दिये गए. जिसके लिए इलेक्टोरल बॉन्ड लाने से पहले ही केंद्र सरकार ने फाइनैंस ऐक्ट 2017 पास किया जिसके तहत तीन कानूनों में बदलाव किए गए.

जिनमें पहला था - जनप्रतिनिधित्व कानून 1951. जिसकी धारा 29 C में संशोधन करके नए प्रावधान जोड़े गए. पहला प्रावधान ये किया गया कि इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिये चंदा देने वाले की जानकारी देना जरूरी नहीं होगा. जबकि बाकी तरीकों से मिले बीस हजार रुपये से ज्यादा के चुनावी चंदे का स्रोत बताना पड़ता है. इतही नहीं, इलेक्टोरल बॉन्ड के लिए IT Act में भी बदलाव किए गए.


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कानूनों में किए गए बदलाव
IT Act 2013 में पहला बदलाव ये किया गया कि इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिये चंदे की रकम असीमित कर दी गई. यानी इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिये कोई कंपनी जितना मर्जी चंदा दे सकती है जबकि 2017 से पहले कंपनी एक्ट के तहत कोई कंपनी पिछले तीन वर्षों के अपने औसत लाभ का केवल साढ़े सात प्रतिशत ही चुनावी चंदा दे सकती थी. यानी इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिये, कंपनियों द्वारा दान की जाने वाली रकम की लिमिट खत्म कर दी गई. आसान शब्दों में कहें तो इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदने के लिए घाटे में चल रही कंपनियों या शेल कंपनियों के इस्तेमाल की छूट दे दी गई क्योंकि चंदा देने वाली कंपनियों को अपनी पहचान छिपाने का परमिट मिल गया.

इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिये चुनावी चंदे को लेकर FCRA यानी Foreign Contribution Regulation Act 2010 में भी बदलाव किया गया. FCRA में पहले प्रावधान था कि कोई भी राजनीतिक दल, किसी भी विदेशी स्रोत से चंदा स्वीकार नहीं कर सकता लेकिन इसमें बदलाव करके ये प्रावधान कर दिया गया कि अगर कोई विदेशी कंपनी, भारत में रजिस्टर्ड है तो वो भी इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिये चंदा दे सकती है.

इस तरह तीन कानूनों में बदलाव करके इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिये चंदा देने वाली कंपनियों को ऐसे चंदे का रिकॉर्ड रखने की अनिवार्यता को खत्म कर दिया गया. इलेक्टोरल बॉन्ड की रकम और जानकारी ना तो चुनाव आयोग को देना जरूरी रहा और ना आयकर विभाग को. मजे की बात देखिये कि इतने सब के बाद भी केंद्र सरकार, इलेक्टोरल बॉन्ड योजना के पारदर्शी होने का दावा करती आई है लेकिन आज सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ ने फैसला सुना दिया है कि इलेक्टोरल बॉन्ड योजना ना तो संवैधानिक है, ना लोकतांत्रिक है और ना वैध.

सीक्रेट रहती थी चंदे की जानकारी
एक बात तो एकदम स्पष्ट है कि छह साल पहले इलेक्टोरल बॉन्ड योजना, चुनावी चंदे में पारदर्शिता लाने की मंशा से तो नहीं ही लाई गई थी क्योंकि इलेक्टोरल बॉन्ड से मिले चंदे की जानकारी से ना सिर्फ आम जनता को दूर रखा गया बल्कि चुनाव आयोग तक से इसकी जानकारी गुप्त रखने का इंतजाम किया गया. आखिर इसके पीछे केंद्र सरकार का मकसद क्या था? इसका फैसला करने के लिए आपको आज सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियों पर गौर करना चाहिए.

सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि प्राथमिक स्तर पर, राजनीतिक योगदान, योगदानकर्ताओं को मेज पर सीट देता है. यानी ये कानून निर्माताओं तक पहुंच बढ़ाता है. ये पहुंच, सरकारी नीतियों के निर्माण पर प्रभाव में तब्दील हो जाती है. बहुत संभावना यह है कि इससे किसी कंपनी को किसी राजनीतिक दल को आर्थिक योगदान के बदले अन्य तरीके से लाभ लेने की व्यवस्था को बढ़ावा मिलता है क्योंकि पैसे और राजनीति में घनिष्ठ संबंध है.

सुप्रीम कोर्ट की इस टिप्पणी का आसान शब्दों में मतलब ये है कि अगर कोई कंपनी किसी राजनीतिक दल को चंदा देती है तो चंदा लेने वाला राजनीतिक दल उस कंपनी के अहसान तले दबा रहता है और सत्ता में आने पर वह कंपनी, अपने हित से जुड़े काम करवाने या अपने फायदे की नीतियां लागू करवाने का दबाव डाल सकती है और सत्ता चलाने वाला राजनीतिक दल चंदा देने वाली कंपनी का अहसान चुकाने के लिए उसके अनुसार काम करता है.

सुप्रीम कोर्ट ने ADR के इस दावे पर अपनी सहमति जताई है. सुप्रीम कोर्ट ने पूछा है कि वो कौन लोग हैं जो पार्टियों को बॉन्ड के जरिए चंदा दे रहे हैं और बदले में अपना काम करवा रहे हैं? सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि नागरिकों को यह जानने का अधिकार है कि सरकार का पैसा कहां से आता है और कहां जाता है? सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि गुमनाम चुनावी बॉन्ड के बारे में सूचना के अधिकार के तहत जानकारी होनी चाहिए.

इस तरह चीफ जस्टिस की अगुवाई वाली पांच जजों वाली संविधान पीठ ने एकमत से फैसला सुनाया कि इलेक्टोरल बॉन्ड ना तो संवैधानिक हैं और ना लोकतांत्रिक इसलिए इलेक्टोरल बॉन्ड पर तत्काल प्रभाव से बैन लगा दिया गया.

ADR ने दायर की थी याचिका
सुप्रीम कोर्ट ने जिस याचिका पर अपना फैसला सुनाया है वह याचिका भारत में चुनावों पर नजर रखने वाली संस्था Association Of Democratic Reforms यानी ADR ने दायर की थी. अपनी याचिका में ADR ने सबसे प्रमुख तर्क ये दिया था कि इलेक्टोरल बॉन्ड सत्ताधारी पार्टी को फायदा पहुंचाने का जरिया बनकर रह गए हैं. अपने इस दावे को साबित करने के लिए ADR ने जो आंकड़े पेश किए हैं वे साबित करते हैं कि इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिये चंदे का सबसे ज्यादा लाभ सत्ताधारी पार्टी बीजेपी को मिला है.

ADR के मुताबिक, वर्ष 2018 से लेकर अप्रैल 2023 तक 12 हजार आठ करोड़ रुपये के इलेक्टोरल बॉन्ड जारी किए गए. जिनमें से करीब 6565 करोड़ रुपये यानी करीब 55 प्रतिशत इलेक्टोरल बॉन्ड की रकम सत्ताधारी दल, बीजेपी को मिली जबकि कांग्रेस को इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए 1123 करोड़ रुपये मिले यानी कुल इलेक्टोरल बॉन्ड का करीब नौ प्रतिशत हिस्सा. ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस को भी इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिये 1092 करोड़ रुपये का चंदा मिला है जो कुल इलेक्टोरल बॉन्ड का करीब नौ प्रतिशत ही है.

चौतरफा घिर गई है बीजेपी
जिसके बाद विपक्षी दल बीजेपी पर निशाना साध रहे हैं लेकिन बीजेपी अभी भी कह रही है कि इलेक्टोरल बॉन्ड चुनाव प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने के लिए ही लाए गए थे. 

सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद अब इलेक्टोरल बॉन्ड योजना बैन हो चुकी है और सियासत शुरु हो गई है लेकिन एक बात तो साबित हो गई है कि इलेक्टोरल बॉन्ड योजना में नाममात्र की भी पारदर्शिता नहीं थी. एक दिलचस्प बात ये भी है कि इलेक्टोरल बॉन्ड योजना पूरी तरह गोपनीय भी नहीं थी क्योंकि भले ही आम नागरिक, विपक्षी दल, चुनाव आयोग और आयकर विभाग को इसकी जानकारी देने से रोकने के प्रावधान किए गए थे लेकिन सरकारी बैंकों के पास इस बात का पूरा रिकॉर्ड होता है कि बॉन्ड किसने खरीदा और किस पार्टी को दान में दिया. 

इस आधार पर इस आरोप को खारिज नहीं किया जा सकता कि सत्ताधारी पार्टी इलेक्टोरल बॉन्ड की जानकारी आसानी से जुटा सकती है और फिर इसका इस्तेमाल दान देने वालों को प्रभावित करने में कर सकती है. ये बात सुप्रीम कोर्ट ने भी मानी है तभी तो इलेक्टोरल बॉन्ड योजना को अवैध घोषित कर दिया है.

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DNA TV Show: इलेक्टोरल बॉन्ड पर सुप्रीम बैन, पार्टियों पर क्या होगा असर?
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