डीएनए हिंदी: वैसे तो हम भारतीयोंको कई महान व्यक्तित्वों के सानिध्य का सौभाग्य प्राप्त हुआ है. आधुनिक काल में हमारे महान राष्ट्र में दो महान जननेताओं को उनके योगदानों के अनुरूप "पिता या जनक" कहलाने का गौरव प्राप्त है. महात्मा गांधी को "राष्ट्रपिता" के रूप में तथा डॉ. अंबेडकर को अक्सर "संविधान के जनक " के रूप में संबोधित किया जाता है. ये दोनों महान नेता भारत में व्याप्तजाति प्रथा को एक ऐसी भयानक सामाजिक बुराई मानते थे जिसे जड़ से उखाड़ना जरूरी था. हालांकि, गांधी जी और डॉ.अम्बेडकर के बीच कई मतभेद थे, लेकिन यह सच है कि जब ‘अस्पृश्यता’ और ‘जात-पांत’ की प्रकृति और वस्तुस्थिति को समझने की बात आई तो गांधी जी ने डॉ अम्बेडकर पर भरोसा किया था.
जाति पर गांधी और आंबेडकर की हुई थी लंबी चर्चा
पिछड़ी जातियों की बदतर स्थिति के प्रति गहरी रुचि और चिंता प्रदर्शित डॉ. आंबेडकर इस मायने में गांधीजी से अलग थे,क्योकि उन्होंने दलितों की बदतर स्थिति को स्वयं भोगा था. यह सब कुछ 1932 में पूना समझौते पर हस्ताक्षर करने के बाद इन दो महान व्यक्तित्वों के बीच बातचीत से स्पष्ट हुआ मुलकात के दौरान डॉ. अंबेडकर ने गांधीजी की प्रशंसा की और फिर दोनों के मध्य दलितों के संघर्षों और अपमानजनक स्थिति के बारे में विस्तार से चर्चा हुई थी.
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बताया जाता है कि डॉ. अंबेडकर गांधी जी से कहा था, 'आप नहीं जानते होंगे कि मुझे क्या-क्या झेलना पड़ता है. मुझे बंबई में पोर्ट ट्रस्ट चॉल के अलावा रहने के लिए कोई और जगह नहीं मिलती. अपने गांव में मुझे ‘महारों’ बीच में ही रहना पड़ता है. पूना में बाकी सभी अपने दोस्तों के साथ रहते हैं, परन्तु मुझे नेशनल होटल में 7 रुपये खर्च कर रुकना पड़ता है. परिवहन का अलग से किराया देनापड़ता है.' गांधी जी ने उनकी बातों से सहमति जताते हुए और अपनी विशिष्ट शैली में सहानुभूति प्रदर्शित करते हुए डॉ. अंबेडकर से जाति की बुराइयों के बारे में पूरी जानकारी प्राप्त करने की कोशिश की थी. गांधी जी ने कहा-"इस भयानक समस्या को समाप्त करने के लिए अभी बहुत कुछ किया जाना बाकीहै. मैं इसके लिए अपना सारा जीवन देने के लिए तैयार हूं. आपके द्वारा उल्लेखित सभी अन्याय समाप्त होने चाहिए.”
उपरोक्त बातचीत की चर्चा इसलिए ज़रूरी है, क्योंकि इसमें कई महत्वपूर्ण तथ्य सामने आए हैं। पहलायह कि प्रसिद्धि, प्रखर बौद्धिकता और उच्च शिक्षा प्राप्त व्यक्ति होने के बावजूद, डॉ. अंबेडकर को अपने समुदाय के अन्य लोगों की तरह जातिगत कारणों से घोर भेदभाव तथा अपमान का सामना करना पड़ा था. दूसरा तथ्य गांधी जी से संबंधित है, जो पहले समस्या को समझने और फिर प्रतिक्रिया करने की उनकी विशिष्ट कार्यशैली को प्रदर्शित करता है.
जाति व्यवस्था की बुराइयां आज भी मौजूद
वापस वर्तमान में लौटते हैं. आज उस बातचीतके लगभग नौ दशक बीत चुके हैं परन्तु यह स्पष्ट है कि भारतीय जाति व्यवस्था की बुराइयां खत्म होने से कोसों दूर हैं. इसी संदर्भ में जाति व्यवस्था पर हालिया बहस और चर्चा की जरूरत है. निचली जातियों, विशेषकर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के सदस्यों के खिलाफ हिंसात्मक कृत्यों के बारे में बात करते समय जाति व्यवस्था की बुराइयां सबसे अधिक स्पष्ट होती हैं. उदाहरण के लिए,राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े पिछड़ी जाति के लोगों के खिलाफ बढ़ती हिंसा की प्रवृत्ति को प्रदर्शित करते हैं. प्रवेश शुक्ला का एक आदिवासी व्यक्ति पर पेशाब करने का कृत्य यह दर्शाता है कि हिंसा के ये कृत्य महज़ आंकड़े नहीं हैं, बल्कि पिछड़ी जाति के लोगों के लिए एक दर्दनाक वास्तविकता है.
सार्वजनिक भागीदारी में भेदभाव दिखाते हैं ये आंकड़े
वैसे तो शारीरिक हिंसा इस तरह के जातिगत भेदभाव और घृणा का सबसे स्पष्ट रूप है. हालांकि, जिस व्यवस्थित तरीके से ओबीसी, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति समुदायों के व्यक्तियों को प्रतिनिधित्व नहीं दिया जाता है, वह हिंसा का एक और डरावना रूप है. इन तथ्यों पर विचार करें: 2019 तक, आईआईटी में कुल 6,043 शैक्षणिक पदों में से केवल 2.81% अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति समुदाय के शिक्षक थे. इसी तरह ग्रुप ए के अधिकारियों (नौकरशाहों का सर्वोच्च स्तर) में, अनुसूचित जाति के अधिकारियों की संख्या कानूनी रूप से अनिवार्य 15% आरक्षण के मुकाबले 12.86% थी. अनुसूचित जनजाति समुदाय के अधिकारियों की संख्या कानूनी रूप से अनिवार्य 7.5% आरक्षण के मुकाबले 5.64%थी. इसी प्रकार ओबीसी समुदाय के अधिकारियों की संख्या कानूनी रूप से अनिवार्य 27% आरक्षण के मुकाबले सिर्फ16.88%थी.
दलित समुदाय का सर्वोच्च पदों पर प्रतिनिधित्व बेहद कम
जैसे-जैसे हम नौकरशाही के ढांचे में ऊपर जाते हैं तो हवा और भी दुर्लभ हो जाती है. उदाहरण के लिए, वर्ष 2022 तक 91 अतिरिक्त सचिवों में से केवल 14 एससी/एसटी और ओबीसी समुदाय से आते थे. इसी तरह 245 संयुक्त सचिवों में से केवल 55 ही इन समुदायों से आते थे. यह असमानता सरकार या शैक्षणिक संस्थानों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि सामान्य तौर पर हमारे समाज के लगभग प्रत्येक हिस्से में नजर आती है. उदाहरण के लिए, कितने प्राइम टाइम न्यूज़ एंकर इन दमित समुदायों से आते हैं? इन समुदायों से कितने लोग इंडिया इंक में सीईओ बनते हैं? इन समुदायों से कितने शीर्ष डॉक्टर या वकील या न्यायाधीश हैं? उपरोक्त आंकड़े मामले की वास्तविक स्थिति और गंभीरता को दर्शाते हैं.
जाति जनगणना पर पीएम मोदी के तर्क में नहीं है दम
इसी पृष्ठभूमि में कांग्रेस पार्टी ने जातिगत जनगणना की मांग की है. बताया जाता है कि प्रधानमंत्री मोदी ने कांग्रेस पार्टी की मांगों का जवाब देते हुए कहा कि उनके लिए एकमात्र जाति ‘गरीबों की जाति’ है. प्रधानमंत्री का बयान एक परिचित धुन पर आधारित है, जो इन समुदायों की विशिष्ट पहचान को नज़रअंदाज़ करके उनके प्रतिनिधित्व की कमी के असहज प्रश्न से बचना चाहता है. प्रधानमंत्री का यह कथन इस जातिगत भेदभाव के बारे में जागरूकता की चिंताजनक कमी के अलावा एक और तथ्य की तरफ भी इशारा करता है. वह है कि इन पिछड़े समुदायों को व्यवस्थित भेदभाव के कारण पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिल पा रहा है, न कि संसाधनों की कमी या क्षमता की कमी के कारण. अपने आप मे यह तर्क (एक हास्यास्पद तर्क)है, लेकिन तथ्य यह है कि इन समुदायों के लोग नौकरशाही ढांचे में मौजूद हैं, लेकिन जब शीर्ष नौकरियों की बात आती है तो उन्हें व्यवस्थित तरीके से दरकिनार कर दिया जाता है.
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RSS का रहा है जाति समर्थन का इतिहास
कांग्रेस और INDIA गठबंधन के सदस्यों की ओर से जाति जनगणना के आह्वान से पर्याप्त रूप से निपटने में श्री मोदी की अनिच्छा समझ में आती है. खास तौर पर तब जबकि आप इस तथ्य की तरफ ध्यान देते हैं कि भाजपा का नैतिक केंद्र आरएसएस है, एक ऐसा संगठन जिसका स्वयं जातिवाद के समर्थन का ज्ञात इतिहास है. उदाहरण के लिए, आरएसएस के विचारक गोवलकर ने कहा था कि "भगवान" खुद को जाति के माध्यम से प्रकट करते हैं. आरएसएस के सरसंघचालकों या प्रमुखों की विकिपीडिया खोज, उच्च जाति के पुरुषों की असहज एकरूपता को भी प्रदर्शित करती है. भाजपा अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद इस जड़ विचारधारा से बच नहीं सकती. इसका एक उदाहरण हाल ही में जी20 समारोह में शामिल विभिन्न राज्यों के प्रतिनिधियों से सम्बंधित है, जिन्हें इस इस अवसर पर सिर्फ शाकाहारी भोजन परोसा गया था. यह इस सच्चाईके बावजूद है कि भारत में "शाकाहार" जाति के मुद्दों से गहराई से जुड़ा हुआ है. सिर्फ शाकाहारी भोजन परोसने का निर्णय इस तथ्य की उपेक्षा करता है कि देश के बाकी लोग किस प्रकार का भोजन करते हैं. अतिथियों को सिर्फ शाकाहारी भोजन उपलब्ध कराना उस दर्शन का एक सूक्ष्म रूप है जो जाति जनगणना के लिए विपक्ष की मांगों को स्वीकारने में प्रधान मंत्री की अनिच्छा को स्पष्ट करता है.
यह समझना महत्वपूर्ण है कि सार्वजनिक जीवन के प्रतिनिधि क्षेत्रों में दमित समुदायों के व्यक्तियों का चिंताजनक रूप से कम प्रतिनिधित्व होना, उनकी बौद्धिकता और कार्य क्षमता की कमी के कारण नहीं बल्कि अवसर की कमी और भेदभाव की मानसिकता के कारण है. इस संबंध में संयुक्त राज्य अमेरिका भारतीय जाति व्यवस्था से मिलता-जुलता सामाजिक विसंगतियों और भेदभाव का उदाहरण प्रस्तुत करता है. संयुक्त राज्य अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट के समक्ष प्रस्तुत अमेरिकन सिविल लिबर्टीज यूनियन के एमिकस ब्रीफ में इस भेदभाव को बहुत खूबसूरती से दर्शाया गया है. अमेरिकन समाज के विभिन्न क्षेत्रों में "श्वेत" समुदाय और "अश्वेत" समुदाय के बीच बड़ी असमानता को दर्शाने वाले आंकड़ों का विवरण देते हुए एमिकस ब्रीफ में कहा गया है कि अमेरिकन समाज लोगों की चमड़ी के रंग के प्रति उदासीनता का नजरिया रखने वाला समाज नहीं है. यहां व्यक्ति की सिर्फ योग्यता और क्षमता ही उसे अवसर प्रदान करने का एकमात्र पैमाना होती है.
दरअसल यहां सामाजिक रूप से निर्मित एकनस्लीय पदानुक्रम है, जिसमें गोरे लोग मजबूती से शीर्ष पर हैं और उनकी योग्यता का आधार उनकी चमड़ी का रंग है. इस समस्त प्रकरण की इसकी एकमात्र बोधगम्य व्याख्या यह है कि यह घोर असमानता काले के प्रति व्याप्त नकारात्मक मनोवृति और श्वेत वर्चस्व के प्राकृतिक क्रम का परिणाम है - निस्संदेह, यह व्यवस्था पूरी तरह से अस्वीकार्य है.
इसलिए, जाति जनगणना समस्या की प्रकृति, गहराई और विस्तार को यह पहचानने की दिशा में उठाया गया पहला कदम हो सकता है. हम, एक राष्ट्र के रूप में सामाजिक भेदभाव और अन्य विसंगतियों के समाधान खोजने की आशा कर सकते हैं.
नोट: डॉक्टर अजय कुमार कांग्रेस वर्किंग कमेटी के सदस्य और पूर्व सांसद हैं. लेख में दिए विचार लेखक के निजी विचार हैं और यह DNA वेबसाइट का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं.
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Opinion: जाति जनगणना क्यों है जरूरी, ये आंकड़े दे रहे हैं गवाही