सामान खरीदने से लेकर किताबें पढ़ने तक हर जगह अब आपको क्यू आर कोड मिलने लगे हैं. क्यू आर कोड यानी काले और सफेद रंग का एक चौकोर बॉक्स. इसे देखा-सुना तो आपने होगा ही. इस्तेमाल भी किया होगा. मगर इसकी शुरुआत कैसे हुई और क्यों हुई इसके बारे में शायद ही आपको पता हो-
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क्यू आर कोड (QR Code) का पूरा नाम है क्विक रिस्पॉन्स कोड. यह एक ऐसा कोड होता है, जिसमें किसी सामान की पूरी जानकारी दर्ज रहती है. जैसे कीमत, बनाने वाली कंपनी का नाम, बनने का समय, खराब होने की तारीख आदि.
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यह कोड इंटरनेट के माध्यम से किसी भी चीज की सटीक जानकारी देता है. इस कोड को किसी मोबाइल या स्कैनर से स्कैन किया जाता है. स्कैन करते ही तमाम जानकारियां सामने आ जाती हैं.
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क्यूआर कोड बार कोड का आधुनिक रूप है. बताया जाता है कि 1960 को दशक में जापान में बड़े-बड़े सुपरमार्केट शुरू किए गए इनमें खरीदारी के लिए लोगों की भीड़ उमड़ने लगी. ऐसे में हाथ से बिल बनाते-बनाते कैशियर की हालत खराब होने लगी. वे हाथों औऱ कलाई के दर्द से परेशान रहने लगे. इस समस्या से निपटने के लिए बारकोड लाया गया.
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1974 में हुए बारकोड के अविष्कार ने कुछ हद तक इस समस्या का समाधान तो किया, लेकिन जैसे जैसे उपयोग बढ़ता गया उसकी कमियां भी सामने आती गईं. बारकोड में केवर 20 अंक या अक्षरों जितनी लंबी सूचनाएं ही दी जा सकती थीं, जबकि कुछ चीजों के लिए अधिक जानकारी की आवश्यकता पड़ती.
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जापान की एक कंपनी डेंसो वेव कॉरपोरेशन ने इस समस्या पर काम करना शुरू किया. बार-बार फेल होने के बाद भी कंपनी ने हार नहीं मानी और उसे क्यू आर कोड बनाने में कामयाबी मिली. मासाहिको हरा (Masahiko Hara) इस टीम के लीडर थे.
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क्यूआर कोड को विकसित करने का श्रेय मासाहिको हरा को ही जाता है. यह कोड ना केवल बड़ी सूचनाओं को सहेज सकता है, बल्कि इसे अन्य किसी कोड की तुलना में दस गुना अधिक तेजी से पढ़ा भी जा सकता है.
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पहली बार क्यूआर कोड का इस्तेमाल ऑटोमोबाइल, फार्मास्यूटिकल और रिटेल इंडस्ट्रीज में इन्वेंटरी को ट्रैक करने के लिए किया गया था. आज टिकटों से लेकर ऑनलाइन पेमेंट तक इसका इस्तेमाल किया जा रहा है. यही नहीं अब लोग अपना क्यू आर कोड बना भी सकते हैं. क्यू आर कोड की कई खूबियां भी हैं. इन पर धूल-मिट्टी का कोई असर नहीं होता. थोड़ा बहुत फटा या कटा होने के बावजूद भी क्यू आर कोड को स्कैनर की मदद से रीड किया जा सकता है.