आप सभी को होली की मुबारकबाद!
रंगों का त्योहार उल्लास, उमंग, उत्साह तो लेकर आता ही है, साथ ही भांग, शराब के नशे में नीयत के खोटे लोगों से भी रूबरू कराता है. 'बुरा ना मानो होली है' बोलकर भाभी हो या साली, मजाक के रिश्ते में बुरी नीयत का रंग लोग दिखाते हैं. मजाक सोशल डिस्टेंस्टिंग के साथ अच्छा लगता है, साड़ी के फॉल-सा लिपटरकर नहीं.
जो लोग शराब, भांग या बीयर के नशे में चूर-चूर होकर 'गलती म्हारे से हो गई' या फिर 'यार नशे में था गलती हो गई', का स्कोप रखते हैं, उन्हें समझने की जरूरत है कि वे अपनी गलती को जस्टीफाई कर रहे हैं या गलती मान रहे हैं. ऐसे में नियंत्रण खोने के पीछे की वजह समझने की जरूरत है. आखिर देवर जी, जीजू ऐसा क्यों करते हैं? होली के बहाने छेड़छाड़ उसी सोच का नजरिया है जो रास्ते चलते लड़कियों को छेड़ देने से आती है...
फिल्मों में होली के नाम पर 'अंग से अंग लगाना' और 'देवर भाभी की मस्ती' दिखाकर यह सामान्य बना दिया गया है कि होली के दिन कोई भी किसी को भी रंग लगा सकता है. इससे कुछ लोगों को लगता है कि यह 'मस्ती' है, जबकि असल में यह किसी के लिए असहज और असुरक्षित अनुभव हो सकता है. उत्तर प्रदेश में समाजशास्त्र के प्रोफेसर डॉ. विश्म्भर नाथ प्रजापति बताते हैं कि दरअसल पुरुषों को नियंत्रित रहना, अनुशासन में रहना, अपनी हद में रहना शुरू से नहीं सिखाया जाता और फिर जीजा-साली, देवर-भाभी का रिश्ता समाज में मजाक के तौर पर स्वीकार किया जाता है. ऐसे में लोग कह देते हैं कि जीजा-साली, देवर-भाभी के 'ये बीच' चलता है. ये चलने वाली बा पुरुषों को मजाक और जबरदस्ती में फर्क करना नहीं सिखाती.
'बुरा न मानो होली है' , सबकुछ करने का 'लाइसेंस' नहीं
इस लाइन का मतलब होता है मस्ती में किसी की छोटी-मोटी गलती को नजरअंदाज करना, लेकिन कुछ लोग इसे छेड़खानी का लाइसेंस समझ बैठते हैं. वे सोचते हैं कि 'होली पर कुछ भी चलेगा', जबकि असल में ऐसा नहीं होना चाहिए. वहीं, कुछ पुरुषों की सोच अब भी पुरानी रूढ़ियों में जकड़ी हुई है. उन्हें लगता है कि स्त्रियां उनकी मर्जी से चलें और होली जैसे मौकों पर वे अपनी सीमाएं लांघ सकते हैं, क्योंकि समाज इसे 'मजाक' समझ लेगा. यह स्त्रियों की स्वतंत्रता और सहमति को नजरअंदाज करने की मानसिकता को दर्शाता है. वहीं कुछ लोग झुंड मानसिकता का शिकार होकर भी मजाक को जबरदस्ती में बदल देते हैं.
तो क्या करें, होली न मनाएं...
नहीं, ऐसा हम नहीं कह रहे हैं कि आप होली न मनाएं. होली मनाएं पर रंग वहीं लगाएं जहां आपको और दूसरे को शोभा दे. शरीर पर किसी भी जगह बिना सोचे समझे रंग न थोपें. यहां यह भी नहीं कहा जा रहा है कि सिर्फ हवा में गुलाल उड़ाकर ही होली मनाएं या फिर भाभी जी के पैर छूकर चले आएं. बल्कि ये हो सकता है कि एक शिष्ट, सभ्य तरीका होली मनाने का खोजा सकता है. भाभी जी के 'ऑफिशियल गार्ड' यानी उनके पतिदेव से पूछकर, उनकी मौजूदगी में हल्का गुलाल लग सकते हैं. पर यह भी ध्यान रखें कि रंग उतना ही लगाएं जितने में भैया जी की भौहें न तनें. क्योंकि अगर वे तन गईं तो होली के बाद कोई और रंग चढ़ने वाला है- गंभीरता का रंग. होलिका दहन करें, शर्म और हया नहीं...
होली ऐसी मनाएं जिसमें चेहरे पर रंग लगे, नीयत पर नहीं. आदर और सत्कार के रंग से होली खेलें, ताकि त्योहार के बाद भाभीजी को रंग छुड़ाने के लिए सिर्फ पानी की जरूरत पड़े, 'संवादहीनता' की नहीं. तो इस होली, रंग लगाएं, मगर 'अंग से अंग नहीं.'
'रंग प्यार का हो, इज्जत का हो, मगर जबरदस्ती का नहीं- वरना यह गुलाल नहीं, धूल कहलाएगा.' आप सभी को फिर से दिल खोलकर होली मुबारक!
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भाभी जी को रंग लगाएं, 'अंग से अंग' नहीं, होली मुबारक!