कोरोना काल में अन्य व्यवसाय के साथ पुस्तक प्रिंटिंग उद्योग को झटका लगा. स्टैटिस्टा डॉट कॉम की रिपोर्ट के मुताबिक साल 2020 में किताबों की प्रिंटिंग में अभूतपूर्व गिरावट आई. उर्दू की किताबों की प्रिंटिंग में सबसे ज़्यादा 57 प्रतिशत की गिरावट आई. हिंदी के बाद देश में सबसे ज़्यादा बोलने वाली भाषा तेलुगु मे किताबों के प्रकाशन में 51 प्रतिशत की गिरावट आई. सबसे कम गिरावट, 29 प्रतिशत, मलयालम भाषा में दर्ज की गई.
हिंदी किताबों के प्रकाशन में भी 31 प्रतिशत की कमी आई. हिंदी सहित आधुनिक भारतीय भाषाओं के रीडरशिप सर्वेक्षण पर ज़्यादा काम नहीं हुआ है. सन 2009 में एनसीएईआर ने यूथ रीडरशिप नाम से एक सर्वे किया था जिसके अनुसार मात्र 7.5 प्रतिशत नौजवान फुरसत के समय में किताबें पढ़ते हैं. यह स्टैटिस्टिक्स हिंदी के लिए ही नहीं सभी आधुनिक भारतीय भाषाओं के लिए ख़तरे की घंटी के तौर पर लिया जाना चाहिए.
90 फीसदी प्रकाशित किताबों नहीं बिकती 2,000 प्रतियां
सर्वे के बाद पिछले समय में क्या परिवर्तन हुआ कोई अनुमान नहीं है. भाषावार रीडरशिप के आंकड़े भी उपलब्ध नहीं हैं. एक अनुमान के अनुसार नब्बे प्रतिशत प्रकाशित किताबों की 2000 प्रतियां भी नहीं बिक पातीं. शायद एक प्रतिशत किताबें हों जिनकी दस हज़ार से ज्यादा प्रतियां बिक पाती हों.
कैसा रहा है हिंदी का कारोबार?
किताबों के संदर्भ में तो नहीं पर प्रिट मीडिया के संदर्भ में क्रिसिल की एक रिपोर्ट के अनुसार प्रिंट मीटिया का व्यवसाय महामारी के पहले 32000 करोड़ रुपए की ऊंचाई तक जा पहुंचा था. साल 2021-22 में यह गिरकर ₹18600 करोड़ पर आ गया. इस वित्तीय वर्ष में उम्मीद है कि वय्यवसाय का स्तर बढ़ कर ₹27000 करोड़ तक पहुंच जाएगा.
न्यूज़ प्रिंट का ख़र्चा बेतहाशा बढ़ रहा है. किताबों के प्रकाशन के बारे में इस प्रकार के आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं. फिर भी इन आंकड़ों से किताबों के प्रकाशन और उनके रीडरशिप के हालात का अनुमान लगाने के लिए काफ़ी है. ये आंकड़े ये बताते हैं कि भाषाएं तो हैं लेकिन उनका सुरुचि पैदा करने के उद्देश्य से प्रसार संकट में हैं.
कितना अहम है डिजिटल टेक्नोलॉजी का रोल?
पिछले कुछ सालों से डिजिटल टेक्नोलॉजी भाषाओं के प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है. ऑनलाइन और ऑफ़लाइन डिजिटल टेक्नॉलॉजी हिंदी सहित सभी आधुनिक भारतीय भाषाओं के प्रसार में उपयोगी साबित हो रहे हैं.
महामारी के दौरान डिजिटल टेक्नॉलॉजी ने किताबों को पाठकों तक पहुंचाने में प्रिंट पुस्तकों की कमी को बहुत हद तक पूरा किया. प्रिंट प्रकाशन की सीमाएं हैं. किताबें दुनिया के कोने कोने तक पहुँचाना प्रिंट माध्यम के वश की बात नहीं है.
डिजिटिल दौर में भाषा को बचाए रखना कितना मुश्किल?
ऑनलाइन और ऑफ़लाइन डिजिटल मीडिया में यह सामर्थ्य है कि हर ख़ास और आम के हाथों में किताबें पहुंच सकती हैं. मोबाइल और टैबलेट एक आम बात हो गई है. साहित्य जगत को टेक्नोलॉजी कम्पनियों के साथ मिल कर हिंदी भाषा साहित्य को हर हाथ में पहुंचाने का संकल्प लेना चाहिए.
डिजिटल टेक्नोलॉजी के माध्यम से भाषा के प्रसार के ख़तरे भी हैं. इस टेक्नोलॉजी ने भाषा को अश्लील और हिंसक बनाने का भी काम ख़ूब कर रही है. इस पर रोक की जिम्मेदारी साहित्यकार से ज़्यादा समाज की बनती है.
कोई कितना भी प्रयत्न कर ले जैसे रातोंरात कैमरे से रील ग़ायब हो गई, किताबों से काग़ज़ भी वैसे ही ग़ायब होगा. इसलिए भाषा के सुरुचिपूर्ण प्रसार को समावेशी बनाने के लिए डिजिटल मीडिया को साधना और नाथना ही पड़ेगा.
बिभाष कुमार श्रीवास्तव रिटायर्ड बैंकर हैं जिनकी भाषा विज्ञान में रुचि है. वह ऑनलाइन प्रकाशन नॉटनल के सह-संस्थापक हैं.
(यहां प्रकाशित विचार लेखक के नितांत निजी विचार हैं. यह आवश्यक नहीं कि डीएनए हिन्दी इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे और आपत्ति के लिए केवल लेखक ज़िम्मेदार है.)
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हिंदी के प्रसार में कितनी अहम है ऑनलाइन प्रकाशन की भूमिका, क्या है महत्व?