डीएनए हिंदी: राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने उनके बारे में लिखा था, 'यह विश्वास करना कठिन है कि साधारण-सी भारतीय वेशभूषा और सहज व्यवहार वाला यह व्यक्ति महान वैज्ञानिक और प्रोफेसर हो सकता है.' यह विलक्षण व्यक्तित्व थे आचार्य प्रफुल्लचंद्र रे. देश के प्रथम प्रधानमंत्री पं.जवाहरलाल नेहरू ने लिखा, 'आचार्य रे पुरानी पीढ़ी के दिग्गजों में शामिल थे, विशेषकर वे विज्ञान के क्षेत्र की जगमगाती ज्योति थे. उनके दुर्बल शरीर, प्रज्ज्वल देशभक्ति, विद्वत्ता और सादगी से मैं अपनी युवावस्था में अत्यंत प्रभावित हुआ था.' नोबेल विजेता गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने कहा,'उपनिषदों में कहा गया है कि सर्वोच्च सत्ता ने अनेकों में बंटना चाहा. आत्मविस्तार की यह प्रवृत्ति ही इस रचनाशीलता का मूल आधार है. ऐसी ही रचनात्मक लालसा ने प्रफुल्लचंद्र को अपने शिष्यों के मस्तिष्क में विस्तारित करने के लिए प्रेरित किया. उन्होंने स्वयं को प्रसारित किया और इस प्रकार अनेक युवा मस्तिष्कों में स्वयं को सक्रिय कर लिया. ऐसा शायद ही संभव होता यदि उनमें दूसरों के लिए पूरी तरह समर्पित होने की क्षमता न होती.'
वैज्ञानिक प्रतिभाओं की संस्मरणात्मक जीवनी में प्रियदा रंजन रे ने लिखा, 'वह रासायनिक शिक्षा, रासायनिक अनुसंधान और रसायन उद्योग के पथप्रदर्शक तो थे ही, संभवत: उससे भी बढ़कर देश की मुक्ति और उत्थान के लिए समर्पित नि:स्वार्थ कार्यकर्ता थे और उनसे जुड़ा अंतिम तथ्य यह था कि तपस्वी स्वभाव और उत्कृष्ट चरित्र के साथ ही उनकी निर्धनों और दलितों के प्रति सक्रियताभरी सहानुभूति थी. मानवता के आह्वान प्रति निरंतर सतर्क रहने वाले प्रफुल्लचंद्र का अपने समय में एक अनूठा स्थान था.' अंतरराष्ट्रीय विज्ञान जर्नल 'नेचर' ने कहा,'पीसी रे के करियर से अधिक असाधारण करियर को लिपिबद्ध नहीं किया जा सकता.'
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आचार्य पीसी यानी प्रफुल्लचंद्र रे के बारे में किसने क्या नहीं कहा है, लेकिन वह व्यक्ति, जिसने शिक्षा, विज्ञान, समाज सुधार, राजनीतिक चेतना, रोजगार-सृजन, आर्थिक उन्नति और स्वावलंबन आदि में अपूर्व योगदान दिया हो, जो आधुनिक भारतीय रसायन का संस्थापक रहा हो, जो बहुभाषाविद रहा हो और जिसने ‘द हिस्ट्री ऑफ हिन्दू केमिस्ट्री’ जैसा असाधारण और जगदविख्यात ग्रंथ लिखा हो, अपने बारे में लिखता है, 'मैं रसायनज्ञ भूल से बन गया.' यह विनम्रता उन्हें और बड़ा बनाती है. वह दानवीर थे. उन्होंने सन् 1892 में बंगाल केमिकल एंड फार्मास्यूटिकल वर्क्स की स्थापना की, जिसे बोलचाल में ‘बंगाल केमिकल्स’ के नाम से जाना गया, जिसने सन् 1922 में महान भारतीय रसायनज्ञ नागार्जुन के नाम पर पुरस्कार हेतु 10,000 रुपये का दान दिया हो, निर्धन विद्यार्थियों की आर्थिक सहायता की हो, कलकत्ता विश्वविद्यालय को रसायन विभाग के विकास हेतु सेवानिवृत्ति के समय एख लाख 80 हजार रुपये दान किये हों, वह यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ साइंस में एक साधारण छोटे से कमरे में रहता था.
गांव के लोग कहते थे 'मलेच्छ'
उसके कमरे में सामान के नाम पर क्या था? लोहे की एक अदद चारपाई, एक छोटी-सी मेज, एक छोटी-सी कुर्सी और एक अलमारी, जो किताबों से ठसाठस भरी रहती थी. इनमें अंग्रेजी क्लासिक्स की किताबों की बहुलता थी. उन्होंने ‘कैलकटा रिव्यू’ में विलियम शेक्सपियर पर अनेक सारगर्भित लेख लिखे. आनंद बाजार पत्रिका, प्रवासी, मानसी, भारतवर्ष, बंगवाणी, बासुमति, बंगलारबानी आदि में उनके लेख प्राय: छपते रहते थे. वे बंगला और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में लेखन में सिद्धहस्त थे. अलबत्ता वे आधा दर्जन भाषाएं बखूबी जानते थे. वे ओजस्वी वक्ता थे. वे स्कूलों-कॉलेजों में शैक्षणिक माध्यम के तौर पर मातृभाषा के हिमायती थे. बांग्ला भाषा की समृद्धि और विकास में उनके योगदान की मान्यतास्वरूप उन्हें बंगीय साहित्य परिषद (1931-34) का अध्यक्ष चुना गया. उनके सरोकारों का दायरा अत्यंत व्यापक था. इंडियन नेशनल सोशल फोरम में अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में उन्होंने हिन्दू-समाज से जाति प्रथा के उन्मूलन की पुरजोर अपील की थी.
उपरोक्त बातों और उद्धरणों से आचार्य प्रफुल्लचंद्र रे के असाधारण व्यक्तित्व का थोड़ा-बहुत आभास मिल सकता है. कितनी अद्भुत बात है कि ऐसा विलक्षण व्यक्ति मोहनदास करमचंद गांधी नामक शख्सियत का मुरीद था, जो उनसे उम्र में आठ वर्ष छोटे थे. रे देशभक्ति की भावना से ओत-प्रोत थे. गोपालकृष्ण गोखले से उनके घनिष्ट संबंध थे और वे रे महाशय को ‘एकांतवासी वैज्ञानिक’ कहकर परिहास करते थे. 91, अपर सर्कल रोड पर रे से मिलने गोखले प्राय: आते थे. बहरहाल, महात्मा गांधी को कलकत्ता लाने के लिए रे ने ही पहल की थी. गांधीजी की सादगी, त्यागवृत्ति और विचारों ने रे महाशय को गहरे प्रभावित किया और वे उनके अमिट प्रभाव से कभी विलग न हो सके.
प्रफुल्लचंद्र रे का जन्म 2 अगस्त, 1861 को जैसोर में हुआ था. पिता हरिश्चंद्र जमींदार घराने के वंशज सुरुचिसंपन्न, अध्ययनशील, उदार और सुधारवादी व्यक्ति थे. वे बंगला, अरबी-फारसी, संस्कृत, अंग्रेजी के वक्ता और कुशल वायलिन वादक थे, लेकिन आधुनिक और सुधारवादी होने से ग्रामवासी उन्हें ‘म्लेच्छ’ कहकर पुकारते थे.
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गांव की पाठशाला से शुरू हुई पढ़ाई
रे प्रारंभ में गांव की पाठशाला में पढ़े, लेकिन पिता के कलकत्ता आ जाने पर 1871 में उनका और भाई नलिनी कांत का दाखिला डेविड हेयर द्वारा स्थापित उस स्कूल में हुआ, जो सन् 1800 में लंदन से बहैसियत घड़ीसाज कलकत्ता आए थे. वे आजीवन अविवाहित रहे और हिन्दु कॉलेज की स्थापना सहित बंगाल में शिक्षा के प्रसार में उन्होंने अतुल्य योगदान दिया. इंग्लैंड के बजाय उन्होंने भारत को अपना देश माना. बहरहाल, प्रफुल्ल की रुचि नियत पाठ्यक्रम के बजाय अंग्रेजी क्लासिक व बांग्ला साहित्य में अधिक थी. उन्होंने तभी ग्रीक और लैटिन भी सीखीं. डब्लूएम जोन्स और जॉन लेडेनवे ने उन्हें प्रभावित किया.
बेंजामिन फ्रैंकलिन तो उनके आदर्श ही हो गए. सन् 1879 में दसवीं उत्तीर्ण कर वे ईश्वरचंद्र विद्यासागर द्वारा स्थापित मेट्रोपॉलिटन कॉलेज में भर्ती हो गए. इस स्वदेशी विद्यालय में सुरेन्द्र नाथ बनर्जी सदृश्य व्यक्ति अंग्रेजी गद्य के प्रोफेसर थे तो प्रशांत कुमार लाहिड़ी पोएट्री के. सर अलेक्जेंडर के नाम से ख्यात हुए पेडलर वहां विज्ञान पढ़ाते थे. वे अद्भुत प्रयोगकर्ता व व्याख्याता थे. उन्होंने युवा प्रफुल्ल में अनूठे बीज रोपे. इस कॉलेज ने उनके व्यक्तित्व को अलग सांचे में ढाल दिया.
आर्थिक स्थिति बिगड़ी हुई थी, लेकिन पिता की इच्छा के मानस्वरूप प्रफुल्ल ने एडिनबरा विश्वविद्यालय की गिलक्राइस्ट छात्रवृत्ति के लिए अर्जी भेजी. प्रतिभा और मेहनत रंग लाई. वजीफा मिला तो वे सन् 1822 में कैलीफोर्निया नामक जलपोत से इंग्लैंड रवाना हो गए. वहां कैम्ब्रिज में अध्ययनरत जगदीशचंद्र बोस ने उनकी अगवानी की. दोनों आजीवन घनिष्ट मित्र रहे. एडिनबरा में बीएससी में दाखिले पर अलेक्जेंडर ट्रुम ब्राउनर जैसे शिक्षक से उन्हें पढ़ने-सीखने को मिला. अध्ययन के दौरान ही लॉर्ड रेक्टर द्वारा घोषित विषय-इंडिया बिफोर एंड आफ्टर द म्यूटिनी-पर चर्चित निबंध लिखा. इसे उन्होंने छपवाकर बांटा भी.
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250 रुपये की तनख्वाह पर नौकरी
सन् 1885 में डिग्री के बाद सन् 1887 में विश्वविद्यालय ने उनके कान्जुगेटेड सल्फेट्स ऑफ कॉपर एंड मैग्नीशीयन ग्रुप पर काम को मान्यता देते हुए डीएससी की उपाधि दी. समाकृतिक मिश्रणों और आण्विक संयोगों पर कार्य के लिए होप प्राइज स्कॉलरशिप मिलने पर वे वहां एक साल और रुके और केमिकल सोसायटी के अध्यक्ष चुने गये. मेधावी रे के पास क्रुम ब्राउन का सिफारिशी पत्र था और इंडियन कौंसिल के मेंबर चार्ल्स बर्नार्ड का आश्वासन भी, जो प्रेसीडेंसी कॉलेज के प्रिसिंपल बीएच टावनी के रिश्तेदार भी थे. फलत: उन्हें प्रेसीडेंसी कॉलेज में 250 रुपये की तनख्वाह पर केमिस्ट्री के सहायक प्रोफेसर की नौकरी मिल गयी. अगस्त, 1888 से जून 1889 के बीच खाली रहने पर उन्होंने अपना अधिकांश समय सर जेसी बोस के आतिथ्य में गुजारा.
अध्ययन के अलावा उन्होंने रॉक्सबोर्ग की ‘फ्लोरा इंडिका’ और हाकर की ‘जेनेरा प्लांटेरम’ की मदद से कलकत्ता और इर्द-गिर्द की वनस्पतियों की प्रजातियां पहचानीं और एकत्र कीं. वस्तुत: वह काम के धुनी थे. सन् 1893 में उन्होंने ‘सिंपल जुआलाजी’ लिखी तो किताबे छानने के अलावा संग्रहालयों और चिड़ियाघरों का दौरा किया और बताते हैं कि डॉ. नीलमय सरकार के साथ लाशों की चिरफाड़ भी की.
बने राष्ट्रप्रेम की मिसाल
सन् 1916 में प्रेसीडेंसी कॉलेज से सेवानिवृत्ति के बाद रे आशुतोष मुखर्जी के आमंत्रण पर यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ साइंस में प्रोफेसर हो गये और सन् 1936 में वहां से रिटायर हुए, किन्तु रसायन विज्ञान के सवैतनिक अवकाश प्राप्त प्रोफेसर के रूप में संस्थान से जुड़े रहे. शोध जर्नलों में उनके शताधिक लेख प्रकाशित हुए. उन्होंने अनेक दुर्लभ खनिजों का रासायनिक विश्लेषण किया. उन्होंने मेंडलीफ की आवर्ती तालिका के एकाधिक तत्वों को खोजा. मर्क्यूरस नाइट्रेट की सन् 1896 में खोज उनके जीवन में नव-अध्याय की शुरुआत थी. उनका एक अन्य बड़ा अवदान अमोनियम नाइट्रेट का विशुद्ध विश्लेषण था. प्रो. डब्लूई आर्मस्ट्रांग लिखते हैं-'रे का मस्तिष्क इतना ग्रहणशील है कि उनका व्यक्तित्व किसी अंग्रेज के बजाय फ्रांसीसी जैसा लगता है, उतना करने पर मैं उन्हें बथोर्लेट के सर्वाधिक निकट पाता हूं.
गौरतलब है कि रे को ‘द हिस्ट्री ऑफ हिन्दू केमिस्ट्री’ लिखने की प्रेरणा मर्सेलिन पियरे इयूजिन बथोर्लेट (1827-1907) ने ही दी थी. सन् 1902 में इसका पहला खंड छपा और सन् 1903 में बथोर्लेट ने उसकी 15 पेजी समीक्षा लिखी. रे को सन् 1912 में इस कृति पर डुरहाम विश्वविद्यालय ने डीएससी की मानद उपाधि दी. सन् 1892 में बंगाल केमिकल्स की स्थापना उनका बड़ा योगदान था. सन् 1922 के भयानक दुर्भिक्ष में उन्होंने सराहनीय कार्य किया. 16 जून, 1942 को यूनिवर्सिटी कॉलेज के अपने आवास में प्रशंसकों और छात्रों के बीच उन्होंने अंतिम सांस ली. लंदन में प्रो. एसजी डोनान ने कहा-'रे भारतीय विज्ञान के संत फ्रांसिस थे.'
आचार्य रे ऐसी शख्सियत थे, जिसे काम में ही आनंद मिलता था. उनका राष्ट्रप्रेम उनके इस कथन में झलकता है , 'विज्ञान प्रतीक्षा कर सकता है परन्तु स्वराज नहीं.'
(डॉ. सुधीर सक्सेना लेखक, पत्रकार और कवि हैं. 'माया' और 'दुनिया इन दिनों' के संपादक रह चुके हैं.)
(यहां दिए गए विचार लेखक के नितांत निजी विचार हैं. यह आवश्यक नहीं कि डीएनए हिन्दी इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे और आपत्ति के लिए केवल लेखक ज़िम्मेदार है.)
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