डॉ नूतन सिंह
भारत के संदर्भ में प्राचीन काल में किसी महामारी को प्लेग कहते थे. भारत में 1835 के आसपास प्लेग सबसे पहले गुजरात के कच्छऔर काठियावाड़ बाद में हैदराबाद सिंध और अहमदाबाद में फैला और कुछ कुछ साल बाद प्लेग फैलता रहा . सैकड़ों लोगों की प्लेग सेजान जाती रही. ब्रिटिश काल में सूरत में फैली प्लेग और उससे निबटने की तैयारियों के बीच प्रशासन के ग़लत रूख ने कई बारआंदोलनकारियों को उद्वेलित किया .इसके लिए 1853में जाँच कमीशन की नियुक्ति हुई. प्लेग सबसे अधिक उस समय के मुंबई और बंगाल प्रांत में फैला.
नई औषधियों के आने से पूर्व प्लेग का एक ही इलाज था चूहों का विनाश और दूसरा चूहे गिरने के स्थानों को छोड़ देना. इस महामारी में गांव के गांव वीरान हो जाते थे. बाद में इसके टीके उपलब्ध हो गए.
प्लेग की सवारी जीवाणु चूहे और पिस्सू के त्रिकोण से चलती है.
उपन्यास में अफ़्रीका में अलजीरिया के ओरान शहर की बीसवीं सदी के पचासवें दशक 1947 ई० की कहानी है जो फ्रांस का एकउपनिवेश था. वहाँ जब प्लेग की शुरुआत हुई तब बीसवीं सदी के अप्रैल का महीना था. चूहों के अचानक मरने के साथ इस महामारीकी शुरुआत हुई. अचानक बहुत भारी संख्या में चूहे मरने लगे . सभी लोग आश्चर्य करने लगे और म्यूनिसिपैलिटी को आरोपित करनेलगे . साफ़ सफ़ाई पर ध्यान दिया जाने लगा.
जब तक चूहे मर रहे थे तब तक तो बात आश्चर्य की ज़रूर थी किंतु बहुत अधिक चिंताजनक नहीं थी किंतु जब मनुष्य उसी तरह मरनेलगे जैसे चूहे तब इस बीमारी ने सभी प्रमुख अधिकारियों को इस महामारी पर गम्भीरता पूर्वक सोचने पर मजबूर किया.धीरे धीरे पूराशहर प्लेग की चपेट में आ गया फिर शहर के फाटक बंद किए गए . कोई भी व्यक्ति बिना विशेष कारण के शहर के अंदर बाहर नहीं जा सकता था. आज की तरह उस समय भी कुछ लोगों के क़रीबी कुछ इधर रह गए और कुछ उधर.
प्लेग चूहों और उनपर पलने वाले पिस्सुओं से फैलता था जिसके लक्षण थे- तेज़ बुखार, बदन दर्द , अकड़न, ख़ून की उलटी, बग़ल व जांघों में ख़ून मवाद से भरी बदबूदार गिलटियाँ नाड़ी का फड़फड़ाना और फिर मौत.
आज की तरह ही कई अख़बार छपने कम हो गए या फिर बंद हो गए.
दवा एवं बचाव के लिए एक ही तरीक़ा सबको पता था-पिपरमेंट की गोलियों को चबाना. प्लेग समाचार नाम से एक लोकल अख़बार निकलने लगा जिसमें सिर्फ़ प्लेग की ख़बरें होती थीं.
धीरे धीरे प्लेग न्यूमोनिक हो गई जो पहले छुआछूत से फैलती थी बाद में हवा एवं सांंस के माध्यम से फैलने लगी . चूँकि इसकी दवाअभी तक इजाद नहीं हुई थी इसलिए डाक्टर अन्दाज़ से इलाज कर रहे थे.
धीरे धीरे सरकार पर ही आश्रित न रहकर लोग ‘सेनेटरी स्कवैड ‘ वालंटियर्स के बनाने लगे .साफ़ सफ़ाई , प्लेग पीड़ितों की मदद में सहयोग करने लगे.
किताब के अंश
इसमें लिखा गया है-
- इसमें शक नहीं कि प्लेग के शुरू के दिनों में मृतकों के संबंधियों की सहज-भावनाओं को इस तेज़ रफ़्तार की कार्यवाही से चोट पहुंचीथी. लेकिन यह ज़ाहिर था कि प्लेग के ज़माने में ऐसी भावनाओं का ध्यान नहीं रखा जा सकता, इसलिए कार्यकुशलता पर सब कुछन्योछावर कर दिया गया, हालांकि दफ़नाने के इस संक्षिप्त तरीके से शुरू में लोगों का मनोबल डंवाडोल हो गया था. आम तौर पर लोगोंको यह नहीं मालूम होता कि संबंधियों को अच्छी तरफ दफ़नाने की भावना कितनी प्रबल होती है. लेकिन ज्यों ज्यों वक्त गुज़रता गयाहमारे शहर के लोगों का ध्यान अपनी तात्कालिक आवश्यकताओं पर केंद्रित होने लगा. खाद्य समस्या गंभीर हो गई. उन्हें यह सोचने कीफ़ुरसत नहीं थी कि उनके आस-पास लोग किस तरह मर रहे हैं औऱ किसी दिन वे खुद भी इसी तरह मर जाएंगे.अधिक संख्या में लोगोंके मरने के कारण क़ब्रों की गहराई बढ़ा दी गई और सामूहिक रूप से दफ़न किया जाने लगा और लाश पर चूना डाल दिया जाता थाताकि जल्दी से लाशें जल जाँय . इसी तरह के और भी नए उपाय भी किए जा रहे थे.
उपन्यास के मुख्य पात्रों को देखा जाय तो एक डाक्टर रियो, पत्रकार रेमंड रेम्बर्त,जेसुइट पादरी फ़ादर पैनेलो,एक लेखक जीन तारो जो डायरी लिखता है
यह उपन्यास पढ़्ते हुए बार बार यही लगेगा कि ऐसा ही इस समय भी घटित हो रहा है.
पेज-४२-४३ पर आज की तरह खास बात है- "स्थानीय अखबार जो चूहों के बारे में बड़ी-बड़ी सुर्खियां देकर खबरें छापते थे,अबबिल्कुल खामोश हो गये.- जब तक कि एक एक डॉक्टर के पास दो या तीन केस ही पहुंचे थे तब तक किसी ने इस बारे में कोई कदम उठाने की बात ही नहीं सोची. यह सिर्फ संख्याओं के जोड़ने का सवाल था, लेकिन जब ऐसा किया गया तो कुल संख्या हैरत अंगेज़ निकली. कुछ ही दिनों में मरीज़ों की संख्या दिन दूनी रात चौगुनी की रफ़्तार से बढ़ गई थी और इस विचित्र बीमारी के दर्शकों को इसमेंज़रा भी संदेह न रहा कि ज़रूर कोई महामारी फैल गई है. "
पेज 44-45 पर हमारी जिज्ञासा पर एक विराम लगता है पूरा पेज ही बार-बार पढ़ डाला. उसके अंश देखिये -- "सब जानते हैं किदुनिया में बार-बार महामारियां फैलती रहती हैं. लेकिन जब नीले आसमान को फाड़कर कोई महामारी हमारे सिर पर आ टूटती है तब नजाने क्यों हमें उस पर विश्वास करने में कठिनाई होती है. इतिहास में जितने बार युद्ध लड़े गए हैं उतनी ही बार प्लेग भी फैली है. फिर भी प्लेग हो या युद्ध दोनों ही जैसे लोगों को बिना चेतावनी दिए आ पकड़ते हैं."
आज की तरह ही प्रशासन द्वारा पहले सुस्ती फिर अन्धेरे में तीर चलाये जाने की घटनाएंं बयान की गई हैं . स्वास्थ्य महकमें केअधिकारियों की बहस भरी बैठकों की चर्चा. आज की तरह ही क्वारंटीन करने की बातें लिखी हैं.
पेज 75- - फिर एकाएक मौतों की संख्या एकदम बढ़ गई. जिस दिन यह संख्या 30 तक पहुंची, प्रीफेक्ट ने डॉक्टर रियो को एक तारपढ़ने के लिए दिया और कहा “ तो अब लगता है कि वे लोग भी घबरा उठे हैं-आख़िरकार.“ तार में लिखा था “ प्लेग फैलने की घोषणाकर दो. शहर के फाटक बंद कर दो.“
है न कोरोना से मिलती जुलती बातें.फ़ाटक बंद होने पर वही हुआ जो लाक्डाउन के बाद इस समय हो रहा है.फ़र्क ये है कि इस समयसोशल मिडिया है, मोबाइल है उस समय खतो-किताबत का जमाना था.
पेज-85-"एकान्त की पराकाष्ठा में कोइ भी अपने पड़ोसी से मदद की आशा नहीं कर सकता था."
पेज-103-112 - "महीने के अंतिम दिनों में हमारे शहर के पादरी वर्ग ने अपने विशिष्ट हथियारों से लैस प्लेग का मुकाबला करने काफैसला करके एक प्रार्थना सप्ताह मनाने का आयोजन किया. सार्वजनिक धर्म भीरूता के इन प्रदर्शनों का समापन रविवार के दिन प्लेगसे पीड़ित होकर शहीने वाले संत रॉच के तत्वाधान में होने वाली विराट प्रार्थना सभासे होने वाला था और फादर पैनेलो से उस सभा मेंप्रवचन देने के लिए कहा गया था. प्लेग के काल्पनिक देवता हो गये और वैज्ञानिक तरीकों की जगह प्लेग से मुक्ति के लिये डफ़लीबजाना अधिक कारगर है ऐसा जनमानस में फ़ैलाया गया.जनता में खूब अंधविश्वास भरा गया." धर्म कैसे लोगोंंको प्रभावित करताहै. ये पढ़ के ही जानेंगे.जबकि अंत में फ़ादर स्वयं भी प्लेग से मर जाता है.
लगभग नौ माह चली इस महामारी में धीरे धीरे लोगों में अवसाद फैल गया और वे किसी की मौत पर तटस्थ रहने लगे.
अंधविश्वास ने धर्म का स्थान ले लिया .हालाँकि लोग मन बहलाने के साधन भी अख़्तियार करते थे. प्लेग कि इस महामारी के समाप्तहोने की सरकारी घोषणा के बाद सभी ने खूब जश्न मनाया. उपन्यास का अंत इन शब्दों से हैं- "प्लेग कीटाणु न मरता है न हमेशा केलिये लुप्त होता है. वह सालों तक कपड़े की आलमारियों में छिप कर सोया रह सकता है. वह शयनगृहों ,तहखानों और सन्दूकों, किताबों की आलमारियों में छिपकर उपयुक्त अवसर की ताक में रहता है "
1957 में साहित्य का नोबल पुरस्कार प्राप्त अल्बेर कामू की पुस्तक "दि प्लेग" जो हमें यह सिखाती है कि भयानक त्रासदी वाली स्थितियों में भी कैसे अवसाद से बच के जीवन जीने के बहाने खोजे जा सक्ते हैं. इस पुस्तक को पूरा पढ़ते हुए कई बार ये होताहै कि कोरोना से निपटने के जो तरीके अपनाये जा रहे हैं,वह इसी से प्रेरित हैं. इस दौर में ख़ुद को समझने, महामारी से गर बच गये तोउसके बाद जीवन के नये ढंग अपनाने में काफी मदद मिलेगी.
हमें यकीन है कि आने वाले समय में कोरोना से जंग की यादगार काहानियां डाक्टरों के माध्यम से ही जानने को मिलेंगी.
यह मूल रूप से La peste नाम से प्रकाशित है
25 August 1962
राजकमल प्रकाशन
हिंदी अनुवाद शिवदान सिंह चौहान व विजय चौहान
(डॉक्टर नूतन सिंह लखीमपुर के एक कॉलेज में प्राध्यापक हैं. ख़ूब पढ़ाकू हैं और उन किताबों पर ख़ूब लिखते हैं. )
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