डीएनए हिंदी : संजय लीला भंसाली की नई फिल्म गंगू बाई काठियावाड़ी 18 फरवरी को रिलीज़ होने वाली है. रिलीज़ से पहले ही फ़िल्म चर्चा में है. मुंबई के कमाठीपुरा में ख़ास मान पाने वाली गंगूबाई काठियावाड़ी (Gangubai) के परिवार ने फिल्म पर गंगूबाई की छवि बिगाड़ने का आरोप लगाया है. इसके अतिरिक्त इस फ़िल्म की ख़ास चर्चा फिल्म के कड़क संवादों की वजह से भी है.
*आपकी इज़्ज़त एक बार गई तो गई, हम रोज़ रात को इज़्ज़त बेचती हैं, साली ख़त्म ही नहीं होती
*कुंवारी आपने छोड़ा नहीं, श्रीमती किसी ने बनाया नहीं
*मां का नाम काफ़ी नहीं है न? चलो बाप का नाम देवानंद
*इज़्ज़त से जीने का, किसी से डरने का नईं, न पुलिस से, न एम्एलए से, न भ*वों से, किसी के बाप से नहीं डरने का
*लिख देना कल के अख़बार में आज़ाद मैदान में भाषण देते वक़्त गंगू बाई ने आंखें झुकाकर नहीं आंखें मिलाकर अपने हक़ की बात की है
*अरे जब शक्ति, संपत्ति और सद्बुद्धि तीनों ही औरतें हैं तो इन मर्दों को किस बात का गुरुर.
स्टीरियोटाइपिंग तोड़ते संवाद
ये सारे संवाद गंगू बाई (Gangubai) का क़िरदार निभा रही आलिया भट्ट बोलती हैं. कई संवाद महिलाओं और उनके सामाजिक परिस्थिति से जुड़ी हुई स्टीरियोटाइपिंग को बख़ूबी तोड़ते हैं. उदाहरण के लिए जब गंगू बाई का क़िरदार मां का नाम वाला संवाद कहता है तो वह भारतीय सामजिक परिवेश में पिता के नाम की ज़रूरी चाह की ओर इशारा करता है. हमारे समाज में अमूमन बिना पारम्परिक विवाह के पैदा हुई संतानों को हेय दृष्टि से देखा जाता है. 2015 में सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने से पहले तक बच्चों के जन्म प्रमाण पत्र में पिता का नाम दर्ज किया जाना बेहद ज़रूरी था. सुप्रीम कोर्ट ने फ़ैसला देते हुए कहा था कि वर्तमान समय में औरतें लगातार बच्चों को अकेले पाल रही हैं, कानून को बदलते समय को पहचानते हुए सच्चाई समझनी चाहिए. गौरतलब है कि यह फिल्म आज की नहीं, साठ के दशक की पृष्ठभूमि पर तैयार की हुई है.
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"कई सच बातें हैं संवादों में" - वरिष्ठ फिल्म एवं कला समीक्षक विनोद भारद्वाज
गंगू बाई के संवादों के बाबत वरिष्ठ फिल्म एवं कला समीक्षक विनोद भारद्वाज कहते हैं कि सच बातें ही तो हैं जो इस फ़िल्म में गंगू बाई का किरदार बोल रहा है. वे कहते हैं "स्त्रियां वास्तव में शक्ति, सद्बुद्धि और समृद्धि हैं. ये सारे संवाद बेहद बाइटिंग हैं यानी झकझोर देने वाले हैं."
गंगू बाई (Gangubai) के दो महत्वपूर्ण संवादों में इज़्ज़त की बात आती है. एक जगह क़िरदार कहता है, "आपकी इज़्ज़त एक बार गई तो गई, हम रोज़ रात को इज़्ज़त बेचती हैं, साली ख़त्म ही नहीं होती ".
विनोद भारद्वाज (वरिष्ठ फिल्म एवं कला समीक्षक)
यह पूछने पर कि क्या इस संवाद में इज़्ज़त को लेकर सोशल कंडीशनिंग को काफ़ी हद तक मान्यता दी गई है, विनोद भारद्वाज जवाब देते हैं कि "भारतीय फिल्मों और समाज में इज़्ज़त को ऐसे ही प्रस्तुत किया जाता है. "
यहां यह दर्ज करना ज़रूरी है कि भारतीय समाज में स्त्रियों और परिवार की इज़्ज़त को बहुत हद तक स्त्री की यौनिकता से जोड़ा जाता है. देश के स्त्री अधिकार संगठनों और प्रखर स्त्रीवादियों का मानना है कि इज़्ज़त पहलू को स्त्रियों के साथ जोड़ देने पर स्त्रियों की अपनी स्वतंत्रता सीमित हो जाती है और उनका स्थान वस्तु जैसा हो जाता है. कई कैम्पेन चल रहे हैं जिससे समाज में यह सन्देश जाए कि स्त्रियों की यौनिकता उनका निजी मसला है. किसी की इज़्ज़त का मामला नहीं.
फिल्म के पूरे संवाद पर विनोद भारद्वाज आगे कहते हैं कि "इस वक़्त जब OTT सीरीज और फिल्मों में बिना मतलब की स्त्री-विरोधी गालियां भरी हुई हैं, उस समय गंगू बाई (Gangubai) के संवाद वास्तव में कानों को बेहतर लगते है. "
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