डीएनए हिंदी: दुनिया में जीवाणु, विषाणु और रोगाणुओं की आमद इंसान से भी पहले की है. विकास की प्रक्रिया में इंसान नया है जीवाणु और रोगाणु पुराने. रोगाणु शरीर के भीतर भी होते हैं. जिन पेय या खाद्य पदार्थों का हम सेवन करते हैं उनमें भी रोगाणुओं की मौजूदगी होती है और हवा में भी. जब ये किसी कमजोर इंसान या कम प्रतिरोधक क्षमता वाले इंसान के शरीर में आते हैं तो उसके शरीर पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं. कई बार ये इतने खतरनाक साबित होते हैं कि इंसान की जान भी चली जाती है.
एक स्वस्थ शरीर बीमारी पैदा करनेवाले रोगजनकों (Virus, Pathogens) से कई तरह से बचाव करता है. प्रतिरक्षा के अलग-अलग स्तर होते हैं. जैसे त्वचा, बलगम और बाल. जैसे ही कोई विषाणु, जीवाणु या रोगाणु शरीर को संक्रमित करता है शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली (Immune System) सक्रिय हो जाती है. यह सीधे रोगाणुओं पर हमला बोलती है जिससे वे या तो खत्म हो जाते हैं या बहुत कमजोर हो जाते हैं.
प्राकृतिक तौर पर भी शरीर रोगाणुओं से लड़ने में होता है सक्षम
बीमारियों के खिलाफ प्रतिरक्षा तंत्र विकसित करने में शरीर खुद भी सक्षम है. बैक्टीरिया, वायरस, पैरासाइट और फंगस शरीर में रोग पैदा करते हैं. इनका निर्माण अलग-अलग करकों और हिस्सों से होता है. किसी भी रोगाणु का एक अंश या भाग शरीर में एंटीबॉडी का भी निर्माण करता है. इसे एंटीजन भी कहा जाता है. यही किसी बीमारी से लड़ने में मददगार भी होते हैं.
जब शरीर पहली बार किसी एंटीजन के संपर्क में आता है तो प्रतिरक्षा प्रणाली को रिएक्शन करने और उस एंटीजन के लिए खास एंटीबॉडी को बनाने में वक्त लगता है. जब एक बार एंटीबॉडी बनने लगती है तब एंटीजन तैयार होने लगता है. इसी वजह से रोगाणुओं के खिलाफ प्रतिरक्षा तंत्र काम शुरू कर देता और रोग ठीक होने लगता है.
किसी एक बीमारी के लिए तैयार हुई एंटीबॉडी, दूसरी बीमारी के लिए भी असरदार नहीं हो सकती है. केवल मिली-जुली बीमारियों में बेहतर प्रतिरक्षा देखने को मिल सकती है. जब शरीर में किसी एंटीजन के लिए एंडीबॉडी बनने लगती है, मेमोरी सेल्स का भी निर्माण होने लगता है. मेमोरी सेल्स तब भी असर करती हैं जब शरीर से बीमारी खत्म हो जाती है. अगर शरीर दोबारा किसी बीमारी के संक्रमण में आता है तो यही मेमोरी सेल्स एक बार फिर एक्टिव हो जाती हैं और उस विशेष एंटीजन के खिलाफ एंटीबॉडी तैयार करने लगती हैं.
कैसे काम करती है वैक्सीन?
सामान्य तौर पर किसी वैक्सीन (टीका) में किसी विशेष जीव के कमजोर या निष्क्रिय हिस्से होते हैं जो शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली को बीमार होने की दशा में प्रतिक्रिया देने के लिए तैयार करते हैं. ये शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली को रोगाणुओं के बारे में जानकारी देते हैं जिससे शरीर में एंटीबॉडी बनने लगती है और शरीर बीमारियों से लड़ने के लिए तैयार हो जाता है. नया वैक्सीन स्वत: एंटीजन तैयार करने का एक ब्लू प्रिंट तैयार कर लेता है. वैक्सीन की खुराक शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली को मजबूती देता है. ऐसे में जिस शख्स को किसी रोग के खिलाफ वैक्सीनेट किया जाता है, वह उसे बीमार नहीं करता, बल्कि बीमारी से लड़ने की ताकत देता है.
हर बीमारी के लिए अलग-अलग निर्धारित होते हैं डोज!
हर बीमारी के खिलाफ इजाद वैक्सीन की खुराकें अलग-अलग मात्रा में दी जाती हैं. कुछ रोगों से बचाव के लिए दिए जाने वाले टीकों के कई डोज दिए जा सकते हैं. टीके की खुराकों के बीच कुछ हफ्तों, महीनों या दिनों का फासला भी हो सकता है. यह इस बात पर निर्भर करता है कि मेमोरी सेल्स बनाने में या ज्यादा उम्र तक कारगर रहने वाली एंटीबॉडी के निर्माण में कितने दिनों का वक्त लग सकता है. इसी प्रक्रिया के जरिए शरीर तैयार होता है कि किस तरह से भविष्य में दोबारा किसी रोगाणु से संक्रमित होने पर शरीर के भीतर कैसे वैक्सीन असर करेगा.
क्या है हर्ड इम्युनिटी?
विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक जब भी किसी बीमारी के खिलाफ किसी को वैक्सीनेट किया जाता है तो वह काफी हद तक किसी खास बीमारी से सुरक्षित हो जाता है. यह सच है कि हर किसी का टीकाकरण नहीं हो सकता है. कुछ लोग एड्स और कैंसर जैसी गंभीर बीमारियों से जूझ रहे होते हैं. कई बार वैक्सीन में मौजूद किसी तत्व से किसी शख्स को एलर्जी हो सकती है. कई बीमारियों में चिकित्सक सलाह देते हैं कि वैक्सीन न लगवाई जाए. ऐसी स्थिति में अगर बाकी लोगों को वैक्सीन की खुराक लग चुकी है तो उनके साथ रह रहे लोग भी रोग से सुरक्षित रह सकते हैं. जब किसी भी क्षेत्र विशेष में ज्यादातर लोगों को वैक्सीनेट किया जा चुका होता है तब बीमारी के फैलने की आशंका कम हो जाती है. एक प्रतिरक्षा स्थानीय स्तर पर विकसित हो जाती है. इसे ही हर्ड इम्युनिटी कहा जाता है.
क्या है वैक्सीन का इतिहास, कितना असरदार?
1900 तक, पूरी दुनिया में पोलियो एक वैश्विक बीमारी के तौर पर जाना जाता था. पोलियो की वजह से हजारों लोग अपंग हो जाते थे या शारीरिक अक्षमता के साथ जन्म लेते थे. साल 1950 तक इस बीमारी के खिलाफ 2 टीके विकसित कर लिए गए थे. हालांकि इसी दौर में ही दुनिया के कई देशों में पोलियो के खिलाफ टीका नहीं पहुंच सका था. अफ्रीकी देशों में भी स्थिति कुछ ऐसी ही थी. साल 1980 में वैश्विक तौर पर दुनिया इस बीमारी को खत्म करने के लिए एकजुट हुई. कई दशक तक वैक्सीनेशन अभियान अलग-अलग देशों में चलाए गए.
अफ्रीकी देशों में अगस्त 2020 तक लाखों बच्चों को पोलियो के खिलाफ वैक्सीन की खुराकें दी जा चुकी थीं. अफगानिस्तान और पाकिस्तान अभी भी ऐसे देशों की लिस्ट में शुमार हैं, जिन्हें पोलियोमुक्त देशों की सूची में नहीं रखा गया है. हालांकि विश्व स्वास्थ्य संगठन का कहना है कि कोई टीका किसी को किसी रोग के खिलाफ 100 फीसदी प्रतिरक्षा नहीं देता है. ऐसी स्थिति में जो लोग टीका लगवाने में सक्षम हैं उन्हें जरूर टीका लगवा लेना चाहिए. वैक्सीन का इतिहास रहा है कि इससे रोगों के खिलाफ मजबूत प्रतिरक्षा मिलती है.
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