अजंता देव

हिन्दी में गद्य की एक लंबी परम्परा रही है ,मगर परम्परा को तोड़ने और नया कुछ खड़ा करने की ज़्यादा कोशिश नहीं दिखती. शानदार गद्य के बीच भी एक ख़ालीपन सर उठाता रहता है कि क्या नया गद्य कभी नहीं मिलेगा . ऐसे में अचानक एक किताब हाथ आती है और आप दंग रह जाते हैं कि अरे ,ये तो रहा वह नया गद्य.

पिछले अरसे में अनिरुध्द उमट की किताब "नींद नहीं जाग नहीं"जब मिली तो उसके छोटे कलेवर ने हिम्मत दी कि एक बार में ही पढ़ा जा सकेगा. पढ़ते हुए धीरे धीरे भूल गई कि कविता या गद्य क्या पढ़ रही हूं.एक अनन्त पुकार की तरह यह गद्य गूंजने लगा-सहेला रे . किशोरी अमोनकर का कंठ और गद्य की यह स्त्री जैसे आपस में घुलमिल कर एक दृश्य बनाने लगे. वेदना,विरह,प्रेम,अकेलापन और स्त्री का निजी स्थान इन सब तत्वों को मिलाकर अनिरुध्द ने जो संसार रचा है वह मन की तरह  एक साथ जटिल और सरल है.

 

अनिरुद्ध के लेखन के जादू से तैयार स्त्री

एक हद तक यह स्त्री आती रहती है मगर उसके बाद स्त्री का आना असंभव हो जाता है . शिल्प के लिहाज से भी चौदह अध्याय तक यह वाक्य लगातार बना रहता है -वह आ रही है.  बाद में  यह बदल कर- वह जा रही है-  हो जाता है. यह आना और जाना एक स्त्री का नहीं है बल्कि समूचे स्त्री जगत का हो गया है,अनिरुध्द का जादू यहां है. वह आती है ,घर समेटती है और चली जाती है. उसे कोई रोकता नहीं , बस कहा जाता है -दरवाज़ा बंद करती जाना.

'चलती हूं...उसने कहा.

"'कहां जाओगी?'

उसका स्वर सूखा था.

घर.

उसका स्वर सूना था.

दरवाज़ा बन्द करती जाना."

 

अनिरुद्ध की उदासी का बिम्ब और किशोरी अमोनकर का गायन एक ही बिम्ब में हैं

यह जाना उसे उदास करता है . अनिरुध्द ने इस उदासी के लिए जिस बंदिश का उपयोग किया है वह किशोरी अमोनकर का अतुलनीय गायन का नमूना है -सहेला रे आ मिल  गाएं. राग भूप की उदासी जैसे इस पूरी किताब पर छाई हुई है. क्या सहेले को पुकारने भर से वह मिल जाता है ? नहीं,और दरअसल वह सहेला होता ही नहीं. "नींद नहीं जाग नहीं " का यह सहेला नशे में डूबता उतराता रहता है.उसे लगता है कि कोई परग्रही स्त्री बुलाने भर से पास आ बैठती है. उसे परवाह नहीं कि सचमुच की स्त्री के लिए यह कितना बड़ा दुख हो सकता है कि वह तो उस पुरुष के नशे की ग़फ़लत का भी हिस्सा नहीं है. क्या ऐसा उसका सहेला हो सकता है .

"वह गयी नहीं . हिलती-सी कुर्सी पर बैठ गयी. उसने आखें बन्द करते कुछ देखते कहा, 'अभी तुम जिस कुर्सी पर बैठी हो कल आधी रात बाद वह आयी थी

...यहीं बैठी थी."

 

इस किताब का चौदहवां अध्याय मेरे विचार से एक महत्वपूर्ण पड़ाव है. जहां से स्त्री का "आना " जाने में बदलने लगता है. इसमें एक किला है जो शायद मन में बना हुआ है .किले में धँसते गिरते कंगूरे परकोटे हैं, ऊँची दीवारें हैं और मनाही की आवाज़ें हैं. इन आवाज़ों को स्त्री नहीं सुन रही. वह आगे बढ़ती जा रही है

" ऊंचे दरवाजे के नीचे से वह किसी मन्थर बहते प्रवाह में लहर-दर-लहर ऊपर उठती नाव-सी आगे बढ़ रही है. नाव में कोई लालटेन रखी है जो कभी दिखती है कभी नहीं. लालटेन की मद्धम लौ सी वह आ रही है .

उसके बाल खुले हैं.........…………

उसके नाक में नथ है, कानों में बालियां, आंखों में काजल, हथेलियों पर मेहंदी, हाथों पर बाजूबन्द, कांचली के भीतर कोई उत्तप्त गहना है जिससे कुर्ती कसी है. वह रनिवास की तरफ़ नहीं जा रही.

वह जा रही है और पेड़ों पर बैठे बूढ़े पक्षी एक-दूसरे की आंखों में देख रहे हैं.

उस तरफ कोई नहीं जाता."

इस पुस्तक की स्त्री कोई भी हो सकती है

यह स्त्री कौन है ? कोई भी हो सकती है,मैं भी,आप भी . इस कहानी को पढ़ते समय पुरुष को भी स्त्री की तरह मन की भूलभुलैया में भटकना पड़ेगा. वह हर जगह जाती है -स्टेशन से लगाकर दफ्तर तक. हर जगह आती है ,पर जाने के लिए.अंत में नीली पटरियों से होकर स्वर्ग के सातवें दरवाज़े तक जाती है. अनिरुध्द एक अशुभ सा रचते हैं -कव्वों को लेकर

"वह जा रही है

कव्वे आकाश में तारों से ज़्यादा"

जैसा मैंने पहले कहा कि इसे प्रचलित गद्य की तरह नहीं देखा जाना चाहिए. इसकी भाषा और उसे बरतने का अंदाज़ अनिरुध्द ने अलग सा रखा है. पढ़ते हुए फिसलते जाते हैं और फिर भी एक जगह जब रुकते हैं तो एक नामालूम सा सूत्र कथा को वापस पकड़ा जाता है.एक ऊबडूब की तरह कभी पानी का तल तो कभी सतह दिखते रहते हैं. यह गद्य पकड़ता तो है ,पर पाठक को भी धैर्य के साथ चलते रहने को  कहता है.

इस किताब को पढ़िए. स्त्री मन को पढ़िए. ऐसा गद्य थोड़ा मुश्किल लगेगा कि कहाँ कथा कहाँ कविता. पर मन के रास्ते ऐसे ही होते हैं . इन पर चल कर ही समझा जा सकता है. स्त्री के साथ चलते रहना है तो यही एक रास्ता है वरना देर हो जाएगी,और जैसा कि इस किताब का अंत होता है ,वही होता रहेगा.

" डॉक्टर ने कहा, 'वे जा चुकी हैं.' तोतों ने भी सलाखें तोड़ते कहा, 'वह जा चुकी.'

दीमकों का रेला कोरस में बह रहा, 'वह जा चुकी

वह जिस मार्ग गयी इसे जिसने देखा वह नेत्रहीन कहता रहा, 'वह स्वर्ग का मार्ग नहीं था.'"

लेखक - अनिरुद्ध उमट

प्रकाशक - वाणी प्रकाशन

मूल्य - 175 रूपये

(अजंता देव बेहद प्रखर कवि हैं. स्त्रीगत कविताओं में बड़ा नाम हैं. यह खास समीक्षा उन्होंने डीएनए हिंदी के लिए लिखी है. )

अजंंता देव

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book review of Aniruddh Umat Neend Nahin Jaag Nahin by Poetess Ajanta Deo
Short Title
नींद और जाग के बीच की पुकार है अनिरुद्ध उमट की ‘नींद नहीं जाग नहीं’ किताब
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Hindi
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नींद नहीं जाग नहीं
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