डीएनए हिंदी : गूगल में बिरजू महाराज का नाम सर्च करते ही पहला लिंक जो आता है, वह न्यू यॉर्क टाइम्स के हालिया छपे एक आलेख का है. दुनिया भर के बेहतरीन अख़बारों में डांस और थिएटर क्रिटिक रह चुके एलस्टाइर मैकॉले (Alastair Macaulay) का यह आलेख कथक के सम्राट को श्रद्धांजलि है. 16 जनवरी को उस सम्राट की विदाई के बाद एलस्टाइर मैकॉले ने यह आलेख लिखा था. कथक की दुनिया के वह किंवदंती सरीखे पुरुष बीसेक दिन और जीवित रहते तो उम्र का चौरासीवां साल उनकी ज़िंदगी में अपने आगमन का उत्सव मना रहा होता.
चार फरवरी का दिन था जब कथक उस्ताद अच्छन महाराज के बेटे बृजमोहन मिश्रा का जन्म हुआ था. हस्पताल में उस दिन कई लड़कियों को जन्म हुआ था और उनके बीच अकेले बालक बृजमोहन थे. वही बृजमोहन जो दुनिया भर में नृत्य परम्परा के पर्याय के तौर पर जाने गए.
घुंंघरु करे बातें
मैकॉले लिखते हैं महाराज जी की आंखें, चेहरा, उंगलियां सब भंगिमामय होती थीं. मैं मैकॉले को पढ़ते हुए उनके कुछ वीडियो देखती हूँ. मन्त्रमुग्ध कर देने वाली भंगिमाएं इतनी तरल कि पानी भी कुछ वक़्त के लिए आश्चर्यचकित हो जाए. मैकॉले यह भी लिखते हैं कि महाराज जी के घुंघरुओं की आवाज़ अनोखी होती थी. मुझे ख़याल आता है उन तमाम फिल्मों का जिसे बिरजू महाराज ने कोरियोग्राफ किया था. चाहे वह देवदास या डेढ़ इश्किया की माधुरी हो या मोहे रंग दो लाल की दीपिका, घुंघरु के स्वर उनके पांवों में ही नहीं, उनकी कोरियोग्राफ़ी में भी संवाद करने लगते थे, जैसे कोई किस्सा सुना रहे हों.
उम्र कला-प्रेम से पीछे रही
उम्र पंडित बिरजू महाराज (Birju Maharaj) के मामले में कभी बहुत बड़ा तत्व नहीं रही. बेहद कम उम्र में कथक में पारंगतता हासिल करना और लगभग अस्सी की वयस तक सक्रिय रहना, बिरजू महाराज ने दोनों मक़ाम हासिल किया था… कालका-बिंदादीन परम्परा के वाहक रहे बिरजूमहाराज ने कथक के विशाल परिदृश्य के अतिरिक्त फ़िल्मी संकाय में भी काफ़ी महत्वपूर्ण काम किया. देवदास, इश्किया, डेढ़ इश्किया, बाजीराव जैसी फ़िल्मों में आदि फ़िल्मों में उन्होंने कोरियोग्राफी की. बाजीराव के लिए उन्हें फिल्म फेयर भी मिला था.
अस्सी से अधिक की उम्र में भी लगातार सक्रिय रहे बिरजू महाराज अपनी निरंतरता को लेकर बहुत जागरुक रहते थे. लगातार रियाज़ पर उनके विचार हम पहले ही दर्ज कर चुके हैं पर कला के क्षेत्र में निरंतरता की क्या अहमियत होती है, इस बाबत उन पर किताब लिख रही और उनकी करीबी रही जोशना बैनर्जी आडवाणी कहती हैं, “महाराज जी से जब भी निरंतरता पर बात होती तो वे सदैव यही कहते कि निरंतर प्रयास से ही निरंतरता बनी रहती है. दुःख और पीड़ा में कभी हिम्मत नहीं हारनी चाहिए.“
गुरु शिष्य परम्परा के बारे में जोशना महाराज जी के हवाले से कहती हैं, " शिष्य को हमेशा इंतज़ार करना होता था कब गुरूजी कुछ बोल दें और शिष्य उसे ग्रहण कर ले. शिष्य के लिए गुरू का खाना, बैठना, उठना सबकुछ शिक्षा होती है. मेरे गुरू मेरे माता पिता और काका रहे. कथक विरासत में मिली है और कथक ही मेरे लिए एक कर्म, तपस्या और जीवन है. हिंदू राजा के दरबार में पूर्वज कथा सुनाया करते थे, फिर बाद में मुगल काल तक आते आते यह कथा की विधा कथक नृत्य में तब्दील हो गई. पहले और अब की कथक शैली में कई बदलाव आये हैं. तकनीकी विकास से शास्त्रीय नृत्य की ओर लोगों का रूझान बढ़ा है और नृत्यकला और भी संपन्न हुई है. नित नये प्रयोग किए जा रहे हैं लेकिन हमें नृत्य या संगीत की मूल भावना से छेड़छाड़ नहीं करना चाहिए. भारतीयों से ज़्यादा विदेशियों की ललक है. मेरी एक शिष्या जापान की है और वह आंधी, तूफान, बारिश हर एक कठिन क्षण में कथक सीखना नहीं छोड़ती थी. कई बार देश में नृत्य सीखने आये शिष्य किसी कारणवश आ न सके, लेकिन वह जापानी शिष्या अवश्य आई. आज उसी जापानी शिष्या ने जापान में कथक नृत्य और संगीत विद्यालय खोल लिया है.“
ज़िंदगी आम रहनी चाहिए, कला सुंदर हो
डीएनए हिंदी से बात करते हुए कभी महाराज के क़रीबी रहे पत्रकार विवेक शुक्ला कहते हैं, "महाराज केवल कथक के महान पारंगत नहीं थे, उनके व्यक्तित्व में भी वह साम्यता बरक़रार थी. ग़ज़ब के मेहमाननवाज़ बिरजू महाराज ज़मीन से जुड़े व्यक्ति थे और अपने आगतों का स्वागत भी यूं ही किया करते थे. उनकी अभिरुचि ज़िन्दगी में ऐशो-आराम से अधिक कथक के समूचे परिदृश्य को सुन्दर बनाने में थी. सम्भवतः इसलिए वे बेहद आम तरीक़े से रहते थे."
कथक की दुनिया बेहद बड़ी और खूबसूरत है. इसे इतना सुंदर बनाने में बिरजू महाराज के होने का बड़ा योगदान रहा है. आज जब महाराज नहीं हैं, लगभग दो हज़ार साल पुरानी इस नृत्य परम्परा में एक ख़ास जगह खाली हो गई है. वह जगह जो एक महान गुरु और आला कलाकार की थी... आप जहां भी हैं, जन्मदिन मुबारक हो कथक सम्राट.
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