- मुकेश नेमा
बटेसर का नाम सुना है आपने? ना सुना हो तो इसमें अचरज जैसा कुछ नही. ग्वालियर मे पीढियों से बसे बहुत लोगों ने ही नही सुना होगा. हो सकता है सुना हो तो बहुत सम्भव है कि अनसुना कर दिया होगा.
बटेसर में आखिर ऐसा है क्या? दरअसल बटेसर देवताओं की बस्ती है. शिव ,विष्णु और शक्ति के अलावा और भी बहुत से देवता ,ऋषि- मुनि सभी बसते हैं यहां. आज से करीब चौदह सौ साल पहले यहां राज कर रहे गुर्जर प्रतिहार वंश के राजाओं ने यहां एक ही परिसर मे दो सौ से ज्यादा मंदिर बनवाये. लगभग पच्चीस एकड़ के इलाक़े में फैले छोटे छोटे मंदिर... बीच में एक बड़ा मंदिर है भगवान शंकर का, नाम है भूतेश्वर महादेव. कितने पुराने है ये मंदिर, इसे यूं समझिये कि ये मंदिर खजुराहो से तीन सौ साल पहले बने .
कैसा रहा होगा वो समय? कितने संसाधनो और समय मे बने होगें ये दर्शनीय मंदिर! तब के गुणग्राहक राजाओ ने कहां-कहां से ऐसे गुणी कारीगर जुटाये होगें जो इस दुर्गम स्थान पर ऐसा स्वर्ग रच सकें. स्वर्ग रचा गया और वह ग्वालियर के बहुत नज़दीक ही था .
भूकंप से गिरे मंदिर
कहते है करीब बीते हजार साल में कभी धरती हिली और ये बेजोड़ मंदिर धराशायी हुये . इन्हें बनवाने वाले राजा भी तब तक इतिहास की किताबो मे समा चुके थे सो किसी ने ध्यान दिया नही इन मंदिरो पर . बीतते वक्त के साथ ,धीरे धीरे मंदिरो का मलवा धरती मे दबता चला गया . इस उजाड बियाबान इलाके मे डाकूओ के डेरे लगे . ऐसे मे लोगो ने इस तरफ मुंह करना ही छोड दिया . सैकडो सालो तक किसी को बटेसर और यहां के मंदिरो का कुछ अता पता ही नही रहा . ये मंदिर हमारी स्मृति से विदा हो गये .
पुरातत्व विभाग के अधिकारी के के मोहम्मद ने खोजे खोये मंदिर
सन दो हजार पांच मे भगवानों को अपनी यह बस्ती फिर याद आयी . यह वो वक्त था जब इस इलाके में मशहूर डकैत निर्भयसिंह गूजर का दबदबा था . यहां पहुंचे के के मोहम्मद साहब जो भारतीय पुरातत्व विभाग के जीनियस और धुन के पक्के अधिकारी थे. उन्होंने इतिहास की यह जर्जर पांडुलिपि फिर पलटी. तमाम दिक्कतों के बावजूद यहां बिखरे लावारिस बलुआ पत्थरो से करीब पच्चानवे खूबसूरत मंदिर फिर खड़े कर दिए गए . फिर शायद मोहम्मद साहब का ट्रांसफर हुआ अथवा वे रिटायर हुए, या शयद बजट का टोटा हुआ हो, यहां का काम रूक गया. लोग कहते हैं अभी भी यहां की जमीन में सौ से ज्यादा मंदिर दबे पड़े हैं और उन्हे भी किसी मोहम्मद का इंतजार है .
इन मंदिरो तक होकर जाने वाला संकरा रास्ता देहातों के बीच से होकर गुजरता है . अब भी गिने चुने लोग ही देखने पहुंचते है इन्हे . अब भी यहां पीने के लिये साफ़ पानी जैसी प्राथमिक सुविधाओ का अकाल है . और ये इसलिये है कि हमारे स्वर्णिम इतिहास का प्रशस्ति गान करते इन मंदिरो की हैसियत ,महत्व को उजागर करने की ,इनके बारे मे दुनिया को बताने की जिम्मेदारी जिनकी है वे भी शायद इन्हें कायदे से आंक नही पाये हैं .
इन सभी दिक्कतो के बावजूद ,ग्वालियर से करीब तीस किलोमीटर दूर बने ये मंदिर देखने लायक है और जरूर देखे जाने चाहिये . देख चुकें हो शायद आप बटेसर के ये मंदिर . ना देखा हो तो अब देख आइए .
(मुकेश नेमा मध्यप्रदेश सरकार में एडीशनल कमिश्नर एक्साईज हैं. व्यंग्य लिखते हैं और अक्सर मध्य प्रदेश में बिखरे सौंदर्य पर भी लिखते हैं.)
(यहां प्रकाशित विचार लेखक के नितांत निजी विचार हैं. यह आवश्यक नहीं कि डीएनए हिन्दी इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे और आपत्ति के लिए केवल लेखक ज़िम्मेदार है.)
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