- पल्लव
वर्ष के अंत में उपलब्धियों की गणना करना हमारे दौर का एक चलन है जो साहित्य में भी आ गया है. ठीक भी है कि सबके लिए तमाम किताबों को देखना-पढ़ना-जानना संभव नहीं तब कोई हमारे लिए चयन कर दे, बता दे कि ये किताबें ठीक हैं -पढ़ने योग्य हैं तो इसमें हर्ज की क्या बात है? इस साल के अंत में जब मुझे यह काम सौंपा गया है तब जिन दो किताबों की सबसे पहले याद आती है - जीते जी इलाहाबाद और एक देश बारह दुनिया. दोनों न कहानी संग्रह हैं और न उपन्यास. ये दोनों कथेतर की किताबें हैं, जिसे अंग्रेजी में नॉन फिक्शन कहा जाता है. पिछले कुछ सालों से लगातार देख सकते हैं कि हिंदी के पाठकों का मिजाज बदल रहा है और वे स्थापित तथा मुख्य मानी जाने वाली विधाओं की अपेक्षा उन विधाओं की किताबों में कहीं अधिक रस ले रहे हैं जिन्हें हम हाशिये की अथवा अन्य गद्य विधाएँ कहकर काम चलाते थे. इन विधाओं में संस्मरण, जीवनी, आत्मकथा, रिपोर्ताज़, निबंध और रेखाचित्र की किताबें आ जाती हैं. यह परिवर्तन क्यों हुआ? इसका कोई कारण है? मुझे लगता है कि जिस तरह टेलीविजन में बजाय कथात्मक धारावाहिकों के दर्शकों को सीधे प्रसारण (लाइव शो) सरीखे कार्यक्रम अधिक पसंद आने लगे उसी तरह की बात साहित्य में भी हुई है. इसका कारण है यथार्थ की अधिक जरूरत महसूस करने वाले पाठकों की यथार्थ की खाँचाबद्ध विधाओं से दूरी या अलगाव. इसका यह अर्थ नहीं कि अच्छे उपन्यास या बढ़िया कहानियों का युग चला गया बल्कि इसका आशय है कि साहित्य अधिक लोकतान्त्रिक हो रहा है जहाँ सबके लिए जगह है. ममता कालिया स्थापित कथाकार हैं लेकिन 'एक देश बारह दुनिया' रिपोर्ताज़ों की किताब है जिस विधा में हिंदी में लिखी गई दस ढंग की किताबें खोजना भी खासा चुनौतीपूर्ण है. इसके लेखक शिरीष खरे पत्रकार हैं और उन्हें इस किताब से पहले हिंदी साहित्य की दुनिया में कोई अधिक पहचान न मिली थी. अब कहा जा सकता है बल्कि कहा ही जाना चाहिए कि यह कथेतर का समय है जिसमें लगातार भिन्न भिन्न विधाओं की किताबों का आगमन हमारे हिंदी संसार को बड़ा, व्यापक, गहरा और समावेशी बना रहा है.
अन्य उल्लेखनीय कथेतर किताबें
इस साल कथेतर विधाओं में और जिन किताबों का विशेष उल्लेख किया जा सकता है उनमें आत्मकथा और संस्मरण विधा के अंतर्गत 'मेरा ओलियागाँव' - शेखर जोशी, 'ज़करिया रोड से मेफ़ेयर रोड तक' - रेणु गौरीसरिया, 'क्या कहूँ आज' - सत्यनारायण व्यास, गाजीपुर में क्रिस्टोफर काडवेल - उर्मिलेश और निवेदिता की ‘पटना डायरी’ सबसे पहले याद आती हैं. आशीष त्रिपाठी ने नामवर सिंह के लिखे को छाँटकर उनकी आत्मकथा सरीखी किताब तैयार की है जो 'जीवन क्या जिया' शीर्षक से इस साल आई. नामवर जी की एक और किताब 'सखुनतकिया' उनके सुपुत्र ने विजय प्रकाश सिंह ने प्रस्तुत की. अमृत राय लिखित प्रेमचंद की जीवनी 'कलम का सिपाही' आरसे बाद फिर छपकर आई और इस नये संस्करण को भी पाठकों ने खूब पसंद किया. रज़ा फाउंडेशन ने प्रयासपूर्वक हिंदी में जीवनी विधा में किताबें लिखवाई हैं उनमें इस साल आई गिरधर राठी लिखित 'कृष्णा सोबती का दूसरा जीवन' और भारत यायावर लिखित 'रेणु एक जीवनी' अग्रगण्य है.
कथेतर के अंतर्गत यात्रा आख्यान ऐसी विधा है जिसमें पाठक बहुत दिलचस्पी लेते हैं. असग़र वजाहत और अनिल यादव के यात्रा आख्यानों के बाद हिंदी में नयी सदी में इस विधा में जैसे विस्फोट हुआ है. इस साल इस विधा में राकेश तिवारी का यात्रा आख्यान 'अफगानिस्तान से खत-ओ-किताबत', अम्बिकादत्त का 'सियाराम का गाँव', गीता गैरोला का 'ये मन बंजारा रे' , अरुण कुकसाल का 'चले साथ पहाड़', देवेंद्र मेवाड़ी का 'कथा कहो यायावर' और दिनेश शर्मा का 'फिर चल दिये' प्रमुख हैं.
इस साल ही रामविलास शर्मा के पत्र उनके पुत्र विजय मोहन शर्मा ने व्यवस्थित कर पुस्तकाकार प्रकाशित करवाए जो निश्चय ही इस विधा की उपलब्धि माने जाएंगे.
' बस्ती' पर अष्टभुजा शुक्ल की किताब और विश्व साहित्य के चयन की किताबें 'सोचो साथ क्या जाएगा' सम्पादक - जितेन्द्र भाटिया इस साल की अन्य ख़ास किताबें हैं. व्यंग्य जैसी उपेक्षित मानी जानी वाली विधा में ज्ञान चतुर्वेदी की 'नेपथ्य लीला' और विष्णु नागर की किताब 'एक नास्तिक का रोज़नामचा' आईं. देश में चल रहे किसान आंदोलन पर भी किताबें आईं जिनमें बलवंत कौर और विभास वर्मा की 'किसान आंदोलन : लहर भी, संघर्ष भी, जश्न भी' के साथ बजरंग बिहारी तिवारी और सियाराम शर्मा की पुस्तिकाओं को याद किया जाना चाहिए.
हिमालय के जीवन और यात्राओं पर शेखर पाठक की अनूठी किताब 'दास्तान ए हिमालय' (दो खंड) भी इस साल की उपलब्धि है.
आलोचना की किताबें
आलोचना के क्षेत्र में मौलिक किताबों के साथ विजय गुप्त सम्पादित 'कथा शिखर : हरिशंकर परसाई' और कामेश्वर प्रसाद सिंह सम्पादित 'कथा शिखर : काशीनाथ सिंह' को ख़ास ढंग से तैयार बढ़िया किताबें कहा जाएगा. इस विधा में नवलकिशोर की 'कथा आलोचना', अपूर्वानंद की यह प्रेमचंद हैं, जीवन सिंह की कविता की अर्थवत्ता, स्वयं प्रकाश की 'लिखा पढ़ा', अमितेश कुमार की 'वैकल्पिक विन्यास' के साथ जिस किताब को विशेष रेखांकित किया जाना चाहिए वह है माधव हाड़ा लिखित 'देहरी पर दीपक' जिसमें आलोचना के निबंधों को रचनात्मक आस्वाद के साथ पढ़ना आलोचना की समृद्धि से अवगत होना है. युवा आलोचक नामदेव की 'साझेदारी के पक्ष में हिंदी कथा साहित्य' और सुदीप्ति की हिंदी की पहली आधुनिक कविता को भी याद करना अनुचित न होगा.
उपन्यास कौन से रहे ख़ास
इस साल के उपन्यासों में ज्ञान चतुर्वेदी का 'स्वांग', लोकबाबू का 'बस्तर बस्तर', रजनी गुप्त का 'तिराहे पर तीन' और ललित मोहन रयाल का 'चाकरी चतुरंग' को ख़ास माना जा सकता है. ज्ञान चतुर्वेदी हिंदी उपन्यास में अपनी शैली और कहन के अंदाज के लिए अलग से जाने जाते हैं वहीँ लोक बाबू का उपन्यास छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के विस्थापन और कारपोरेट लूट पर लिखी गई मूल्यवान कथाकृति है. कहानी की दुनिया में ख़ास किताबों के लिए हमें पत्र-पत्रिकाओं की शरण लेनी होगी.
कविता और उसके बाद
कविता मेरा इलाका नहीं है तब भी इस साल आए कुछ अच्छे कविता संग्रहों को याद न करना पाप जैसा ही है. इनमें राजेश जोशी का 'उल्लंघन', अनुज लुगुन का 'पत्थलगड़ी', विनोद पदरज का 'आवाज़ अलग अलग है', यतीश कुमार का 'अन्तस् की खुरचन', असंगघोष का हत्यारे फिर आएँगे, पूनम वासम का 'मछलियां गायेंगी एक दिन पंडुम गीत' और चंद्र कुमार का 'स्मृतियों में बसा समय' याद आते हैं. इस साल रज़ा पुस्तकमाला के अंतर्गत वंशी माहेश्वरी के विश्व कविता चयन के दो खंड आए.
आखिर में साहित्यिक पत्रिकाओं-लघु पत्रिकाओं के कुछ विशेष अंकों का उल्लेख भी करना चाहिए जिनमें उद्भावना और नया पथ के 'साहिर लुधियानवी अंक' सबसे पहले याद आते हैं. फणीश्वरनाथ रेणु के जन्मशताब्दी वर्ष पर लगभग आठ-दस पत्रिकाओं के अंक आए. साम्य ने स्वयं प्रकाश, सबद निरन्तर ने कृष्णा सोबती और कविता बिहान ने राजेश जोशी पर अंक निकाले. इनके साथ संवेद, पक्षधर, देस हरियाणा, प्रयाग पथ, सृजन सरोकार,नया प्रतिमान, बया, समकालीन तीसरी दुनिया, साखी उल्लेखनीय हैं. लम्बे समय बाद प्रगतिशील वसुधा का अंक आया. सरकारी पत्रिकाओं में आजकल ने बहुत अच्छे अंक निकाले.
रज़ा फाउंडेशन ने अकेले पचास से अधिक नयी श्रेष्ठ किताबों का प्रकाशन किया और कुछ पुरानी दुर्लभ-शानदार किताबों का पुनर्प्रकाशन भी किया.
कहना न होगा कि हिंदी में गहमागहमी बनी रही और साहित्य की दुनिया में उत्साह भी. जिन लोगों ने कोरोना और अन्य कारणों से साथ छोड़ दिया उन सबको विनम्र श्रद्धांजलि.
(पल्लव प्रखर कथा-आलोचक हैं. बहु-प्रशंसित साहित्यिक पत्रिका 'बनास जन' के सम्पादक हैं. )
(यहाँ दिये गये विचार लेखक के नितांत निजी विचार हैं. यह आवश्यक नहीं कि डीएनए हिन्दी इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे और आपत्ति के लिए केवल लेखक ज़िम्मेदार है.)
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