'कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं, गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं'

गज़लकार दुष्यंत कुमार की 'कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं' गज़ल की ये कुछ पंक्तियां वर्तमान राजनीति पर बखूबी बैठती हैं. मंच से चीखते नेता, आक्रामक होते बयान, जनता को लुभाते वादे, भाषा के जाल में भोली जनता को फंसाना आज के समय की सच्चाई बन गए हैं.  हरियाणा, जम्मू-कश्मीर में चुनाव दौर चल रहा है. आने वाले समय में महाराष्ट्र दिल्ली समेत कई राज्यों में विधानसभा चुनाव तय हैं. पर सवाल ये है कि आक्रामक राजनीति जनता को लुभाती है, क्या आक्रामक बयानबाजी नेताओं की जीत का रास्ता तय करती है?  

चुनावी जीत और चुनावी आक्रमकता में अंतर, इतिहास है गवाह
सवालों का जवाब देते हुए दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर डॉ. अमित कुमार का कहना है कि आधुनिकता की आक्रामकता ने व्यक्ति के शब्दों में भी आक्रमण के बीज बो दिए हैं. वैसे इसे कुछ लोग भारतीयता की 'पौरुषता' ही मानेंगे. हालांकि, आक्रामक बयानबाजी का जीत से बहुत कम लेना देना है. चुनावी जीत और चुनावी आक्रामकता दोनों में काफी अंतर हम 20वीं और 21वीं सदी की उपलब्धियों में से एक मान सकते हैं. 

'20वीं सदी के अंत में बदला राजनीति का रुख'
आप वैश्विक तानाशाहों हिटलर, मुसोलनी, स्टालिन, चे गवेरा, इदीयामिनी आदि को 20वीं सदी के शुरुआती दौर में देख सकते है. जब इनके बयानों को काफी तवज्जो दी जाती थी. इसे लोगों को संगठित करने की एक मुख्य युक्ति माना जाने लगा. लेकिन समय के अंतराल में इस आक्रमकता में कमी आने के संकेत मिलने लगे. हालांकि चर्चिल, निक्सन, मार्गेट थ्रेचर और बुश के दौर तक यह यथास्थायी सा दिखता है. लेकिन 20 वीं सदी के अंत और 21वीं सदी के प्रथम दशक तक राजनीति बहुत कुछ बदली.  जिसमें जनता ने 'लोक' को केंद्र में रखकर जनतंत्र की वकालत की. हालांकि, अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों में 'लोक' की बात कहने में लोकतांत्रिक आक्रमकता दिखाई देती रही है. इसका असर भारत में भी पड़ने लगा है. 21वीं सदी का भारत आक्रामक बयानबाजी के केंद्र में सीमित होता जा रहा है.

प्रारम्भ में सत्तापक्ष इसे लेकर बहुत उत्सुक दिखाई दिया और इसे जस का तस बनाए हुए है. इत्तेफाक की बात तो यह भी है कि प्रतिपक्ष भी इसी मार्ग को अपनी राजनीति की प्रगति का मान रहें है. आक्रामक बयानबाजी में सिर्फ मोदी और अमित शाह ही रेस में नहीं हैं बल्कि भारत जोड़ों अभियान यात्रा के बाद राहुल गांधी में, प्रियंका गांधी में, अरविंद केजरीवाल, अखिलेश यादव, तेजस्वी यादव, ठाकरे और अभी के नए नेताओं जैसे रावण, पटेल और कन्हैया कुमार में यह सब देखा जा सकता है. 

हालांकि, सत्ता पक्ष इस तरह की आक्रामक बयानबाजी के बाद 2024 के लोकसभा चुनाव में वह उपलब्धि हासिल नहीं कर पाया जो उसे उम्मीद थी. प्रतिपक्ष इसे लोकतांत्रिक आक्रमकता में भुनाकर थोड़ा बहुत विश्वास को उभार पाया है. इसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है. वैसे बयानबाजी की आक्रामकता से अत्याधिक 'लोक' केंद्रीत जनतंत्रीय आक्रामकता भारत की वैश्विकता के लिए बेहद जरूरी है. 
 
'सिर्फ आक्रामकता नहीं, तर्क काम आते हैं'
लंबे समय से मनोचिकित्सा के क्षेत्र में कार्यरत भोपाल में वरिष्ठ मनोवैज्ञानिक डॉ. सत्यकांत त्रिवेदी बताते हैं कि आक्रामकता और जोश का नेताओं की हार जीत पर क्या प्रभाव पड़ेगा ये इस बार पर निर्भर करेगा कि जनता ने उसे कैसे लिया. प्रभाव तभी दिखेगा जब जनता पर उसका प्रभाव पड़ेगा. जनता वहां ज्यादा प्रभावी होती है जहां ऐसे मुद्दों को उठाया जाता है जो जनता की भावनाओं से गहरे रूप से जुड़े होते हैं. जनता के मन की बात करके नेता जनता के मन में एक जबरदस्त दृढ़ व्यक्ति की छवि बनाते हैं और उनकी उम्मीदों को एक उम्मीद पैदा करता है. जब हम एक समूह में होते हैं तब भीड़ एक कॉमन मानसिकता के साथ काम करती है. ऐसी भीड़ में ऐसे भाषण नेता की लोकप्रियता को बढ़ाने का काम करते हैं. 

आक्रामक राजनीति या भाषणबाजी ज्यादातर समय एक रणनीति का हिस्सा होते हैं. नेता अपना जोश या आक्रामकता को जनता के मूड के हिसाब से तय करेगा तो फायदा होगा अन्यथा जनता पर नकारात्मक प्रभाव भी डाल सकता है. आक्रामक भाषण और बयानबाजी नेतृत्व का एक रणनीतिक हिस्सा हो सकता है, लेकिन इसका प्रभाव इस बात पर निर्भर करता है कि नेता इसे कैसे उपयोग करता है, उनकी भाषा की किस तरह की गूंज जनता के बीच होती है, और उनके आक्रामक दृष्टिकोण को जनता कितना तर्कसंगत मानती है. 
 
नेताओं के वादों को वेरिफाई करने का जनता के समय नहीं
लंबे समय पर भारतीय राजनीति पर पत्रकारिता करने वाले वरिष्ठ पत्रकार मनोज मिश्र कहते हैं कि पिछले कुछ समय में देखा गया है कि जो लोग डिफेंसिव होकर बात कर रहे हैं वे पूरे समय डिफेंसिव होकर, सफाई देते रह जाते हैं. वहीं, कई नेता झूठ बोलकर सफल हो गए. ये एक नया ट्रेंड चला है कि चुनाव में आप इतने वायदे कर दो कि पूरे चुनाव में लोग सफाई देते फिरें. कुछ लोग कमिटेड वोटर होते हैं, लेकिन जो ज्यादातर आबादी साइलेंट वोटर है. जो चुनाव के आसपास जाकर खुद को बदलता है.


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कुछ लोग इसलिए भी वोट कर देते हैं कि ये जीत रहा है. जनता के पास वादों को परखने का कोई साधन नहीं है. न वेरिफाई करने का समय है. नेता का चीख-चीख कर बोलना या बहुत आक्रामक होकर बोलना जनता को कुछ समय के लिए प्रभावित कर सकता है बहुत लंबे समय के लिए नहीं करता. अगर कोई नेता कहता है कि मुफ्त इलाज देंगे, लेकिन लोग ये नहीं समझ पाते कि सरकारी अस्पताल में पैसे से इलाज कब होते थे. लोगों को बेवकूफ बनाया जाता है. इनोसेंट वोटर ठगा जाता है. लो 

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PM Modi Rahul Gandhi speeches filled with slander than issues does aggressive politics attract the public
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क्या सच में आक्रामक राजनीतिक जनता को लुभाती है?
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भाषणों में मुद्दों से ज्यादा 'लांछन' को मिल रही जगह, क्या सच में आक्रामक राजनीति जनता को लुभाती है? 

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