डीएनए हिंदी: बुखार हुआ है तो डोलो ले लो. डोलो ऐसी दवाई है जिसका नाम पिछले दो वर्षों में डॉक्टरों से ज्यादा आम लोगों की जुबान पर चढ़ गया था. मार्च 2020 में कोरोना वायरस की महामारी आने के बाद के डेढ सालों में भारत में डोलो 650 की सेल ने रिकॉर्ड कायम किया है. हेल्थकेयर रिसर्च फर्म IQVIA के मुताबिक बेंगलुरु की कंपनी माइक्रोलैब्स की दवा डोलो की कमाई 2021 में 307 करोड़ रुपए रही.

कोरोना काल में डोलो 650 दवाई के साढ़े सात करोड़ पत्ते, यानी  350 करोड़ गोलियां बिकने का डाटा सामने आया. हाल ही में पड़ी रेड्स में CBDT ने पाया कि माइक्रोलैब्स  ने डोलो का नाम मरीजों की जुबां तक पहुंचाने के लिए डॉक्टरों को तकरीबन 1 हज़ार करोड़ की रेवड़ियां बांटी. 

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बड़ा सवाल यह है कि क्या यही एक दवाई है जिसे फार्मा कंपनियां लालच देकर डॉक्टरों को लिखने को मजबूर कर रही हैं. ऐसी हज़ारों दवाइयां हैं जिनके सस्ते विकल्प मौजूद होने के बाद आप तक उस दवा का डिजाइनर और महंगा अवतार ही पहुंचता है. कई बार फार्मा कंपनी के दबाव में तो कभी क्वालिटी की दुहाई देकर और कभी सिस्टम की खामियों का फायदा उठाकर भारत में महंगी दवाओं का कारोबार चलाया जाता है.

Freebie पर क्या कहता है कानून?

भारत में डॉक्टर फार्मा कंपनियों से किसी तरह की फेवर नहीं ले सकते. यह कानून में दर्ज है. इंडियन मेडिकल काउंसिल रेगुलेशन एक्ट 2002 के तहत डॉक्टर फार्मा कंपनियों से कोई तोहफा नहीं ले सकते हैं. मेडिकल काउंसिल के रेगुलेशन 6.8 के मुताबिक डॉक्टर किसी फार्मा कंपनी से गिफ्ट्स, ट्रैवल की सुविधा, होटल स्टे, कैश जैसा कुछ नहीं ले सकते. ऐसा पाए जाने पर डॉक्टर की प्रैक्टिस तीन महीने से लेकर एक साल तक के लिए सस्पेंड की जा सकती है. 

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हालांकि फार्मा कंपनियां तोहफा दे सकती हैं या नहीं, इस बारे में ये रेगुलेशन कुछ नहीं कहता. लिहाजा एक मामले में एक फार्मा कंपनी फ्रीबीज़ के बदले टैक्स में राहत पाने कोर्ट तक चली गई थी. इसी साल फरवरी में इस मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने जो कहा वह बेहद दिलचस्प है. मरीज के लिए डॉक्टर का लिखी पर्ची पत्थर की लकीर होती है. चाहे वे दवाइयां मरीज की पहुंच से बाहर क्यों ना हों. डॉक्टर पर विश्वास का स्तर इतना अधिक है.

इस मामले में फार्मा कंपनी और डॉक्टर दोनों पर एक्शन हुआ. यह कंपनी ज़िंक (ZINC) टैबलेट्स बेचने की खातिर डॉक्टरों को तोहफे बांट रही थी. हो सकता है कि आपने भी बिना वजह जिंक सप्लीमेंट्स खाए हों लेकिन हमारी और आपकी मजबूरी यह है कि डॉक्टर की राय आम आदमी के लिए भगवान के कथन से कम नहीं होती. 

डॉक्टर की रिकमंड दवाई, क्यों होती है असरदार?

कड़वा सच यह है कि फार्मा कंपनियों और डॉक्टरों का मेल जोल जारी है. यहां हम ये स्पष्ट कर दें कि हम डॉक्टरों का बहुत सम्मान करते हैं और भारत में ज्यादातर डॉक्टर ईमानदार हैं. लेकिन यह भी सच है कि मरीज को दवाएं लिखते वक्त दवाओं का ब्रांड अहम हो जाता है. 

70 प्रतिशत भारतियों के लिए इलाज करवाना उनकी जेब से बाहर की बात है. इसमें दवाओं का बिल एक बड़ी भूमिका निभाता है. इसलिए आज हम आपको ये बताएंगे कि आपकी दवाओं का बिल कैसे कम हो सकता है. लेकिन उससे पहले ये जानिए कि भारत में दवाओं के दाम तय कैसे होते हैं.

भारत में दवा के दाम कैसे तय होते हैं?

भारत में 3 हज़ार दवा कंपनियां है और भारत का दवा बाज़ार 42 बिलियन का है. इनमें से केवल एक चौथाई दवाएं ऐसी हैं जिनके दाम तय करना कुछ हद तक सरकार के हाथ में हैं.  भारत में नेशनल फॉर्माक्युटिकल प्राइसिंग अथॉरिटी (NPPA), नेशनल लिस्ट ऑफ इसेंशियल मेडिसिन के तहत आने वाली दवाओं के दाम तय करती है. भारत में 355 दवाओं और उनके 882 फॉर्मूलेशन्स के दाम ड्रग प्राइस कंट्रोल ऑर्डर (DPCO) के तहत तय होते हैं. 

लेकिन इस ऑर्डर के तहत जो दाम तय होते हैं उसका फॉर्मूला ऐसा है कि दाम कम होने के आसार कम ही रहते हैं. भारत में किसी बीमारी की जो दवाएं सबसे ज्यादा बिकती हैं उनके औसत दाम के आधार पर सरकार दवाओं का सीलिंग प्राइस यानी अधिकतम मूल्य तय कर देती है. 

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फार्मा कंपनियों की मार्केटिंग स्ट्रैटजी की मेहरबानी है कि भारत में सबसे ज्यादा बिकने वाली दवाएं आमतौर पर बड़ी कंपनियों की महंगी दवा ही होती है. अगर आधार ही ये दवाएं होंगी तो दाम कैसे घटेंगे, ये समझा जा सकता है. 

भारत में 2013 तक दवाओं के दाम लागत और मुनाफा जोड़कर तय होते थे. लेकिन अब दवा के दाम का उसकी लागत से कोई लेना देना नहीं रहा. जो दवाएं dpco के तहत नहीं आती. उनके दाम निर्माता कंपनी खुद तय कर सकती है. यानी 10 रुपए में बनने वाली दवा का दाम वो 1 हज़ार भी रख सकती है. 

जेनेरिक दवाइयां हैं समाधान? 

यहां रोल आता है जेनेरिक दवाओं का. यानी ब्रांड की जगह सीधे सॉल्ट के नाम से दवा मिल सके. यह दवाएं ब्रा्डेड के मुकाबले आमतौर पर बेहद सस्ती होती हैं. जेनेरिक दवा बेचने का ज्यादा  काम भारत में प्रधानमंत्री जन औषधि केंद्र करते हैं. भारत में 8 लाख से ज्यादा केमिस्ट की दुकाने हैं और जन औषधि केंद्र साढे 8 हज़ार. ये हाल तब है जब भारत दुनिया में सबसे ज्यादा जेनेरिक दवाएं बनाता है. 

अब आप समझ सकते हैं कि अगर ये सारे सेंटर भी जेनेरिक दवा बेचने लगें तो भी काम बनना मुश्किल है. लेकिन आज हमने आपके लिए एक विश्लेषण किया है जिसे देखकर आपकी आंखें खुल जाएंगी और आप अपना नजदीक जन औषधि केंद्र या जेनेरिक दवा बेचने वाली दुकान खोजने पर मजबूर हो जाएंगे.

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क्या जेनेरिक दवाएं भारत में दवा बाज़ार के मुनाफे पर लगाम लगा सकती हैं या ये दूर का सपना ही है. यह आपको हमारी रिपोर्ट से समझ आ जाएगा. दिल के मरीज और डायबिटीज के मरीज जो सालों दवाएं खातें हैं उनके महीने के बिल में हजार गुना का फर्क आ गया. 2 हज़ार का बिल 400 हो गया.

हर दवाई का नहीं होता जेनेरिक विकल्प

मैक्स हॉस्पिटल के कार्डियोलॉजिस्ट डॉक्टर बलबीर सिंह मक्कड़ ने कहा कि हर ब्रांडेड दवा का जेनेरिक विकल्प मिल पाना संभव नहीं है. हालांकि उन्होंने माना कि कुछ डॉक्टर फार्मा कंपनियों के प्रभाव में काम करते हैं लेकिन सभी ऐसे नहीं हैं.

फार्मा क्षेत्र के जानकारों की मानें तो भारत में दवा कंपनियों और डॉक्टरों के गठबंधन को तोड़ने के लिए मौजूदा कानूनों को अनिवार्य करने और कड़ाई से लागू करने पर ही काम बन सकता है. इसके अलावा जेनेरिक दवाओं में लोगों का भरोसा जगाने और उनकी उपलब्धता तय करने पर सरकार को अभी बहुत काम करना है. 

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Indian Health System Rational drug policy needed to curb doctor-pharma nexus
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महंगी दवाइयां परेशान मरीज, कितना असरदार होता है डॉक्टर-फार्मा कंपनियों का गठजोड
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 महंगी दवाइयां परेशान मरीज, कितना असरदार होता है डॉक्टर-फार्मा कंपनियों का गठजोड़?