डीएनए हिंदी: भारतीय जनता पार्टी (BJP) पसमांदा मुसलमानों (Pasmanda Muslim) को अपनी ओर खींचने की कोशिश में जुटी है. उत्तर प्रदेश में बीजेपी पसमांदा मुस्लिमों को अपनी ओर खींचने की भरपूर कोशिश कर रही है. यही वजह है कि राजधानी लखनऊ में पसमांदा मुस्लिमों को एक बड़ी बैठक बुलाई गई थी. पसमांदा मुस्लिम राजनीतिक, आर्थिक और सामुदायिक तौर पर बेहद कमजोर हैं. अब बीजेपी पसमांदा मुस्लिमों को अपनी ओर खींचने की कोशिश में जुटी है. बीजेपी मुस्लिमों के सबसे कमजोर तबके को अपनी ओर खींचना चाहती है.
उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री ब्रजेश पाठक ने तो यहां तक कह दिया कि पसमांदा मुस्लिम तेजपत्ता की तरह हैं, जिन्हें बिरयानी का स्वाद लेने के बाद फेंक दिया जाता है. पसमांदा मुस्लिमों के इस समुदाय को उन्होंने आश्वस्त भी किया कि नरेंद्र मोदी सरकार उनके साथ ऐसा नहीं करेगी.
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पसमांदा मुसलमान कौन हैं?
पसमांदा फारसी का शब्द है. इसका मतलब होता है कि पीछे छूट जाने वाले लोग. मुस्लिम समुदाय के दलित वर्ग को पसमांदा मुस्लिम कहते हैं. पसमांदा मुस्लिम, समुदाय के सबसे अंतिम पायदान पर खड़े हैं. उनके पास न कोई विशेषाधिकार है, न ही सत्ता में हिस्सेदारी.
मुस्लिम समुदाय भी भारत में जातिवाद के दायरे से बाहर नहीं निकल पाया. दलित, आदिवासी और पिछड़े समुदाय के जो लोग धर्म परिवर्तन के बाद मुस्लिम बने थे, उनके साथ अपने समाज में भेदभाव होता है. पसमांदा ऐसे मुस्लिमों के लिए एक कास्ट आइडेंटिटी की तरह समझा जाता है.
इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के मुताबिक पसमांदा मुस्लिम शब्द का इस्तेमाल पहली बार साल 1998 में अली अनवर अंसारी ने किया था. उन्होंने ही पसमांदा मुस्लिम महाज़ की स्थापना की थी.
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अखिल भारतीय पसमांदा मुस्लिम महाज़ के राष्ट्रीय अध्यक्ष और संस्थापक अली अनवर अंसारी ने कहा, 'पसमांदा में अब तक दलित शामिल हैं लेकिन सभी पसमांदा दलित नहीं हैं. संवैधानिक रूप से कहा जाए तो हम सभी एक श्रेणी में हैं- ओबीसी. हम चाहते हैं कि हमें दलित मुस्लिम के तौर पर पहचाना जाए.'
क्या मुस्लिमों में भी होता है जातिगत भेदभाव?
मुस्लिम समुदाय बाहरी तौर पर समतावादी धर्म माना जाता है, जहां जातियां गौण हैं. यथार्थ इससे अलग है. मुस्लिमों में भी जातियां और उपजातिया हैं. भारत में जातियों का अस्तित्व आरंभ से रहा है, मुस्लिम समाज भी इसके दलदल से नहीं बच पाया है. जाति भारत में सामाजिक संगठन का मूल आधार है.
भारत में मौजूद लगभग सभी धर्मों में जातिवाद की पैठ है. इस्लाम जाति प्रथा में यकीन नहीं रहता है लेकिन भारत में जाति एक फैक्टर है. इस्लाम मानता है कि दुनियाभर के मुस्लिम एक हैं लेकिन भारत में जातियों में बंटा हुआ मुस्लिम समुदाय, अपने अस्तित्व से बाखूबी वाकिफ है.
कई जातियों में बंटे हैं भारत में मुसलमान
भारत में मुस्लिम समुदाय कई खांचों में बंटा है. मुस्लिम समाज के तीन फिकरे माने जाते हैं. अशरफ, अजलाफ और अरज़ल. अशरफ उच्च कुलीन मुस्लिम हैं. अजलाफ पिछड़े मु्स्लिम हैं. अरज़ल की गिनती दलित मुस्लिमों में होती है.
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अशरफ दावा करते हैं कि उनके पूर्वज अरब, फारस, तुर्की, अफगानिस्तान (सैयद, शेख, मुगल और पठान) से आए हैं और वे सच्चे मुसलमान हैं. राजपूत, गौर, त्यागी समाज के हिंदू जब मुस्लिम बनते हैं तो वे अशरफ ही बनते हैं.
कौन हैं अजलाफ?
अजलाफ पिछड़े समाज से आने वाले मुस्लिम हैं. धर्म परिवर्तन से पहले बुनकर, जुलाहा, दर्जी, इदीरिस, कुंजरा व्यवसाय से जुड़े लोग अजलाफ कहलाए. ये मुस्लिम समाज की पिछड़ी जातिया हैं.
कौन हैं अरज़ल?
अरज़ल मुस्लिम समुदाय में सबसे कमजोर जातिया हैं. साल 1901 में पहली बार जनगणना में इन्हें चिह्नित किया गया था. मूलत: समाजिक तौर पर दलित वर्ग के लोगों को इस समाज का हिस्सा बनाया गया. जैसे हलालखोर, हेला, लालबेगी, भंगी, मेहतर, धोबी, नाई, हज्जाम, चिकवा, और फकीर जातियों के लोगों को अरज़ल कहा जाता है.
साल 2005 में गठित राजिंदर सच्चर समिति की रिपोर्ट में कहा गया था कि मुस्लिमों के बीच तीन समूह हैं. सामाजिक तौर पर सबसे प्रतिष्ठित अशरफ. हिंदुओं की तुलना में ओबीसी माने जाने वाला समुदाय अजलाफ. और दलित वर्ग के समकक्ष माने जाने वाला अरज़ल समाज. अरज़ल समाज सबसे पिछड़ा समाज है.
जस्टिस रंगनाथ मिश्रा कमीशन ने साल 2007 में एक रिपोर्ट पेश की थी. रिपोर्ट का निष्कर्ष था कि भारत में हर धर्म जाति से प्रभावित है. जाति व्यवस्था ने हर वर्ग को प्रभावित किया है.
भारत में कितने हैं मुस्लिम पसमांदा समुदाय?
भारत में जाति जनगणना के अभाव में, कोई विशिष्ट संख्या उपलब्ध नहीं है. सच्चर समिति की रिपोर्ट के मुताबिक 2004-05 में ओबीसी और एससी/एसटी मुसलमान भारत की कुल मुस्लिम आबादी का 40% हिस्सा हैं. पसमांदा एक्टिविस्ट का मानना है कि वे भारत की मुस्लिम आबादी का 80-85% हिस्सा हैं. यह 1871 की जनगणना पर आधारित था, जिसमें दावा किया गया था कि केवल 19 प्रतिशत जातियां ही ऊंचे तबके से आते हैं.
बीजेपी पसमांदा मुस्लिमों का क्यों हासिल करना चाहती है भरोसा?
बीजेपी अपना वोटर बेस बढ़ाना चाहती है. पसमांदा मुस्लिमों की एक बड़ी आबादी यूपी और बिहार में रहती है. ये दोनों राज्य लोकसभा चुनाव 2024 में अहम रोल निभाने वाले हैं. बीजेपी इसी वोट बैंक को हासिल करना चाहती है. 2014 से ही पसमांदा मुसलमानों के लिए बीजेपी काम कर रही है. राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ भी इसी वोट बैंक के लिए स्थिति मजबूत कर रही है. इस समुदाय का ज्यादातर हिस्सा धर्म परिवर्तन के बाद मुस्लिम बना है. इस वजह से संघ और बीजेपी इस समुदाय को टार्गेट करना चाहते हैं.
पसमांदा मुसलमानों तक क्यों पहुंच रही है बीजेपी?
संघ के मुस्लिम राष्ट्रीय मंच का कहना है कि मुस्लिम महिलाएं और पसमांदा अपने अधिकारों को समझें, अपनी और देश की समस्याओं को हल करने के लिए ताकत लगाएं. हैदराबाद में जब बीजेपी राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक चल रही थी, तब प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने पार्टी को हिंदुओं के अलावा अन्य समुदायों के वंचित और दलित वर्गों तक पहुंच बढ़ाने के लिए कहा था. यूपी और बिहार में पसमांदा मुस्लिमों की एक बड़ी आबादी है, जिसे लोकसभा चुनाव 2024 में बीजेपी भुनाना चाहती है.
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पसमांदा मुसलमानों को क्यों लुभाना चाहती है BJP, क्या जातियों के सहारे 2024 साधने की है तैयारी?