डीएनए हिंदी: बार्बी डॉल नाम से पहला खाका हमारे जेहन में बनता है सुंदर, सुकोमल और तराशे हुए बदन वाली गुड़िया. जिसके चेहरे पर बाल सुलभ चपलता है लेकिन बदन बिल्कुल गठीला और कसा हुआ. एक बच्चों जैसा मासूम चेहरा और औरतों जैसे सुडौल शरीर वाली गुड़िया. बार्बी और किचन सेट शायद ऐसे खिलौने हैं जो भारत के कस्बाई शहरों में भी हर बच्ची का सपना होता है. इस सुंदर गुड़िया के बनने, बिकने और लोकप्रिय होने के साथ ही विमर्शों में भी खूब चर्चा हुई है. दुनिया भर में सबसे ज्यादा बिकने वाली इस डॉल की एक वक्त में जोरदार आलोचना भी हुई है. फिल्म रिलीज के बाद फिर से फेमिनिस्ट नजरिए से इसकी समीक्षा की जा रही है. बार्बी पर बनी हालिया फिल्म में मार्गोट रॉबी बार्बी और रयान गोसलिंग केन की भूमिका में हैं. बार्बी के इतिहास और इसे लेकर क्यों रहा है विवाद समझें यहां.
कैसे शुरू हुई बॉर्बी की कहानी
अमेरिका में रहने वाली रूथ हैंडलर एक प्रवासी यहूदी महिला थीं. यहूदी परिवार से आने वाली रूथ के लिए कमाना जरूरी था. यही वजह है कि 1945 के दौर में उन्होंने पति के साथ मिलकर कमाना शुरू किया. अपनी बेटी बारबरा के नाम पर बार्बी डॉल बनाई थी. हैंडलर का कहना है कि वह खुद कमाती थीं और इसलिए उनकी नजर में जो पहली छवि डॉल के लिए उभरी वह थी आकर्षक और आत्मनिर्भर महिला. इस तरह से बार्बी डॉल की शुरुआत हुई. उन्होंने एक गैराज में दो दोस्तों के साथ खिलौने बनाने का काम शुरू किया.
यह भी पढ़ें: बच्चों की फिल्म Barbie में खराब भाषा-सेक्सुअल सीन पर भड़कीं Juhi Parmar
1950 और 60 के दशक में बार्बी को मिली अपार लोकप्रियता
1950 के शुरुआती दशक का अमेरिकी समाज आज की तुलना में काफी रूढ़िवादी था. महिलाओं के छोटी स्कर्ट पहनने और बाहर काम करने को लेकर उदार नजरिया नहीं था. ऐसे वक्त में बार्बी डॉल एक ऐसी महिला के तौर पर सामने आई जो न सिर्फ दिखने में आकर्षक है बल्कि आत्मनिर्भर है. 50 और 60 के दशक में बार्बी की लोकप्रिय होने की बड़ी वजह उसका आकर्षक व्यक्तित्व के साथ कामकाजी और आत्मनिर्भर भी होना था. एक ऐसी युवा महिला जिसका व्यक्तित्व आकर्षक है, गठीले बदन की है, फैशन के लिहाज से अपडेट है. साथ ही, वह कामकाजी है, कार चलाती है और पैसे कमाती है. सुंदर, स्वतंत्र, आत्मनिर्भर और फैशनेबल बार्बी देखते ही देखते अमेरिकी किशोरियों और युवतियों के लिए रोल मॉडल जैसी बन गई.
आत्मनिर्भर बार्बी के लिए केन हमेशा रहा सहयोगी
दुनिया भर में पुरुषों की हुकूमत रही है और राजनीति से लेकर घर-परिवार के फैसले आम तौर पर हर समाज में पुरुष ही लेते रहे हैं. ऐसे वक्त में बार्बी एक ऐसी महिला प्रतीक बन गई जो न सिर्फ कमाती थी, सफल थी बल्कि अपने दम पर आत्मनिर्भर भी थी. वह डॉक्टर, वकील, फैशन डिजाइनर जैसी भूमिकाओं में दिखने लगी. बार्बी अपने पैसे कमाती है और अपनी कार भी चलाती है. केन उसका पार्टनर है लेकिन वह हमेशा ही सहयोगी की भूमिका में रहा है. बार्बी की इस मजबूत और खुदमुख्तार छवि के बाद भी नारीवादी आंदोलनों के दौर में कई वजहों से घनघोर आलोचना भी हुई.
बार्बी डॉल का नारीवादी खेमे में हुआ जोरदार विरोध
ऐसा नहीं है कि बार्बी हमेशा ही प्रशंसा की पात्र रही बल्कि नारीवादी नजरिए से इसकी घोर आलोचना भी हुई है. नारीवादी विमर्शकारों ने बार्बी के एक खास तरह के फिगर, कलर स्किन, पिंक थीम और हमेशा जवान दिखने को लेकर खासी आलोचना की. अमेरिकी लेखिका और नारीवादी जिल फिलीपोविक ने अपने एक लेख में कहा कि बार्बी डॉल एक आत्मनिर्भर स्त्री की छवि को गलत तरीके से पेश करती है. यह औरत के शरीर को एक उत्पाद के तौर पर देखती है जिसमें सब कुछ सुडौल और आकर्षक है. जवान और आकर्षक औरतें ही सफल होती हैं, बार्बी इस मर्दवादी सोच को पुरजोर बढ़ावा देती है. दिवंगत नारीवादी कमला भसीन भी बार्बी को पूंजीवाद का उत्पाद मानती थीं. उनका कहना था कि बाजार की ताकत को भुनाने के लिए एक आकर्षक फिगर और बच्चों जैसे चेहरे वाली डॉल लाई गई. उसे आत्मनिर्भर दिखाया गया लेकिन वह फैशन और मेकअप में लिपी-पुती थी. यह कामकाजी महिला की असल छवि नहीं हो सकती क्योंकि मामूली नौकरी करने वाली या मजदूर वर्ग की महिलाएं कभी इस सांचे में फिट नहीं हो सकती हैं.
बार्बी फिल्म को लेकर क्या है नारीवादी नजरिया
यूनिवर्सिटी ऑफ यूकैलगिरी में असोसिएट प्रोफेसर डॉक्टर जैसलिन केलर कहती हैं कि मैं बार्बी को अच्छी या बुरी के खांचे में नहीं देखती हूं. वक्त के साथ इस डॉल ने अपने स्वरूप में कई बदलाव समाहित किए हैं. शुरुआती दौर में इसके बॉडी शेप को लेकर जो आलोचनाएं हुईं वह अपनी जगह पर वाजिब थीं. आज इसे देखने का नजरिया पहले से बदला है. इसी तरह से हस्किन स्कूल ऑफ बिजनेस में असोसिएट प्रोफेसर डॉक्टर आयशा मल्होत्रा कहती हैं कि बार्बी फिल्म में देखें तो यह सिर्फ खूबसूरती और आकर्षक दिखने की बात नहीं है. यहां बार्बी शरीर में हो रहे अपने बदलावों के साथ असली दुनिया के संघर्ष और सवालों का सामना करती है. नारीवाद के अंदर के फेमिनिन (नारीत्व) सवालों का सामना करती है. इसे एक बेहतरीन मार्केटिंग स्ट्रैटिजी भी मान सकते हैं.
यह भी पढ़ें: Video : Barbie vs Oppenheimer Public Opinion: कौन पड़ेगा भारी
मैटल ने बदलावों के साथ बार्बी को दिया नया कलेवर
ऐसा नहीं है कि 1950 के दशक से शुरू हुई कहानी आज तक वैसी ही है. बदलते सामाजिक और आर्थिक परिवेश के मुताबिक रूथ हैंडलर और उनकी कंपनी मैटल ने कई बदलाव किए. हालांकि बार्बी को हमेशा युवा और जवान ही दिखाया गया लेकिन उसके रूप रंग में कई बदलाव आए. अश्वेत सफल महिलाओं की थीम पर बार्बी लॉन्च करना हो या व्हीलचेयर पर रहने वाली बार्बी, कंपनी ने समय-समय पर ऐसे डॉल पेश किए. रंगभेद का मुद्दा हावी होने के बाद बार्बी के स्किन टोन में भी बदलाव किए गए. बार्बी डॉल को देखने का नजरिया नारीवादी हो या महज एक खिलौना या पूंजीवाद की उपज लेकिन इस सच से इनकार नहीं किया जा सकता है कि यह प्रोडक्ट के ब्रांड बनने और उसकी वैश्विक सफलता की कहानी है. यह दशकों से लोकप्रिय और चर्चा में रही है.
देश-दुनिया की ताज़ा खबरों Latest News पर अलग नज़रिया, अब हिंदी में Hindi News पढ़ने के लिए फ़ॉलो करें डीएनए हिंदी को गूगल, फ़ेसबुक, ट्विटर और इंस्टाग्राम पर.
- Log in to post comments
क्या है बार्बी की कहानी, सुंदर-आत्मनिर्भर महिला को फेमिनिस्ट मानने से आपत्ति क्यों?