डीएनए हिंदी: आदिवासी बहुल राज्य त्रिपुरा को कभी वामपंथी दलों का गढ़ माना जाता था. यह मानना लाजिमी भी था. राज्य में पहली बार साल 1963 में सरकार गठन के बाद 2018 तक 55 साल के सफर में यहां करीब 35 साल मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) का राज रहा. इसमें भी 10 अप्रैल 1993 से 8 मार्च, 2018 तक माकपा (CPI-M) ने लगातार 25 साल अपनी सत्ता मनमर्जी से चलाकर एक तरीके से इसे पश्चिमी बंगाल के बाद लाल झंडे का सबसे बड़ा गढ़ बना दिया था. लेकिन साल 2018 के विधानसभा में यहां पहली बार भाजपा का भगवा झंडा यहां लहराते ही हालात बदल गए. अब बृहस्पतिवार को राज्य में एक बार फिर सरकार चुनने के लिए मतदान हुआ है, जिनमें 86.10 फीसदी रिकॉर्ड मतदान दर्ज किया गया है. इसके बाद यह सवाल खड़ा हो गया है कि क्या भाजपा इन विधानसभा चुनाव (Tripura Assembley Election 2023) में भी अपना जादू चलाने में सफल रही है या ये रिकॉर्ड मतदान उसे सत्ता की कुर्सी से उतारने के लिए हुआ है?
रिकॉर्ड मतदान में जनता ने फिर से भगवा झंडे पर विश्वास कायम रखा है या भाजपा के जादू की चमक फीकी हो गई है. इस सवाल का जवाब 2 मार्च को मिलेगा, जब मतगणना के बाद परिणाम घोषित किए जाएंगे. इससे पहले अगले 13 दिन सभी दलों की धड़कनें तेज रहेंगी.
आइए इस रिकॉर्ड मतदान के कारण और भावी रिजल्ट को लेकर 5 पॉइंट्स मे जानें सबकुछ.
क्या रहा है इतने भारी मतदान का कारण
राज्य में भारी मतदान को लेकर एक्सपर्ट्स के अलग-अलग मत हैं. कुछ इसे भाजपा के खिलाफ सत्ता विरोधी रुझान बता रहे हैं तो कुछ ने भाजपा के समर्थन में इतना मतदान होने की बात कही है. हालांकि इस बार मतदान से जुड़े दो नए फैक्टर भी ज्यादा लोगों के पोलिंग बूथ पर पहुंचने का कारण हो सकते हैं.
- पहली बार राज्य में बसे ब्रू आदिवासी समुदाय के शरणार्थियों को भी भाजपा ने वोट देने का अधिकार दिलाया था. राज्य में ब्रू शरणार्थी 37,136 हैं, जिनमें 14,005 को ही वोट देने का अधिकार मिला है. माना जा रहा है कि इन सभी ने वोट दिया है.
- त्रिपुरा चुनाव में इस बार वहां के राजवंश की सीधी भागीदारी रही है. शाही परिवार के वंशज प्रद्योत माणिक्य देववर्मा ने अपनी टिपरा मोथा पार्टी के उम्मीदवार 60 में से 42 सीट पर उतारे थे.
Tripura recorded 86.10% voter turnout in Assembly elections on 16th February pic.twitter.com/pbatj5CZAp
— ANI (@ANI) February 17, 2023
मुख्य मुकाबला भाजपा-IPFT और माकपा-कांग्रेस गठबंधन में
इन विधानसभा चुनाव में मुख्य मुकाबला सत्ताधारी भाजपा और स्थानीय पार्टी IPFT के गठबंधन और माकपा-कांग्रेस के गठबंधन के बीच ही रहा है. भाजपा ने 55 और IPFT ने 5 सीट पर अपने उम्मीदवार खड़े किए थे, जबकि माकपा ने 43 और कांग्रेस ने 13 सीट पर कैंडिडेट उतारे थे. इन दोनों पार्टियों को फॉरवर्ड ब्लॉक, आरएसपी और भाकपा का भी समर्थन मिला है, जिन्हें बदले में 1-1 सीट दी गई थी.
टिपरा मोथा को सफलता मिली तो भाजपा का नुकसान
शाही परिवार का प्रतीक मानी जा रही टिपरा मोथा पार्टी ने 42 सीटों पर उम्मीदवार उतार रखे थे. यदि प्रद्योत माणिक्य देववर्मा का यह दांव सफल रहा और उनकी पार्टी ने इन चुनाव में ज्यादा सीटें जीतीं तो इसका नुकसान भाजपा को होने की ज्यादा संभावना है. ऐसे में देववर्मा की पार्टी किंगमेकर साबित हो सकती है.
ममता बनर्जी की TMC को मिलने वाले वोट भी करेंगे फैसला
इस बार ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस पार्टी (TMC) ने भी त्रिपुरा में ज्यादा सक्रियता दिखाई थी. साल 2018 में एक भी सीट पर नहीं उतरी TMC ने इस बार 28 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किए थे. ममता बनर्जी के भतीजे अभिषेक बनर्जी ने खुद यहां चुनावी कमान थाम रखी थी. TMC ने खुद को पश्चिम बंगाल की तरह यहां भी भाजपा के दक्षिणपंथ और माकपा के वामपंथ के विकल्प के तौर पर पेश किया था. हालांकि उनका यह दांव कितना सफल रहा, इसका फैसला भी 2 मार्च को ही होगा. यदि टीएमसी को बढ़िया वोट मिले तो इसका नुकसान भाजपा और माकपा, दोनों को होगा.
साल 2018 में आदिवासी बने थे भगवा झंडे के ध्वजवाहक
साल 2018 में भाजपा को सफलता दिलाने में आदिवासी समुदाय की वोट बेहद अहम साबित हुई थी. भाजपा ने 60 में से 36 सीटें जीती थीं, जिनमें से 18 सीट उसके और IPFT के गठबंधन को जनजातीय इलाकों में ही मिली थीं. जनजातीय समुदाय के बाहुल्य वाली 20 में से 18 सीटें जीतने के साथ ही भाजपा ने राज्य में 43.59% वोट भी हासिल किए थे, जबकि उसकी गठबंधन सहयोगी IPFT (Indigenous Peoples Front of Tripura) ने भी 7.38% वोट के साथ 8 सीट हासिल की थी. हालांकि माकपा का वोट प्रतिशत भी ज्यादा पीछे नहीं था. 16 सीट जीतने वाली माकपा को 42.22% वोट मिले थे. कांग्रेस ने 59 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे, लेकिन उसे एक भी जगह जीत नहीं मिली थी. उसका वोट प्रतिशत भी महज 1.79% रहा था.
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